11/27/2016

क्या नोटबंदी पर मोदी का फैसला नियम के खिलाफ है?


विचार: क्या नोटबंदी पर मोदी का फैसला नियम के खिलाफ है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन में नोटबंदी की नीति की घोषणा की और इसका गजेट नोटिफिकेशन भी जारी किया। 1947 के बाद सरकार की शायद ही किसी नीति ने ईमानदार या अन्य देशवासियों को प्रत्यक्ष रूप से इतना प्रभावित किया हो। इस नीति की अच्छाई- इसका असरदार होना, सब पर समान रूप से लागू होना और इससे निकलने वाले परिणाम- बहस के मुद्दे हैं। लेकिन, एक बड़ा सवाल कि यह कितना वैधानिक है?

कम-से-कम आठ हाई कोर्टों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट तक में इस नीति को चुनौती दी गई है। संयोग से देश की सर्वोच्च अदालत ने याचिकाओं को ट्रांसफर करने और सब पर साझी सुनवाई करने से इनकार कर दिया है। हालांकि, कुछ अदालतें ऐसी चुनौतियों को खारिज कर चुकी हैं। पहले पहल ऐसा करने वालों में कर्नाटक हाई कोर्ट शामिल था।

11 नवंबर को एक याचिका को खारिज करते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसके मुखर्जी ने नोटबंदी के कदम की सराहना की। कथित रूप से उन्होंने कहा कि यह एक 'बढ़िया कदम' है। उन्होंने कहा, 'यह प्रशंसनीय और अर्थव्यवस्था के हित में अच्छा कदम है।' लेकिन, यह अच्छाई का वैधता पर हावी होने जैसा है जबकि दोनों अलग-अलग बातें हैं। इसलिए, दोनों को अलग-अलग ही रखना चाहिए।

क्या कहता है कानून?
नोटबंदी को आरबीई ऐक्ट, 134 की धारा 26 के तहत लागू किया गया। सेंट्रल बोर्ड की सिफारिश पर केंद्र सरकार अधिसूचना के जरिए किसी भी सीरीज के बैंक नोटों की वैधता खत्म कर सकती है। इस प्रावधान की शर्त पर गौर कीजिएः बोर्ड की सिफारिश जरूरी है। सरकार सिर्फ फैसले की वाहक है, यह फैसला नहीं ले सकती। यह सिर्फ सिफारिश को लागू कर सकती है। इसे एक उदाहरण से समझें।

मान लीजिए कोई कानून किसी सरकारी यूनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर को नियुक्ति करने का अधिकार देता है। तो वाइस-चांसलर को नियुक्ति के वक्त अपना दिमाग जरूर लगाना चाहिए। यह उनकी तरफ से दूसरा कोई नहीं कर सकता। मतलब, वाइस-चांसलर आसानी से अपना अधिकार छोड़ नहीं सकता। उसे तो फैसला करना ही पड़ेगा वरना बिल्कुल अलग हो जाना होगा। ना ही वह किसी दूसरी बॉडी द्वारा की गई नियुक्ति को पूर्व प्रभाव से मंजूरी दे सकता है। ऐसे में उसे नियुक्त करते वक्त अपने दिमाग का हर हाल में इस्तेमाल करना होगा।

इन सबके पीछे बिल्कुल साफ सिद्धांत है। वह यह कि अगर कोई कानून किसी को कुछ अधिकार देता है तो वह अन्य सभी को इसके इस्तेमाल करने से मना भी करता है। यानी, अधिकार प्राप्त बॉडी के सिवा दूसरा कोई भी इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। केएन गुरुस्वामी केस (1954) में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा, 'कानून की लगाई बेड़ियों को सरकार या इनके अधिकारियों की मर्जी पर यूं ही किनारे नहीं किया जा सकता है।' डीमॉनेटाइजेशन के परिप्रेक्ष्य में भी यह सिद्धांत रिजर्व बैंक और उसके अधिकार पर लागू होता है।

सरकार का दावा
तो क्या, आरबीआई ने डीमॉनेटाइजेशन की सिफारिश की? अगर हां, तो कब की? केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने नोटबंदी की नीति का पक्ष लेते हुए राज्यसभा में दावा किया कि इसका फैसला आरबीआई बोर्ड ने लिया। लेकिन, उन्होंने तुरंत विरोधाभासी बयान दे दिया। उन्होंने कहा कि इस संबंध में अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री यह कदम उठाने के लिए अधिकृत हैं। गोयल की ये दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं क्योंकि अगर पीएम खुद ही अधिकृत हैं तो आरबीआई बोर्ड ने निश्चित रूप से फैसला नहीं लिया होगा। इसके उलट, अगर आरबीआई बोर्ड के पास यह अधिकार है तो पीएम यह काम नहीं कर सकते हैं।

सरकारी दावे के उलट इशारे
खास तौर से गोयल का यह दावा कि आरबीआई बोर्ड ने डीमॉनेटाइजेशन पॉलिसी की सिफारिश की, की किसी ने पुष्टी नहीं की। बल्कि अब तक सारे इशारे इसके विपरीत ही हैं। आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल हैरतअंगेज रूप से चुप्पी साधे हैं। आरबीआई अधिकारियों से संपर्क साधने की तमाम कोशिशों का कोई जवाब नहीं मिला। ना ही आरबीआई ने उस मीटिंग के मिनट्स ही जारी किए हैं जिसमें नोटबंदी की नीति की सिफारिश करने की सहमति बनने की बात कही जा रही है। पटेल की चुप्पी, मिनट्स जारी नहीं होना, लागू करने में जल्दबाजी और करीब-करीब हर दिन कुछ ना कुछ नया ऐलान उस अंदेशे को बल देते हैं कि यह पीएमओ का अचानक और गुप्त रूप से उठाया गया कदम है, ना कि आरबीआई की सिफारिश। यहीं पर कानूनी पेचीदगियों का सहारा लिया जा सकता है।

सरकार को उबार सकता है यह कानून?
सरकार इस संकट से उबरने के लिए आरबीआई ऐक्ट की धारा 7 का हवाला दे सकती है जिसमें 'जनता के हित में रिजर्व बैंक को निर्देश दिए जाने' की बात कही गई है। जनहित में शायद बोर्ड को डीमॉनेटाइज करने का निर्देश दिया गया होगा? लेकिन, सरकार इससे बच नहीं सकती। क्यों? क्योंकि कोई खास प्रावधान किसी सामान्य प्रावधान से हमेशा ऊपर होता है। आरबीआई ऐक्ट में डीमॉनेटाइजेशन का विशेष अधिकार मिला हुआ है जो दूसरे किसी भी स्वीकृत सामान्य अधिकारों पर हावी होगा। वरना, विशेष अधिकारों का तो कोई मायने ही नहीं रहेगा।

आरबीआई ऐक्ट की धारा 30 का एक और प्रावधान इसे स्पष्ट करता है। यह केंद्र सरकार को उन हालात में बोर्ड को दरकिनार करने का अधिकार देता है जब आरबीआई अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल रहता है। हालांकि, तब भी सरकार बोर्ड के अधिकारों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। इसके लिए उसे किसी अन्य एजेंसी को नियुक्त करना होगा जो बोर्ड की तरफ से काम करे। मतलब स्पष्ट है कि एक दीवार सरकार को आरबीआई से अलग करती है। ये दोनों ना एक हैं और ना एक जैसे। दोनों की अलग-अलग पहचान है, दोनों के अलग-अलग अधिकार हैं और उन्हें इन्हीं आधार पर काम करना चाहिए।

अगर मोरारजी के रास्ते पर चले होते मोदी
1978 में मोरारजी देसाई सरकार ने इसे समझा था। उस सरकार ने नोटिफिकेशन जारी करने की जगह अध्यादेश के जरिए 10,000 रुपये के नोट निरस्त कर दिए। तो क्या पीएम मोदी को भी यही रास्ता अपनाना चाहिए था? शायद उन्होंने राज्यसभा में विपक्ष की ताकत को भांप लिया था। संसद के इस ऊपरी सदन में अब जारी नाटक, लगातार बहानेबाजी, बार-बार के स्थगन ने उन्हें सही साबित किया है। हालांकि, इनमें से कुछ के लिए वह खुद ही जिम्मेदार हैं। उन्हें सदन को संबोधित करना चाहिए था।

अगर राज्यसभा में अध्यादेश को मंजूरी नहीं मिलती तो क्या होता? यहां पर एक संवैधानिक चालबाजी काम आ जाती जिससे राज्यसभा का फैसला कोई मायने नहीं रखता। अध्यादेशों को लेकर मौजूदा कानून के तहत खारिज किए गए किसी अध्यादेश की सभी कार्रवाइयां स्थाई तौर पर वैधानिक होती हैं। एक बार लागू हो जाने के बाद नोटबंदी हमेशा के लिए वैधानिक ही रहती। इसे रोकने के लिए राज्यसभा के पास कोई अधिकार नहीं है। लगता है कि बेहद सतर्कता की वजह से मोदी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और वह इस कानूनी पचड़े में फंस गई।

कुल मिलाकर, अधिसूचना गैर-कानूनी है लेकिन अध्यादेश कानूनी होता। यह जनता के समर्थन का सरकार प्रायोजित सबूत तैयार करने की मूखर्तापूर्ण प्रयासों के मुकाबले कहीं बेहतर विकल्प होता।

संकलन 

न्यूज़ मिडिया,आरबीआई एक्ट.

पं.एल.के.शर्मा
(अधिवक्ता) राज.उच्च न्या.जोधपुर ,राज.

14 लाख करोड़ हो गए रद्दी, छपे कुल डेढ़ लाख करोड़, अब तुम ही बताओ कैसे कम हो कतारें

दिल्ली के लोग तो शनिवार से परेशान हैं क्योंकि दो दिन की छुट्टी होने की वजह से पैसा नहीं मिल पा रहा है. और एटीएम खली हो गए हैं. कई एटीएम में पैसा है ही नहीं तो जहां पहुंच रहा था, वहां भी छुट्टी की वजह से खत्म हो लिया. अभी ये परेशानी बनी रहेगी. क्योंकि बैंकों में कतारें और एटीएम खाली होने की एक बड़ी वजह सामने आई है वो ये कि नोट छपे ही नहीं है. जब नोट छपे नही तो मियां आपको मिलेंगे कहां से.

सामने आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अबतक कुल डेढ़ लाख करोड़ रुपये के नए नोट छापे हैं. जबकि 500 और 1000 रुपये के रूप में देश के 14.18 लाख करोड़ रुपयों को रद्दी बना दिया गया है. और हां डेढ़ लाख करोड़ रुपये में भी ज्यादातर नोट 2000 रुपये वाली गुलाबी पत्ती वाले हैं. जिससे कुछ सामान लेने जाओ तो छुट्टे नहीं मिलते. यानी गुलाब की पंखुड़ी समझकर बस 2000 वाले नोट को लेकर इतराते फिरो कि मेरे पास पैसे हैं.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक नोटों के बारे में ये जानकारी Credit Suisse research report में दी गई है. जो 25 नवंबर को सामने आई है. डेढ़ लाख करोड़ रुपये की नई करेंसी के अलावा 1.2 लाख करोड़ रुपये की करेंसी पहले से चलन में है.

आठ नवंबर को नोटबंदी का ऐलान हुआ. देश के पीएम ने दो जुमलों में 500 और हजार के नोट को रद्दी बना दिया. ताकि नकली नोटों और कालेधन से निपटा जा सके. लेकिन न तो नकली नोट बनना रुक पाए और न ही वो काला धन सामने आया जो चुनाव के वक्त देश की जनता के लिए लाने का वादा हुआ था.
रिपोर्ट में कहा गया है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को अभी जल्दी में एक हजार से लेकर दो हजार करोड़ रुपये और छापने होंगे, ताकि ट्रांसेक्शन लेवल काफी हद तक पहले की स्थिति में आ सके. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी जानकारी दी थी कि बैंक और एटीएम के जरिए उसने 10 से 18 नवंबर के बीच 1.03 लाख करोड़ रुपये लोगों तक पहुंचा दिए हैं. 14.18 लाख करोड़ रुपये की पुरानी करेंसी में से 6 लाख करोड़ रुपये बैंकों में फिर से जमा हो गए हैं.

रिपोर्ट ने पिछले एक हफ्ते के आंकड़ों पर कहा है कि आरबीआई एक दिन में 500 रुपये के तकरीबन 4 से 5 करोड़ नोट छाप रहा है. ऐसे में अगर देखा जाए तो जनवरी 2017 तक पुरानी करेंसी का सिर्फ 64 फीसदी हिस्सा ही चलन में आ पाएगा.