12/27/2016

2016: भारत मूर्खता का इतिहास वर्ष!

2016: भारत मूर्खता का इतिहास वर्ष!

इसलिए कि दौड़ती-फुदकती आर्थिकी को झटके में बैठा देना विश्व इतिहास के पैमाने में एक राष्ट्र-राज्य का अपने पांव कुल्हाड़ी मारना है। दुनिया हैरान है। बौद्धिकता और आर्थिकी के वैश्विक थिंक टैंक के पैमाने पर एक राष्ट्र-राज्य के इस तरह अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने को न तो तर्कसंगत समझा जा रहा है और न इससे भारत निर्माण बूझा जा रहा है। बिजनेस की वैश्विक पत्रिका फॉर्ब्स के प्रधान संपादक स्टीव फॉर्ब्स ने इस शीषर्क से लेख लिखा – What India Has Done To Its Money Is Sickening And Immoral, यानी ‘भारत ने अपनी मुद्रा के साथ जो किया वह बीमार बनाने वाला और अनैतिक’ है।

स्टीव का तर्क है कि लोग अपनी मेहनत से उत्पादन करते है। उसका प्रतिनिधि उसका पैसा है। व्यक्ति का अर्जन उसकी मुद्रा, करेंसी है। सरकार अर्जन नहीं करती है, जनता करती है। सो, पैसा उसकी अर्जित प्रोपर्टी है। तभी भारत में जो हुआ है वह जनता की ंंंप्रोपर्टी पर डाका है, और ऐसा बेशर्मी से, बिना किसी प्रोसेस की आड़ रख कर हुआ है। यह वैसे ही है जैसे 1970 के दशक में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में जोर जबरदस्ती नसबंदी और नाजियों ने ‘जनसंख्या आधिक्य’ के हवाले अनैतिक कुकर्म किया था। भारत आज विध्वंसक-चरम स्थिति का वह उदाहरण है, जहां नकदी विरोधी पागलपन अर्थशास्त्र और सरकार को बहा दे रहा है!

सोचें, ये वाक्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आज के भारत की क्या इमेज लिए हुए है? अपने को गूढ़, बतौर निष्कर्ष वाली टिप्पणी लंदन की वैश्विक पत्रिका ‘द इकोनोमिस्ट’ की लगी। उसने लिखा कि आर्थिकी के मुद्रा का प्रबंधन किसी भी सरकार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम होता है। मौद्रिक (करेंसी) औजार का क्लमजी याकि लचर उपयोग अत्यधिक जोखिमपूर्ण होता है। अर्थशास्त्री जॉन एम किन्स ने भी 1919 में लेनिन की लिखी इस बात की ताकीद की थी कि समाज के विद्यमान आधार को ध्वस्त करने का निश्चित, तयशुदा तरीका यदि कोई है तो वह करेंसी को डिबॉच (हराम) बनाने का है! विश्वास बहुत अमूल्य और नाजुक होता है।
क्या यहीं 2016 में भारत राष्ट्र-राज्य की मूर्खता की आधार थीसिस नहीं है? आठ नवंबर 2016 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट रद्द कर भारत की आर्थिकी, सवा सौ करोड़ लोगों के उसके अर्जन, उसके पैसे में जो अमूल्य-नाजुक विश्वास था, उसे क्या खत्म नहीं किया? भारत ने दुनिया को जताया है कि मौद्रिक औजार का सरकार का उपयोग लचर ही नहीं है, बल्कि हर मायने में मूर्खतापूर्ण, अनैतिक, जी मितला कर उलटी करा देने वाला है। न अमल का रोडमैप, न अमल का प्रबंधन, न उद्देश्य की प्राप्ति और न भविष्य की दृष्टि का कोई प्रमाण! भारत सरकार, रिजर्व बैंक, बैंकिंग व्यवस्था सब की जग हंसाई और परिणाम कुल मिला कर यह कि सात-सवा सात फीसदी की फुदकती आर्थिकी जमीन पर ठहरी, ठिठकी हुई!
इस बात के वैश्विक पैमाने पर जितने अर्थ हैं उससे अधिक गहरे अर्थ हमारे लिए, हमारे संदर्भ में हैं। आखिर सवा सौ करोड़ लोग आज भले न सोचें, साल बाद, पांच साल बाद, बीस साल या सौ साल बाद इतिहास क्या सोचेगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के इतिहास में अपना नाम निश्चित ही दर्ज करा लिया है। इतिहास में यहीं लिखा जाएगा कि भारत दुनिया का वह अनहोना देश है, जहां मध्यकाल में तुगलक नाम का राजा था तो आधुनिक काल में नरेंद्र मोदी नाम का प्रधानमंत्री बना और दोनों ने देश की करेंसी खत्म कर, जनता के अर्जित पैसे को लूटा। बरबादी कराई। दौड़ रहे देश को बैठा दिया। करेंसी में अमूल्य-नाजुक विश्वास को तोड़ कर!
हां, अमूल्य और नाजुक विश्वास का जुमला बहुत अहम है। भारत का समाज परंपरा और वर्तमान की जिन धाराओं की जमीन पर बना है उसमें पैसे को ले कर जनमानस का विश्वास गहरे पैठा रहा है। इसके मनोविज्ञान में दस तरह की बाते हैं। महिलाओं ने पेट काट, सबसे बचा कर अपनी बचत बनाई तो ऐसा इस विश्वास के चलते था कि यहीं तो उसकी सुरक्षा है। उसका कमाया, बचाया पैसा है। उसका है इसलिए हमेशा उसका रहेगा। मतलब कभी अमान्य नहीं हो सकता।
तभी, दुनिया सोच रही होगी कि जो देश, जिस देश की सरकार अपने लोगों के साथ ऐसा अनैतिक, डाके मारने वाला व्यवहार कर सकती है तो उस देश में जा कर काम धंधा करना क्या सुरक्षित होगा? दुनिया का विश्वास भारत से, उसकी सरकार की मूर्खता से टूटा है। इकोनोमिस्ट ने जो लिखा है उसका अर्थ यहीं है कि किसी देश के होने, चलने और उसके बनने में विश्वास की पूंजी अमूल्य और नाजुक होती है। उसे आठ नवंबर के दिन नरेंद्र मोदी ने अपनी सनक में, बिना सोचे-समझे जैसे खत्म किया है उससे इस देश का आम मानस सालों-साल उबर नहीं पाएगा। वक्त गुजरने के साथ लगातार धारणा बनेगी, पैठेगी, इतिहास में दर्ज होगी कि वह कैसा 2016 का वर्ष था, जिसमें भारत ने, उसकी सरकार ने मूर्खता का अकल्पनीय, अनैतिक फैसला किया।

बहरहाल, इतिहास की कसौटी पर 2016 के नोटबंदी फैसले पर विचार हो। भारत की जिंदा आर्थिकी में से 86 प्रतिशत नोटों वाला खून सोख लेने जैसा काम क्या इतिहास में किसी और देश में हुआ है? नहीं हुआ है। रूस, जिंबाब्वे जैसे जो उदाहरण हैं वे दिवालिया दशा, या सोवियत संघ के बिखरने जैसी दशा में नई करेंसी, आर्थिकी को रीबूट करने के लिए थे। वैसी स्थितियों में भारत आठ नवंबर को नहीं था। हां, उसकी आर्थिकी में काले धन वाले मगरमच्छ थे पर मगरमच्छों का रूप रियल एस्टेट, सोने-चांदी-जेवरात-विदेशी बैंकों में डॉलर या एफआईआई निवेश आदि का था। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन-जन के तालाब में छुपे काले धन के मगरमच्छों पर वार करके यह सनक पाली कि इससे लोगों के बीच के मोटे सेठ पकड़े जाएंगे। लोग वाह करेंगें। तभी एक झटके में नकद करेंसी वाली आर्थिकी के भाखड़ा नांगल बांध से 86 फीसदी पानी सोख उसे खाली करा दिया, इस उम्मीद में कि मगरमच्छ एक्सपोज होंगे, पकड़े जाएंगे।

वह हुआ नहीं। सो, आज भारत का भाखड़ा बांध सूखा पड़ा है। तालाब, सागर सूखा है और मगरमच्छ जैसे पहले गायब थे वैसे आज भी ओझल हैं। ये बैंक मैनेजरों, सिस्टम के जरिए पानी से निकल जमीन रास्ते जंगलों में लुप्त हो गए है। बेचारी जनता याकि मछलियां लाचार, बेबस तड़प रही हैं, मर रही हैं। न जनता को जीने का पानी मिल रहा है और न बिजली बन रही है। आर्थिकी के चक्के जाम हैं।

क्या ऐसा प्रयोग अमेरिका सोच सकता है? जान लें वहां भी आर्थिकी में काले धन का हिस्सा है। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इटली, स्वीडन सब काला धन लिए हुए हैं तभी तो बोफोर्स से ले कर तमाम हथियार सौदों की यहीं से रिश्वत विदेशी बैंकों में जाती है।

पर ये देश अर्थशास्त्र के कायदे में, याकि करेंसी के प्रति विश्वास को अमूल्य बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। इन्हें पता है कि विश्वास टूटा तो देश का नागरिक हो या विदेशी निवेशक सभी का व्यवहार बदलेगा। मूल बात विश्वास की है। इसका आम नागरिक के, इंसान के जीवन में जैसा महत्व होता है वैसे ही राष्ट्र-राज्य भी विश्वास पर बनते-बिगड़ते हैं। इसमें नंबर एक पैरामीटर, प्रतीक करेंसी होती है। उसके प्रबंधन में खेल या मूर्खता वैसी हो ही नहीं सकती जैसी 2016 के भारत में हुई है।

इसलिए कोई माने या न माने, अपना मानना है कि इतिहास में 2016 का वर्ष भारत की मूर्खता के इतिहास वर्ष के रूप में सदैव उल्लेखित रहेगा। इसलिए भी कि 2016 का असर 2017 में होगा तो 2018 में भी। एक बार जब विश्वास टूटा है तो लोगों के घायल हो कर बैठने से ले कर देशी-विदेशी निवेशकों की अनास्था में क्या कुछ होगा, यह आने वाले साल बताएंगे। लोगों की बदहाली और आर्थिकी की बरबादी का प्रारंभ तो 2017 से होना है!
आप नहीं मानते? वक्त अपने को सही साबित करेगा।

संकलन
न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र
पं. एल.के.शर्मा

12/23/2016

क्या पेटीएम सरकारी कंपनी है, जो हर जगह घुसी हुई है?


क्या चल रहा है?
क्या पेटीएम सरकारी कंपनी है, जो हर जगह घुसी हुई है?

बाज़ार का स्पेस बदल गया है. मार्केटप्लेस वर्चुअल हो रहे हैं लेकिन उनमें खरीदारी तो असल ही होती है. पैसे तो सच में खर्च होते हैं.

हम लोगों के कस्बों-मोहल्लों में कोई दुकान बड़ी फेमस होती है. किराने की हो, मिठाई की हो, जनरल स्टोर हो. इनके दुकानदारों को अक्सर लोग ‘सेठ जी’ कहने लगते हैं. दूसरे दुकानदार इन सेठ लोगों से भकुआए रहते हैं. तो अब नया ज़माना आ गया है. दुकानें मोबाइलों पर भी आ गई हैं. ऑनलाइन लेन-देन करवाने के लिए कई दुकानें हैं और इनके बीच एक ‘सेठ’ आ गया है. किसी और को पनपने नहीं दे रहा. आंख दिखा रहा है और दिखाए भी क्यों न? कहा जा रहा है कि उसे सीधे सरकार से समर्थन जो मिला हुआ है. इसीलिए खुल के खेल रहा है ये सेठ. इस सेठ का नाम है ‘पेटीएम’.

8 नवंबर के नोटबंदी के फैसले के बाद पेटीएम की बांछें खिली हुई हैं. श्रीलाल शुक्ल की तरह हमें भी नहीं पता ये बांछें कहां होती हैं. कैशलेस इकॉनमी की खूब चर्चा है. ऐसे में पेटीएम के लिए चांदी हो गई है. लेकिन सवाल है कि आखिर यही कंपनी क्यों सरकार की फेवरेट है जबकि ऑनलाइन ट्रांजेक्शन के लिए कई दूसरे प्लेटफ़ॉर्म भी मौजूद हैं. पेटीएम ने जब से पीएम मोदी को अपने प्रचार के लिए मॉडल बनाया है, तब से सरकारी चीजों में भी पेटीएम की दखल बहुत ज्यादा बढ़ गई है.

क्या है पेटीएम का बैकग्राउंड?

पेटीएम ई-कॉमर्स वेबसाइट के रूप में 2010 में शुरू हुई थी. ये एक स्टार्टअप वेंचर है. प्लेन का टिकट हो या ट्रेन का, मोबाइल रीचार्ज हो, बिल पेमेंट हो सबके लिए बस ‘पेटीएम करो.’ अब उसने प्रोडक्ट्स भी बेचना शुरू कर दिया है. इसी साल उसने सिनेपॉलिस के साथ मिलकर फिल्म टिकट की भी बुकिंग शुरू कर दी है. 2014 में पेटीएम ने वॉलेट सुविधा शुरू की. नवंबर 2016 तक पेटीएम सबसे बड़ी मोबाइल पेमेंट सर्विस बन गई है. इसके करीब 150 मिलियन मोबाइल वॉलेट हैं. एंड्राइड मोबाइल में इसके करीब 75 मिलियन ऐप डाउनलोड हो चुके हैं.

पेटीएम के फाउंडर

पेटीएम के फाउंडर विजय शेखर शर्मा हैं. वही जो अखिलेश यादव से मिलने रिक्शे से पहुंचे थे. फोटो वगैरह आई थी. आंत्रप्रेन्योर हैं. यूपी के अलीगढ़ से आते हैं. अपना इंस्पिरेशन चाइना के अलीबाबा ग्रुप के जैक मा को मानते हैं. अलीबाबा ग्रुप से इनका एक और रिलेशन है. आगे बताएंगे उसके बारे में. फेसबुक की नेट न्यूट्रैलिटी सर्विस के विरोधी थे.

2005 में इन्होने One97 कम्युनिकेशन नाम से एक कंपनी खोली जो मोबाइल में न्यूज़, क्रिकेट स्कोर, रिंगटोन, जोक्स एग्जाम रिजल्ट्स भेजती थी. पेटीएम इसी कंपनी का एक पार्ट है.

पेटीएम के इन्वेस्टमेंट

पेटीएम में चाइना के अलीबाबा ग्रुप का करीब 575 मिलियन डॉलर का इन्वेस्टमेंट है. इसी ग्रुप के ही Ant Financial Services Group का 25 फीसदी इन्वेस्टमेंट है. मार्च 2015 में इस फर्म में रतन टाटा ने भी अपना पैसा लगाया था.

सरकार को पेटीएम पसंद है

2015 में पेटीएम को रिजर्व बैंक ने इंडिया का पहला पेमेंट बैंक खोलने के लिए लाइसेंस दिया है.

सरकार की तरफ से अम्बानी के जियो सिम की तरह ही पेटीएम को भी लोगों के आधार कार्ड का डेटा दिया गया है.

IRCTC पर रेलवे टिकट की बुकिंग को भी सीधे पेटीएम से जोड़ा गया है.

पिछले दिनों नेशनल हाईवे ऑथोरिटी ऑफ़ इंडिया (NHAI) के साथ पेटीएम का करार हुआ. इससे देश भर के टोल प्लाजा में कैशलेस ट्रांजेक्शन के लिए पेटीएम का गेटवे इस्तेमाल होगा.

मेट्रो के टिकट, बिजली बिल का पेमेंट वगैरह पहले ही पेटीएम से जोड़े जा चुके हैं.

क्यों उठते हैं सवाल?

बाज़ार के अपने कुछ नियम होते हैं. अगर वो कहीं लिखे न भी हों तो भी बाज़ार वाले एक दूसरे से तालमेल रखते हैं जिससे बढ़िया कम्पटीशन हो. कोई किसी दूसरे का हक़ ना मार ले.

इसके लिए बाकायदा एक कम्पटीशन लॉ भी है. इसे 2002 में पार्लियामेंट ने पास किया था. इसने 1969 के The Monopolies and Restrictve Trade Practices Act की जगह ली थी. बाज़ार में कोई एक आका ना बन पाए इसलिए ये एक्ट पास किया गया.

मार्केट में नज़र बनाए रखने के लिए ये एक्ट बना था ताकि सरकारों को मार्केट में ज्यादा हस्तक्षेप ना करना पड़े. 2007 और 2009 में इसमें संशोधन किया गया.

एक्ट का मकसद

मार्केट में किसी एक की मोनोपली यानी प्रभुत्व बढ़ने से रोकना.
नए एंटरप्रेन्योर को मार्केट में जगह बनाने का मौका देना.
मार्केट में हेल्दी कॉम्पटीशन को बढ़ावा देना.
किसी भी इस तरह के एग्रीमेंट को रोकना जो इस तरह के कॉम्पटीशन के उलट जाता हो.

इस तरह के एग्रीमेंट दो तरह के होते हैं. एक Horizontal competition जो एक ही तरह का बिजनेस करने वालों के बीच होता है.

दूसरा, Vertical Agreement जो अलग-अलग बिजनेस वालों के बीच होता है.

इस एक्ट का सीधा सा मतलब है कि न तुम हमारे फटे में टांग फंसाओ, ना मैं तुम्हारे में. सारे प्यार से कमाए खाएं.

इसके लिए Competition Commission of India नाम से एक अलग बॉडी भी है. ये एक इंडिपेंडेंट बॉडी है जिसका काम मार्केट पर नज़र रखना है.
पेटीएम से दिक्कत क्या है?
पेटीएम से ट्रांजेक्शन पर कमीशन कटता है. पेटीएम गलत ट्रांजेक्शन हो जाने पर कोई जिम्मेदारी भी नहीं लेती.

पिछले कई दिनों से पेटीएम को लेकर लोगों की शिकायतें बढ़ रही हैं. लोगों का कहना है कि उनके बैंक अकाउंट से पैसे काट लिए गए, लेकिन उनके E-Wallet में नहीं पहुंचे. ये भी शिकायत आ रही हैं कि उनके वॉलेट में बैलेंस भी नहीं दिख रहा है.

सरकार के पास रुपे जैसे प्लेटफॉर्म पहले से हैं, फिर वो एक प्राइवेट कंपनी को ही क्यों बढ़ावा दे रही है? सरकार को ‘रुपे’ को ज्यादा डेवलप करना चाहिए.

अगर सिर्फ पेटीएम ही ऑनलाइन ट्रांजेक्शन के बिजनेस में हावी है तो ये सरासर कम्पटीशन लॉ का भी उल्लंघन है क्योंकि बिजनेस चाहे ज़मीन पर हो रहा हो या मोबाइल पर, है तो वो बिजनेस ही. कुछ लोगों ने पेटीएम के साथ कुछ लाख रुपए की धोखाधड़ी की और केस CBI ने दर्ज कर लिया, जबकि देश में दर्जनों और जांच एजेंसियां हैं. पेटीएम वाले ही सरकार के इतने मुंहबोले क्यों बने हुए हैं, ये सोचने वाली बात है. फिलहाल तो बस पेटीएम करो.

संकलन
न्यूज़,मिडिया,समाचार पत्र.
पं.एल.के.शर्मा

12/20/2016

नज़रिया: 'जीती हुई लड़ाई में पिछड़ने लगी है बीजेपी'

ऐसा माना जाता है कि उत्तर प्रदेश का सियासी मिज़ाज ही देश का भविष्य तय करता है. जब यूपी में कांग्रेस की तूती बोलती थी तो केंद्र में भी उसी की सरकार बनती रही.
1989 में कांग्रेस के सितारे तभी गर्दिश में चले गए जब वह यूपी में हारी. इसी तरह देश में बीजेपी के उत्थान की मुख्य वजह उसे उत्तर प्रदेश में मिली सफलताएँ हैं.

इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने सहयोगी पार्टी - अपना दल - के साथ मिल कुल 80 में से 73 सीटें जीतीं, तो लगा कि ढाई साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी का पलड़ा भारी जरूर रहेगा.

बीजेपी को यूपी में अकेले 42.63 फ़ीसदी वोट मिले. जबकि 2007 में मायावती और 2012 में अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उनकी पार्टियां 29 फ़ीसदी वोट पाकर अपने दम पर बहुमत जुटा लाई थीं.

कहावत है - हाथी दुबला होगा तो चूहा नहीं बन जाएगा. यानी अगर बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 42.63 फ़ीसदी वोट मोदी लहर की वजह से मिले थे तो विधानसभा चुनाव में अगर मान लिया जाए कि मोदी की लहर नहीं होगी तो भी उसे 30 फ़ीसदी वोट तो मिल ही जाने की उम्मीद थी.
मोदी।

2014 के बाद हुए सात विधानसभा चुनावों में बीजेपी का मत प्रतिशत सबसे ज्यादा कहीं गिरा तो वह दिल्ली में था - 13 फीसदी. हालाँकि इसके बाद 33 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद बीजेपी को वहां 70 में से महज़ तीन सीटें मिल पाई थीं.
दिल्ली में बीजेपी का आम आदमी पार्टी के साथ लगभग सीधा मुकाबला था. लेकिन यूपी में स्थितियाँ भिन्न हैं. यहाँ बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस के साथ चतुष्कोणीय मुकाबले में होगी. यदि उसे दिल्ली की तरह 13 फीसदी कम वोट मिलें तो भी 2007 की बसपा और 2012 की सपा जैसे इस बार बीजेपी भी 30 प्रतिशत वोट पाकर सत्ता संभाल सकती थी.

दो महीने पहले तक स्थितियाँ यही थीं. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथों में ले रखी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भीड़ भरी रैलियां संबोधित कर रहे थे. चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी घोषित कर चुके थे.तभी 8 नवंबर को मोदी ने 1000 और 500 के नोटों पर प्रतिबंध लगा दिया. इससे पूरे देश की तरह उत्तर प्रदेश में भी छोटे और मझोले किसानों और उद्योगों पर जबरदस्त प्रतिकूल असर पड़ा. खास तौर पर गांव में, जहां लोग प्लास्टिक करेंसी या कैशलेस इकॉनोमी का मतलब ही नहीं समझते हैं और सारी अर्थव्यवस्था का आधार नकद रुपया ही है.

बैंकों में पैसा न पहुंचने से लोगों के पास कैश की बड़ी दिक़्क़त हो गई है. किसानों की धान की फ़सल बिक ही नहीं रही है. बिक रही है तो आधे दाम पर - छह सौ से सात सौ रुपए प्रति क्विंटल जबकि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य है 1400 रुपए प्रति क्विंटन.
जब पैसे नहीं हैं तो अगली फ़सल के लिए बीज कहाँ से आएगा और खाद कहाँ से? सुल्तानपुर ज़िले के किसान हरिलाल कहते हैं - ''भइया, पानी लगाय क (सिंचाई) डीज़ल कहाँ ले ख़रीदें. फ़सल को पाला मार रहो है.''

वहीं, गोमती नदी में मछली पकड़ कर गुज़ारा करने वाले मछुआरे बहोरन प्रसाद कहते हैं - "मंडी में ग्राहक नहीं है. मछली बिकने की जगह सड़ रही है. सुबह हमारा परिवार शकरकंदी उबाल कर खा रहा है और शाम को हम गाँजा पीकर सो जाते हैं."

मज़दूर नेता दुर्गा प्रसाद मिश्रा दावा करते हैं कि उनके संपर्क में कई मज़दूर हैं जिन्हें नौ नवंबर के बाद या तो काम नहीं मिला है और अगर मिला है तो मज़दूरी नहीं मिली है.
जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी और सरकार की मजबूरियों की लाख दुहाई के बावजूद उन्हें लोगों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है. कई जगहों पर दंगे जैसी स्थितियाँ बन गई हैं.

पुलिस को कहीं लाठी चार्ज करना पड रहा है तो कहीं हवाई फ़ायर. सांसदों के ग़ुस्से का जायज़ा पिछले सप्ताह लखनऊ में आरएसएस और बीजेपी की संयुक्त बैठक में दिखा जब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति में उत्तर प्रदेश के सभी सांसदों ने एक स्वर में एक ही मांग रखी कि अगर चुनाव जीतना है तो उत्तर प्रदेश के बैंकों में तुरंत धन उपलब्ध कराएं.
लेकिन जब पूरे देश पर ही करेंसी की समस्या हो तो अकेले उत्तर प्रदेश में उपलब्धता कैसे सुनिश्चित कराई जा सकती है.
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पिछडे कुर्मियों के अपना दल से तालमेल किया था. बीजेपी के लगभग क्लीन स्वीप करने की एक वजह यह भी थी.

इस बार अमित शाह का प्रयास था कि उत्तर प्रदेश में ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाने का था.
इसीलिए उन्होंने सोहेल देव पार्टी, पाजभर, मौर्य, कुशवाहा, कुर्मी, काछी, मल्लाह आदि पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की जीतोड़ कोशिश की. और किसी हद तक सफल भी हुए.

उत्तर प्रदेश में बैंक में क़तार लगाए लोगों की फ़ाइल तस्वीर
उनका मानना था कि अगड़ी जातियां पहले ही बीजेपी के साथ हैं और अगर पिछड़ी जातियां आ जाती हैं तो विनिंग कंबीनेशन होगा. लेकिन नोटबंदी ने नके इस पूरे प्रयास पर पानी फेर दिया.

इसके अलावा यदि सपा-कांग्रेस का तालमेल हो जाता है तो अल्पसंख्यक, यादव और दूसरी पिछड़ी जातियों और अगड़ी जातियों के एक हिस्सा के उनके साथ जाने की संभावना है.

साभार शरद गुप्ता
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

प्रस्तुति
एल.के .शर्मा

Paytm की वो असलियत, जो हर भारतीय को जाननी चाहिए

Paytm की वो असलियत, जो हर भारतीय को जाननी चाहिए!

एक बात तो आप सभी मानेंगे कि नोटबंदी से सबसे अधिक फायदा पेटीएम को ही पहुंचा है। पेटीएम से रोजाना 70 लाख सौदे होने लगे हैं जिनका मूल्य करीब 120 करोड़ रूपये तक पहुंच गया है, पेटीएम हर ट्रांजिक्शन मे मोटा कमीशन वसूल रही है। सौदों में आई भारी तेजी से कंपनी को अपने पांच अरब डॉलर मूल्य की सकल उत्पाद बिक्री (जीएमवी) लक्ष्य को तय समय से चार महीने पहले ही प्राप्त कर लिया है।

पर पेटीएम कंपनी है क्या ?

एक वक्त था जब पेटीएम एक भारतीय स्टार्ट-अप कंपनी हुआ करती थी पर आज यह कंपनी चीन के उद्योगपति जैक मा के हाथों का खिलौना बन चुकी है। पर यह तो सभी जानते है कि अलीबाबा की पेटीएम मे हिस्सेदारी है पर यह आधा सच है।

पूरी कहानी समझने के लिए थोड़ा फ्लैश बैक मे जाना होगा

जब जैक मा ने 1998 में अलीबाबा नामक ई कामर्स कंपनी की स्थापना की तो उनको बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहले तीन सालों तक इस ब्रांड से उनको कोई लाभ नहीं हुआ। कंपनी की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसके पास भुगतान के रास्ते नहीं थे और बैंक इसके साथ काम करने को तैयार नहीं थे।

मा ने अलीपे के नाम से खुद का पेमेंट प्रोग्राम शुरू करने का निर्णय किया। इसके तहत अंतरराष्ट्रीय खरीदारों और विक्रेताओं के बीच अलग-अलग करंसीज के पेमेंट्स को ट्रांसफर किया जाता है।

पूरा सच

अलीबाबा का अलीपे ही पेटीएम का सबसे बड़ा हिस्सेदार है। दरअसल चीन या चीन के उद्योगपति भारत के व्यवसाय की “सेवा उन्मुख व्यवसाय आपूर्ति श्रृंखला”(सप्लाई चेन)को तोड़ना चाहते है, ताकि वह आसानी से अपना माल भारत के बड़े बाजार मे खपा सके।

इसके लिए उन्हें अपने नियंत्रण वाली खुद की एक सुरक्षित रसद श्रृंखला (लॉजिस्टिक्स चेन) शुरू करना है और चीन के विक्रेता चीन के ही किसी पेमेंट गेटवे का इस्तेमाल कर भारत मे माल बेचने मे अपने आपको सहज महसूस करेंगे जो पेटीएम उन्हें उपलब्ध करा रहा है।

पेटीएम का मूल उद्देश्य अलीबाबा और चीनी उद्योगपतियों के लिए रास्ता साफ करना है, अलीबाबा के ग्लोबल मैनेजिंग डायरेक्टर के गुरु गौरप्पन को पिछले महीने पेटीएम के बोर्ड में एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर शामिल किया गया है और नोटबंदी के ठीक 4 दिन पहले अलीबाबा के सारे टॉप मैनेजर पेटीएम के नोएडा ऑफिस मे कमान सँभाल चुके थे।

अलीबाबा को चीन का पहला प्राइवेट बैंक खोलने की अनुमति मिल गयी है और भारत मे अलीबाबा के पेटीएम को भी पेमेंट बैंक खोलने की अनुमति रिजर्व बैंक ने दे दी है यानी एक ही कंपनी अलीबाबा ने दोनों देशों मे खुद का बैंक और खुद का पेमेंट गेटवे खोल लिया है।

नोटबंदी के बाद 1 महीने मे छोटे और मध्यम उद्योग धंधो की जो बर्बादी हो रही है उस पूरे वैक्यूम को चीनी सामानों को ला लाकर भारतीय बाजार मे पाट दिया जायेगा और देश देखते देखते भारत नयी गुलामी की तरफ बढ़ता चला जायेगा।

आपको अब भी शायद लग रहा है कि पेटीएम इतनी बड़ी कंपनी नहीं है! चलिये ये भ्रम भी आपका दूर कर देते हैं

पेटीएम ने दुनिया की सबसे बड़ी कैब टैक्सी कंपनी उबर से हाथ मिला लिया है। दिल्ली और मुंबई मेट्रो के टिकट पेटीएम के मार्फ़त ख़रीदे बेचे जा रहे है। IRCTC यानि रेलवे के टिकट पेटीएम से ख़रीदे बेचे जा रहे है। IRCTC ने पेमेंट गेटवे के लिए पेटीएम के साथ साझेदारी की है और पेटीएम देश की सबसे बड़ी ट्रैवल बुकिंग प्लैटफॉर्म बनने के लिए पूरी तरह से तैयार है।

पेटीएमने बीसीसीआई से भारत में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू मैचों के 2015 से 2019 तक के लिए क़रीब 84 अंतरराष्ट्रीय मैचों का क़रार किया गया है। अब रणजी ट्राफी भी पेटीएम के नाम से खेली जायेगी।

इतना ही नहीं मीडिया को भी अपने शिकंजे मे लेने की पूरी तैयारी की गयी है। एनडीटीवी के गैजेट्स 360° के लिए पेटीएम के मालिक कंपनी, वन97 कम्युनिकेशंस ने पूरा निवेश किया है।

सुबह शाम न्यूज़ चैनलों को मन भर के विज्ञापन दिए जा रहे हैं और तो और सरकारी न्यूज चैनल डी डी न्यूज़ भी पेटीएम का प्रचार कर रहा है।

खुदरा क्षेत्र के फ्यूचर समूह ने पेटीएम के साथ समझौता किया है। इसके तहत फ्यूचर समूह पेटीएम के मंच का प्रयोग बिग बाजार के सामान को ऑनलाइन बेचने के लिए करेगा। इस समझौते में पेटीएम के मार्केटप्लेस पर बिग बाजार एक प्रमुख स्टोर बन जाएगा।

सरकार खुद बड़े करेंसी नोट के विमुद्रीकरण के बाद जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिए फंड ट्रांसफर के लिए पेटीएम से हाथ मिलाने को तैयार बैठी है।

सरकार किस हद तक पेटीएम का समर्थन कर रही है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पेटीएम से की गई मात्र सवा छः लाख की धोखाधड़ी की जांच सीधी सीबीआई से करायी जा रही है।

ऐसा भी नहीं है कि इस और किसी का ध्यान नहीं है

आरएसएस की आर्थिक शाखा भी पेटीएम के चीनी संबंध पर बारीक नजर रखे हुए है। आरएसएस से जुड़ा स्वेदशी जागरण मंच (एसजेएम) चीनी उत्पाद और निवेश के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चला रहा है लेकिन इस बार सरकार खुद आगे बढ़कर देश को कैशलेस बनाकर चीनी उद्योगपतियों के खतरनाक मंसूबो को कामयाब बना रही है।

बाड़ ही खेत हड़प रही है भारत की कैशलेस व्यवस्था को जब चीनी कंपनियां नियंत्रित करेंगी, तब आप खुद सोचिये अंजाम क्या होगा………
याद रखिए पार्टी के प्रति निष्ठा या किसी नेता की भक्ति से कही अधिक बड़ा देश का हित होता है।

साभार- न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र
एल.के.शर्मा (अधिवक्ता)