आखिर कैसे एक जनजाति विशेष के देवता श्रीकृष्ण हिंदू धर्म के परम ईश्वर बन गए?
कृष्ण की कहानी वृष्णिवंशी जनजाति के नायक के तौर पर शुरू होती है और अंत होने तक यहां उन्हें विष्णु के अवतार के साथ ही परम ईश्वर भी मान लिया जाता है।
हिंदू धर्मग्रंथों में जितने भी देवी-देवताओं का जिक्र मिलता है, उनमें श्रीकृष्ण सबसे लोकप्रिय हैं. ग्वालों के बालगोपाल, प्रेम के देवता, धर्म के उपदेशक और एक योद्धा भी. उनकी पूरी कहानी (इसे कृष्णगाथा भी कह सकते हैं) में कई असमान तत्वों का सामंजस्यपूर्ण और सुसंगत मेल है. कृष्ण की कहानी 800 साल के लंबे अंतराल में विकसित हुई है. लेकिन दिलचस्प बात है कि कहानी का यह विकास उल्टे क्रम में हुआ है. पहले यहां पांडवों के मित्र और द्वारका के संस्थापक के रूप में युवा कृष्ण सामने आते हैं. फिर गायें चराने वाले ग्वालों के गोपाल और ग्वालिनों के साथ रास रचाने वाले प्रेम के प्रतीक कृष्ण का वर्णन आता है.
कृष्ण की कहानी यादवों से ही संबंधित वृष्णिवंशी जनजाति के नायक के तौर पर शुरू होती है. और अंत होने तक उन्हें विष्णु के अवतार के साथ ही परम ईश्वर भी मान लिया जाता है.
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है. इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है.
वासुदेव और कृष्ण
ब्रिटेन में लैंकास्टर विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में मानद शोधकर्ता रहीं फ्रीडा मैशे ने एक किताब लिखी है, ‘कृष्ण; ईश्वर या अवतार? कृष्ण और विष्णु के बीच संबंध’. इसमें वे लिखती हैं कि कृष्ण-वासुदेव, पहले सतवत और वृष्णिवंशी यादवों के नायक हुआ करते थे. जिन्हें समय के साथ-साथ देवता मान लिया गया. फिर दोनों एक-दूसरे के समानार्थी हो गए, एक हो गए.
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है. इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है. साथ ही, देवकीपुत्र के रूप में भी उनका उल्लेख है. चौथी शताब्दी ईसापूर्व में पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ (संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ) में कृष्ण को एक देव की तरह पेश किया गया. साथ ही, वृष्णिवंशी यादव जनजाति के बारे में भी विस्तार से बताया गया, जिससे कृष्ण जुड़े हुए थे. मौर्य राजदरबार में ग्रीस के दूत रहे मेगास्थनीस की किताब ‘इंडिका’ में बताया गया है कि किस तरह शूरसेनियों (वृष्णिवंशी यादवों की ही एक शाखा) ने मथुरा में कृष्ण की देवता की तरह पूजा करना शुरू की. इस तरह चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कृष्ण-वासुदेव न सिर्फ नायक से देवता के रूप में परिवर्तित हुए, बल्कि काफी लोकप्रिय भी हो चुके थे.
विष्णु रूप कृष्ण
दूसरी शताब्दी ईसापूर्व तक वैदिक पूजा पद्धति कठोर हो चुकी थी और उसके धार्मिक संस्कार महंगे. इसी दौरान सम्राट अशोक के समर्थन और प्रचार कार्य से ऊर्जा पाकर बौद्ध दर्शन अपना आधार बढ़ाता जा रहा था. इसी बीच, बड़े पैमाने पर विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे शक आदि) का भारत में आना भी शुरू हो गया. उनके लिए बौद्ध दर्शन और अन्य प्रचलित साम्प्रदायिक मत ज्यादा मुफीद थे. ऐसे में, पुरोहित वर्ग के अधिकार और असर में कमी आने लगी. निचले वर्णों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई और उन्होंने वर्ण व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दी. और जैसा कि सुवीरा जायसवाल अपनी किताब ‘वैष्णववाद की उत्पत्ति और विकास’ में लिखती हैं, ‘ब्राह्मणों ने कृष्ण-वासुदेव के भक्ति-पंथ पर कब्जा कर लिया. वे कृष्ण को नारायण-विष्णु का स्वरूप बताने लगे. इसके पीछे उनका मकसद संभवत: सामाजिक आचार-व्यवहार में ब्रह्मणत्व का अधिकार और प्रभुत्व एक बार फिर से स्थापित करना था.’ यहां जिक्र करना दिलचस्प होगा कि नारायण और विष्णु भी पहले अलग देवों की तरह पूजे जाते थे. बाद में दोनों को एक ही मान लिया गया.
महाभारत में तमाम जगहों पर उस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए.
यानी इस काल में कृष्ण-वासुदेव का नारायण-विष्णु के साथ घालमेल हो गया. उन्हें महाभारत के युद्ध के नायक का दर्जा मिला. साथ ही भगवद् गीता का उपदेश देने वाले उपदेशक के रूप में भी मान्यता मिली. हालांकि महाभारत में ही तमाम जगहों पर उस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए. इसीलिए शुरू-शुरू में कृष्ण-वासुदेव का विवरण नारायण-विष्णु के अंशावतार के रूप में ही दिया जाता है.
बाल कृष्ण
इस तरह, पहली शताब्दी ईसापूर्व तक कृष्ण की पूजा सिर्फ उनके युवा स्वरूप में ही होती थी. वे पांडवों के मित्र, एक उपदेशक, वृष्णिवंशी यादवों के नायक और विष्णु के अंशावतार माने जा चुके थे. लेकिन उनकी महागाथा में एक सबसे अहम चीज अब भी नदारद थी. वह था- उनका बचपन, जिसका आज तक सबसे ज्यादा जिक्र होता है. मगर कालांतर में जब कृष्ण को अभीर (अहीर) जनजाति के देव का दर्जा मिला तो यह कमी भी पूरी हो गई. कृष्ण के साथ गोपाल (गाय चराने और पालने वाले) का मेल भी हो गया. हालांकि यह अब तक साफ नहीं है कि अभीर जनजाति भारतीय उपमहाद्वीप की ही मूल निवासी थी या किसी और जगह से आकर यहां बसी थी. लेकिन इतना साफ है कि ईस्वी की पहली शताब्दी में यह जनजाति सिंधु घाटी के निचले इलाकों में निवास करती थी और बाद में पलायन कर सौराष्ट्र (अब गुजरात) में जा बसी. शक और सातवाहन के शासनकाल में यह जनजाति राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हुई.
वृष्णिवंशी यादवों और अभीरों में काफी समानताएं थीं. खासकर दोनों समाजों में महिलाओं को जिस तरह की मान्यता दी जाती थी. संभवत: इन्हीं समानताओं की वजह से वृष्णिवंशियों के कृष्ण-वासुदेव को अभीरों का आराध्य भी मान लिया गया. उदाहरण के लिए दो प्रसंग सामने रखे जा सकते हैं. पहला- महाभारत में अर्जुन को कृष्ण अपनी बहन का हरण कर लेने की सलाह देते हैं. इसके पक्ष में दलील देते हैं कि इस तरह धर्म की रक्षा होगी. लेकिन साथ ही वे शायद यह संकेत भी देते हैं कि महिलाओं का हरण करना वृष्णिवंशियों की सामान्य परंपरा रही होगी. इसी तरह, कृष्ण के श्रीधाम सिधारने के बाद जब अर्जुन अपनी छत्रछाया में वृष्णिवंशी महिलाओं को लेकर मथुरा की ओर जाते हैं, तो उनके काफिले पर अभीरों का हमला हो जाता है. और अभीर हमलावर उस काफिले में शामिल कई महिलाओं का अपहरण कर लेते हैं.
पहली से पांचवीं शताब्दी ईस्वी तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कड़ियों को जोड़ने का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप से एक ही रूवरूप में स्थापित किया जा सके.
बहरहाल, कृष्ण-वासुदेव को अभीरों के देव की मान्यता मिलते ही गोपियों के साथ उनके हास-परिहास-रास की कहानियां और प्रसंग भी सामने आने लगते हैं. चूंकि अभीर खानाबदोश किस्म की जनजाति थी, इसलिए उनकी संस्कृति में महिलाओं-पुरुषों के लिए ज्यादा उन्मुक्तता का माहौल था. अभीरों में उन्मुक्तता की यही संस्कृति कृष्ण की रासलीलाओं का आधार भी बनी.
परमेश्वर-कृष्ण
हम जानते हैं कि कृष्ण की कहानी में कृष्ण-गोपाल का सम्मिश्रण बाद में हुआ. क्योंकि महाभारत की मूल कहानी में कहीं भी कृष्ण के बचपन का जिक्र नहीं मिलता. चौथी शताब्दी ईस्वी में जब परिशिष्ट या उपबंध के रूप में महाभारत के साथ हरिवंश पुराण का जोड़ हुआ, तब कृष्ण-अभीर की पहचान को एक सुनिश्चित आकार मिला. इस तरह, पहली से पांचवीं शताब्दी ईस्वी तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कड़ियों को जोड़ने का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप से एक ही रूवरूप में स्थापित किया जा सके.
इस तरह, कृष्ण की जो कहानी अब सामने आती है, उसके मुताबिक, वे यादव क्षत्रियों (एक योद्धा जाति) के कुल में पैदा हुए. उनके पिता का नाम वसुदेव था, इसी आधार पर उनका एक नाम वासुदेव भी पड़ गया. उनका मामा कंस आततायी था, उन्हें मारना चाहता था, इसलिए उसके डर से उन्हें रातों-रात चोरी-छिपे ले जाकर अभीरों के संरक्षण में (नंद नामक गोप के घर) छोड़ आया गया. इसके बाद इस गाथा में समय के साथ-साथ गोपियों के प्रेमी, अर्जुन के सारथी और गीता में धर्म का उपदेश देने वाले उपदेशक के तौर पर कृष्ण परिपक्व होते हैं. और इस तरह कृष्णगाथा आखिरकार पूरी होती है. इसके बाद जनजातीय समुदाय के देवता को परम ईश्वर मानने को लेकर महाभारत में शुरू-शुरू दिखी दुविधा भी खत्म हो जाती है. और छठी शताब्दी ईस्वी में लिखी गई भागवत पुराण में उन्हें परमपिता परमेश्वर का दर्जा मिल जाता है.
रुचिका शर्मा
साभार
सत्याग्रह डॉट कॉम