6/15/2016
लाभ का पद
आप’ जिस मुसीबत में है उसकी वजह अनुभवहीनता है या मोदी सरकार की बदले की भावना?
हिमांशु शेखर
आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों पर सदस्यता चले जाने का खतरा मंडरा रहा है. यह स्थिति मोदी सरकार की बदले की भावना से पैदा हुई है या पार्टी की अनुभवहीनता की वजह से
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दिल्ली सरकार के उस विधेयक को मंजूरी देने से इनकार कर दिया है जिसमें संसदीय सचिव के पद को ‘लाभ के पद’ के दायरे से बाहर निकालने का प्रावधान किया गया था. इससे 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों की सदस्यता पर खतरा बढ़ गया है. इन विधायकों को दिल्ली सरकार ने संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त कर रखा है. इस वक्त इनकी सदस्यता को खारिज करने संबंधी कई शिकायतें चुनाव आयोग के पास लंबित हैं.
इस मसले को लेकर चल रहे राजनीतिक विवाद पर जाने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर ‘लाभ का पद’ है क्या? भारत में लाभ का पद की अवधारणा पहली बार 1909 में मोर्ले-मिंटो सुधारों के जरिए सामने आई थी. इसके बाद जब 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ तो इसके अनुच्छेद-102 और अनुच्छेद-191 में लाभ के पद का जिक्र किया गया. अनुच्छेद-102 संसद सदस्यों से संबंधित है और अनुच्छेद-191 राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों से जुड़ा हुआ है. लेकिन संविधान में कहीं भी लाभ के पद को स्पष्ट तौर पर परिभाषित नहीं किया है. जनप्रतिनिधित्व कानून में लाभ के पद का जिक्र है लेकिन यहां भी इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है.
व्यावहारिक तौर पर स्थिति यह है कि कोई भी पद लाभ का पद है या नहीं इस बारे में अंतिम निर्णय एक तरह से देश की अदालतें लेती रही हैं. क्योंकि जब भी कोई सरकार लाभ का पद से संबंधित कानून को संशोधित करती है तो कोई न कोई अदालत चला जाता है
1950 में संविधान लागू हुआ और उसी साल भारत सरकार ने एक कानून लाकर यह स्पष्ट किया कि किन-किन पदों को लाभ का पद नहीं माना जाएगा. इस कानून को अब तक कई बार संशोधित किया गया है. आखिरी बार इसका संशोधन 2006 में सोनिया गांधी के मामले में किया गया था.
भारत सरकार की तर्ज पर ही विभिन्न राज्य सरकारों ने भी कानून लाकर कई पदों को ‘लाभ का पद’ के दायरे से बाहर निकाला. दिल्ली सरकार ने भी ऐसा कानून 1997 में लाया था. केंद्र की तरह राज्यों की सरकारें भी लाभ का पद से संबंधित कानून को संशोधित करती रही हैं. लेकिन व्यावहारिक तौर पर स्थिति यह है कि कोई भी पद लाभ का पद है या नहीं इस बारे में अंतिम निर्णय एक तरह से देश की अदालतें लेती हैं. क्योंकि न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है और जब भी कोई सरकार लाभ का पद से संबंधित कानून को संशोधित करती है तो कोई न कोई अदालत चला जाता है और फिर अदालत उस पर अपना फैसला सुनाती है.
दिल्ली सरकार ने 1997 में जो कानून बनाया था उसमें संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर निकालने का प्रावधान नहीं था. यही एक ऐसा पेंच है जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उनकी सरकार और उनकी पार्टी उलझ गई है. पिछले साल 20 मई को केजरीवाल सरकार ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था. अगर कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखा जाए तो ज्यादातर लोग इसे केजरीवाल और उनकी सरकार की राजनीतिक अनुभवहीनता वाला निर्णय कहेंगे. क्योंकि कायदे से उन्हें करना तो यह चाहिए था कि पहले संबंधित कानून को संशोधित करते और जब इस पर उन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती तब संसदीय सचिव के पदों पर नियुक्ति करते. लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा.
हालांकि, इसमें भी एक संवैधानिक पेंच है. संसदीय सचिवों को राज्य मंत्री का दर्जा मिला हुआ होता है. जबकि संविधान के मुताबिक विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी से अधिक मंत्री नहीं हो सकते. ऊपर से दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश भी है
जब केजरीवाल सरकार को यह लगा कि उसने जिस पद पर अपने विधायकों की नियुक्ति की है, वह ‘लाभ का पद’ के दायरे में है तो फिर उसने 1997 के कानून में संशोधन करने की शुरुआत की. इस संशोधन में भी केजरीवाल सरकार ने, इसे पूर्व प्रभाव से लागू करने का प्रावधान रखा ताकि आप के 21 विधायकों की सदस्यता पर कोई खतरा पैदा न हो.
सामान्यत: संसदीय सचिवों को राज्य मंत्री का दर्जा मिला हुआ होता है लेकिन दिल्ली के मामले में ऐसा नहीं है. अगर ऐसा होता तो एक और संवैधानिक पेंच फंस सकता था. संविधान के मुताबिक विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी से अधिक मंत्री नहीं हो सकते. दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है, इसलिए यहां मुख्यमंत्री को लेकर मंत्रियों की संख्या सात से अधिक नहीं हो सकती. ऐसे में अगर आप के इन 21 संसदीय सचिवों को राज्यमंत्री का दर्जा मिला होता तो स्थिति कुछ और भी जटिल हो जाती.
इस मामले में अनुभवहीनता की वजह से केजरीवाल सरकार द्वारा की गई गलती का फायदा उनके राजनीतिक विरोधी उठा रहे हैं. अरविंद केजरीवाल इसे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा बदले की भावना से किया गया काम बता रहे हैं. अपने बचाव में उनका कहना है कि जब इन विधायकों को बतौर संसदीय सचिव वेतन भत्ता या कोई अन्य आर्थिक लाभ नहीं दिये गए तो उन्हें 'लाभ का पद' के दायरे में कैसे रखा जा सकता है. हालांकि इस पर उनके सामने वाला पक्ष कह सकता है कि यदि मामला इतना ही सीधा था तो केजरीवाल सरकार को कानून में पूर्व प्रभाव से संशोधन करने की जरूरत क्या थी!
लेकिन फिर भी यह विवाद जिस तरह के मोड़ पर है और आप और भाजपा की रस्साकशी का जो इतिहास है उसके चलते कुछ लोगों को अरविंद केजरीवाल का यह कहना सही लग सकता है कि कानून में संशोधन की उनकी कोशिश को केंद्र सरकार ने राजनीतिक कारणों से अटका दिया है. क्योंकि यह कहा भले ही जा रहा हो कि राष्ट्रपति ने इस विधेयक को लौटा दिया लेकिन सही मायने में यह निर्णय है केंद्र सरकार का ही.
ये बातें इतना तो साबित करती ही हैं कि दोनों पक्षों के संबंध ठीक नहीं रहे हैं. ऐसे में अरविंद केजरीवाल का यह कहना कि संशोधन विधेयक पर केंद्र सरकार उसे राजनीतिक कारणों से परेशान कर रही है, कई लोगों को सही लग सकता है
2015 में जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के 70 में से 67 सीटें जीतकर दोबारा मुख्यमंत्री बने तब से लगातार उन्होंने केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया है कि वह दिल्ली की सरकार को काम नहीं करने दे रही. केजरीवाल ने कई बार यह आरोप भी लगाया कि केंद्र सरकार दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के जरिए दिल्ली सरकार के हर काम में रोड़े अटका रही है. इन आरोपों से इतर यह बात भी उतनी ही सही है कि 70 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा का सिर्फ तीन विधायकों पर सिमट जाना उसके लिए बेहद अपमानजनक रहा है. केजरीवाल कहते रहे हैं कि भाजपा इस हार को पचा नहीं पाई है, इसलिए उसकी केंद्र सरकार दिल्ली सरकार को काम नहीं करने देती. प्रधानमंत्री की डिग्री का मुद्दा भी आम आदमी पार्टी ने जोर-शोर से उठाया था.
ये बातें इतना तो साबित करती ही हैं कि दोनों पक्षों के संबंध ठीक नहीं रहे हैं. ऐसे में अरविंद केजरीवाल के आरोपों को थोड़ा बल मिल जाता है. राजनीतिक जानकारों की मानें तो अब यहां से भाजपा यह उम्मीद कर रही है कि आप के 21 विधायकों की सदस्यता रद्द हो और इन सीटों पर फिर से चुनाव हो. हालांकि, इन विधायकों की सदस्यता रद्द होने के बाद आम आदमी पार्टी सभी 21 सीटें भी हार जाए तो भी उसके पास बहुमत रहेगा. लेकिन भाजपा को लगता है कि अगर फिर से इन सीटों पर चुनाव हो और उसे कुछ सीटों पर ही कामयाबी मिल जाए तो इससे वह केजरीवाल और उऩकी सरकार पर दबाव बढ़ा सकती है. उसे यह भी लगता है कि इसका फायदा उसे अगले साल होने वाले पंजाब चुनाव में भी मिल सकता है. साथ ही 21 विधायकों की सदस्यता जाने से केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की काफी किरकिरी भी होगी.
अगर इन विधायकों की सदस्यता जाती है तो ऐसा पहली बार नहीं होगा. लाभ का पद के विवाद में फंसकर अब तक कई विधायकों और सांसदों की सदस्यता गई है. लाभ का पद से संबंधित हाल के दिनों का सबसे चर्चित विवाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का रहा है. 2006 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का अध्यक्ष होने के नाते सोनिया गांधी पर विपक्ष ने यह आरोप लगाया कि वे लाभ के पद पर हैं. सोनिया ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया और वे फिर से चुनाव जीतीं. इसके बाद केंद्र सरकार ने लाभ के पद से संबंधित कानून को संशोधित किया जिससे कि सोनिया गांधी फिर से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष बन सकें. 2006 में ही उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद का अध्यक्ष पद पर रहने की वजह से जया बच्चन को भी अपनी राज्यसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी.
आलेख
हिमांशु शेखर
सौजन्य से सत्याग्रह.कॉम
http://satyagrah.scroll.in/article/101055/aam-aadmi-party-office-of-profit-controversy
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