12/20/2016

नज़रिया: 'जीती हुई लड़ाई में पिछड़ने लगी है बीजेपी'

ऐसा माना जाता है कि उत्तर प्रदेश का सियासी मिज़ाज ही देश का भविष्य तय करता है. जब यूपी में कांग्रेस की तूती बोलती थी तो केंद्र में भी उसी की सरकार बनती रही.
1989 में कांग्रेस के सितारे तभी गर्दिश में चले गए जब वह यूपी में हारी. इसी तरह देश में बीजेपी के उत्थान की मुख्य वजह उसे उत्तर प्रदेश में मिली सफलताएँ हैं.

इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने सहयोगी पार्टी - अपना दल - के साथ मिल कुल 80 में से 73 सीटें जीतीं, तो लगा कि ढाई साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी का पलड़ा भारी जरूर रहेगा.

बीजेपी को यूपी में अकेले 42.63 फ़ीसदी वोट मिले. जबकि 2007 में मायावती और 2012 में अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उनकी पार्टियां 29 फ़ीसदी वोट पाकर अपने दम पर बहुमत जुटा लाई थीं.

कहावत है - हाथी दुबला होगा तो चूहा नहीं बन जाएगा. यानी अगर बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 42.63 फ़ीसदी वोट मोदी लहर की वजह से मिले थे तो विधानसभा चुनाव में अगर मान लिया जाए कि मोदी की लहर नहीं होगी तो भी उसे 30 फ़ीसदी वोट तो मिल ही जाने की उम्मीद थी.
मोदी।

2014 के बाद हुए सात विधानसभा चुनावों में बीजेपी का मत प्रतिशत सबसे ज्यादा कहीं गिरा तो वह दिल्ली में था - 13 फीसदी. हालाँकि इसके बाद 33 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद बीजेपी को वहां 70 में से महज़ तीन सीटें मिल पाई थीं.
दिल्ली में बीजेपी का आम आदमी पार्टी के साथ लगभग सीधा मुकाबला था. लेकिन यूपी में स्थितियाँ भिन्न हैं. यहाँ बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस के साथ चतुष्कोणीय मुकाबले में होगी. यदि उसे दिल्ली की तरह 13 फीसदी कम वोट मिलें तो भी 2007 की बसपा और 2012 की सपा जैसे इस बार बीजेपी भी 30 प्रतिशत वोट पाकर सत्ता संभाल सकती थी.

दो महीने पहले तक स्थितियाँ यही थीं. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथों में ले रखी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भीड़ भरी रैलियां संबोधित कर रहे थे. चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी घोषित कर चुके थे.तभी 8 नवंबर को मोदी ने 1000 और 500 के नोटों पर प्रतिबंध लगा दिया. इससे पूरे देश की तरह उत्तर प्रदेश में भी छोटे और मझोले किसानों और उद्योगों पर जबरदस्त प्रतिकूल असर पड़ा. खास तौर पर गांव में, जहां लोग प्लास्टिक करेंसी या कैशलेस इकॉनोमी का मतलब ही नहीं समझते हैं और सारी अर्थव्यवस्था का आधार नकद रुपया ही है.

बैंकों में पैसा न पहुंचने से लोगों के पास कैश की बड़ी दिक़्क़त हो गई है. किसानों की धान की फ़सल बिक ही नहीं रही है. बिक रही है तो आधे दाम पर - छह सौ से सात सौ रुपए प्रति क्विंटल जबकि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य है 1400 रुपए प्रति क्विंटन.
जब पैसे नहीं हैं तो अगली फ़सल के लिए बीज कहाँ से आएगा और खाद कहाँ से? सुल्तानपुर ज़िले के किसान हरिलाल कहते हैं - ''भइया, पानी लगाय क (सिंचाई) डीज़ल कहाँ ले ख़रीदें. फ़सल को पाला मार रहो है.''

वहीं, गोमती नदी में मछली पकड़ कर गुज़ारा करने वाले मछुआरे बहोरन प्रसाद कहते हैं - "मंडी में ग्राहक नहीं है. मछली बिकने की जगह सड़ रही है. सुबह हमारा परिवार शकरकंदी उबाल कर खा रहा है और शाम को हम गाँजा पीकर सो जाते हैं."

मज़दूर नेता दुर्गा प्रसाद मिश्रा दावा करते हैं कि उनके संपर्क में कई मज़दूर हैं जिन्हें नौ नवंबर के बाद या तो काम नहीं मिला है और अगर मिला है तो मज़दूरी नहीं मिली है.
जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी और सरकार की मजबूरियों की लाख दुहाई के बावजूद उन्हें लोगों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है. कई जगहों पर दंगे जैसी स्थितियाँ बन गई हैं.

पुलिस को कहीं लाठी चार्ज करना पड रहा है तो कहीं हवाई फ़ायर. सांसदों के ग़ुस्से का जायज़ा पिछले सप्ताह लखनऊ में आरएसएस और बीजेपी की संयुक्त बैठक में दिखा जब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति में उत्तर प्रदेश के सभी सांसदों ने एक स्वर में एक ही मांग रखी कि अगर चुनाव जीतना है तो उत्तर प्रदेश के बैंकों में तुरंत धन उपलब्ध कराएं.
लेकिन जब पूरे देश पर ही करेंसी की समस्या हो तो अकेले उत्तर प्रदेश में उपलब्धता कैसे सुनिश्चित कराई जा सकती है.
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पिछडे कुर्मियों के अपना दल से तालमेल किया था. बीजेपी के लगभग क्लीन स्वीप करने की एक वजह यह भी थी.

इस बार अमित शाह का प्रयास था कि उत्तर प्रदेश में ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाने का था.
इसीलिए उन्होंने सोहेल देव पार्टी, पाजभर, मौर्य, कुशवाहा, कुर्मी, काछी, मल्लाह आदि पिछड़ी जातियों को अपने पाले में लाने की जीतोड़ कोशिश की. और किसी हद तक सफल भी हुए.

उत्तर प्रदेश में बैंक में क़तार लगाए लोगों की फ़ाइल तस्वीर
उनका मानना था कि अगड़ी जातियां पहले ही बीजेपी के साथ हैं और अगर पिछड़ी जातियां आ जाती हैं तो विनिंग कंबीनेशन होगा. लेकिन नोटबंदी ने नके इस पूरे प्रयास पर पानी फेर दिया.

इसके अलावा यदि सपा-कांग्रेस का तालमेल हो जाता है तो अल्पसंख्यक, यादव और दूसरी पिछड़ी जातियों और अगड़ी जातियों के एक हिस्सा के उनके साथ जाने की संभावना है.

साभार शरद गुप्ता
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

प्रस्तुति
एल.के .शर्मा

Paytm की वो असलियत, जो हर भारतीय को जाननी चाहिए

Paytm की वो असलियत, जो हर भारतीय को जाननी चाहिए!

एक बात तो आप सभी मानेंगे कि नोटबंदी से सबसे अधिक फायदा पेटीएम को ही पहुंचा है। पेटीएम से रोजाना 70 लाख सौदे होने लगे हैं जिनका मूल्य करीब 120 करोड़ रूपये तक पहुंच गया है, पेटीएम हर ट्रांजिक्शन मे मोटा कमीशन वसूल रही है। सौदों में आई भारी तेजी से कंपनी को अपने पांच अरब डॉलर मूल्य की सकल उत्पाद बिक्री (जीएमवी) लक्ष्य को तय समय से चार महीने पहले ही प्राप्त कर लिया है।

पर पेटीएम कंपनी है क्या ?

एक वक्त था जब पेटीएम एक भारतीय स्टार्ट-अप कंपनी हुआ करती थी पर आज यह कंपनी चीन के उद्योगपति जैक मा के हाथों का खिलौना बन चुकी है। पर यह तो सभी जानते है कि अलीबाबा की पेटीएम मे हिस्सेदारी है पर यह आधा सच है।

पूरी कहानी समझने के लिए थोड़ा फ्लैश बैक मे जाना होगा

जब जैक मा ने 1998 में अलीबाबा नामक ई कामर्स कंपनी की स्थापना की तो उनको बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहले तीन सालों तक इस ब्रांड से उनको कोई लाभ नहीं हुआ। कंपनी की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसके पास भुगतान के रास्ते नहीं थे और बैंक इसके साथ काम करने को तैयार नहीं थे।

मा ने अलीपे के नाम से खुद का पेमेंट प्रोग्राम शुरू करने का निर्णय किया। इसके तहत अंतरराष्ट्रीय खरीदारों और विक्रेताओं के बीच अलग-अलग करंसीज के पेमेंट्स को ट्रांसफर किया जाता है।

पूरा सच

अलीबाबा का अलीपे ही पेटीएम का सबसे बड़ा हिस्सेदार है। दरअसल चीन या चीन के उद्योगपति भारत के व्यवसाय की “सेवा उन्मुख व्यवसाय आपूर्ति श्रृंखला”(सप्लाई चेन)को तोड़ना चाहते है, ताकि वह आसानी से अपना माल भारत के बड़े बाजार मे खपा सके।

इसके लिए उन्हें अपने नियंत्रण वाली खुद की एक सुरक्षित रसद श्रृंखला (लॉजिस्टिक्स चेन) शुरू करना है और चीन के विक्रेता चीन के ही किसी पेमेंट गेटवे का इस्तेमाल कर भारत मे माल बेचने मे अपने आपको सहज महसूस करेंगे जो पेटीएम उन्हें उपलब्ध करा रहा है।

पेटीएम का मूल उद्देश्य अलीबाबा और चीनी उद्योगपतियों के लिए रास्ता साफ करना है, अलीबाबा के ग्लोबल मैनेजिंग डायरेक्टर के गुरु गौरप्पन को पिछले महीने पेटीएम के बोर्ड में एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर शामिल किया गया है और नोटबंदी के ठीक 4 दिन पहले अलीबाबा के सारे टॉप मैनेजर पेटीएम के नोएडा ऑफिस मे कमान सँभाल चुके थे।

अलीबाबा को चीन का पहला प्राइवेट बैंक खोलने की अनुमति मिल गयी है और भारत मे अलीबाबा के पेटीएम को भी पेमेंट बैंक खोलने की अनुमति रिजर्व बैंक ने दे दी है यानी एक ही कंपनी अलीबाबा ने दोनों देशों मे खुद का बैंक और खुद का पेमेंट गेटवे खोल लिया है।

नोटबंदी के बाद 1 महीने मे छोटे और मध्यम उद्योग धंधो की जो बर्बादी हो रही है उस पूरे वैक्यूम को चीनी सामानों को ला लाकर भारतीय बाजार मे पाट दिया जायेगा और देश देखते देखते भारत नयी गुलामी की तरफ बढ़ता चला जायेगा।

आपको अब भी शायद लग रहा है कि पेटीएम इतनी बड़ी कंपनी नहीं है! चलिये ये भ्रम भी आपका दूर कर देते हैं

पेटीएम ने दुनिया की सबसे बड़ी कैब टैक्सी कंपनी उबर से हाथ मिला लिया है। दिल्ली और मुंबई मेट्रो के टिकट पेटीएम के मार्फ़त ख़रीदे बेचे जा रहे है। IRCTC यानि रेलवे के टिकट पेटीएम से ख़रीदे बेचे जा रहे है। IRCTC ने पेमेंट गेटवे के लिए पेटीएम के साथ साझेदारी की है और पेटीएम देश की सबसे बड़ी ट्रैवल बुकिंग प्लैटफॉर्म बनने के लिए पूरी तरह से तैयार है।

पेटीएमने बीसीसीआई से भारत में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू मैचों के 2015 से 2019 तक के लिए क़रीब 84 अंतरराष्ट्रीय मैचों का क़रार किया गया है। अब रणजी ट्राफी भी पेटीएम के नाम से खेली जायेगी।

इतना ही नहीं मीडिया को भी अपने शिकंजे मे लेने की पूरी तैयारी की गयी है। एनडीटीवी के गैजेट्स 360° के लिए पेटीएम के मालिक कंपनी, वन97 कम्युनिकेशंस ने पूरा निवेश किया है।

सुबह शाम न्यूज़ चैनलों को मन भर के विज्ञापन दिए जा रहे हैं और तो और सरकारी न्यूज चैनल डी डी न्यूज़ भी पेटीएम का प्रचार कर रहा है।

खुदरा क्षेत्र के फ्यूचर समूह ने पेटीएम के साथ समझौता किया है। इसके तहत फ्यूचर समूह पेटीएम के मंच का प्रयोग बिग बाजार के सामान को ऑनलाइन बेचने के लिए करेगा। इस समझौते में पेटीएम के मार्केटप्लेस पर बिग बाजार एक प्रमुख स्टोर बन जाएगा।

सरकार खुद बड़े करेंसी नोट के विमुद्रीकरण के बाद जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिए फंड ट्रांसफर के लिए पेटीएम से हाथ मिलाने को तैयार बैठी है।

सरकार किस हद तक पेटीएम का समर्थन कर रही है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पेटीएम से की गई मात्र सवा छः लाख की धोखाधड़ी की जांच सीधी सीबीआई से करायी जा रही है।

ऐसा भी नहीं है कि इस और किसी का ध्यान नहीं है

आरएसएस की आर्थिक शाखा भी पेटीएम के चीनी संबंध पर बारीक नजर रखे हुए है। आरएसएस से जुड़ा स्वेदशी जागरण मंच (एसजेएम) चीनी उत्पाद और निवेश के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चला रहा है लेकिन इस बार सरकार खुद आगे बढ़कर देश को कैशलेस बनाकर चीनी उद्योगपतियों के खतरनाक मंसूबो को कामयाब बना रही है।

बाड़ ही खेत हड़प रही है भारत की कैशलेस व्यवस्था को जब चीनी कंपनियां नियंत्रित करेंगी, तब आप खुद सोचिये अंजाम क्या होगा………
याद रखिए पार्टी के प्रति निष्ठा या किसी नेता की भक्ति से कही अधिक बड़ा देश का हित होता है।

साभार- न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र
एल.के.शर्मा (अधिवक्ता)