6/25/2016

रुखसाना सुल्ताना : एक सुंदरी जिसे देखते ही मर्दों की रूह कांप जाती थी

रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था. इसके बाद उन्होंने कहर ढा दिया.
नसबंदी को परिवार नियोजन के दूसरे विकल्पों से कहीं ज्यादा प्रभावी और सुरक्षित माना जाता है. लेकिन आपातकाल के दौरान जामा मस्जिद के आसपास चलने वाले नसबंदी कैंपों का प्रभाव यह था कि स्थानीय लोग खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे. बताते हैं कि इन कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी जिस महिला को सौंपी गई थी उसे देखते ही डर के मारे लोगों के हलक सूख जाते थे. उस समय के सत्ता प्रतिष्ठान से गहरी नजदीकी रखने वाली इस महिला का नाम था रुखसाना सुल्ताना. सरकारी अधिकारी उन्हें रुखसाना साहिबा कहा करते थे.
ऐसा नहीं था कि रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. इससे पहले वे दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं.
1975 में एक तरफ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल का ऐलान किया था तो दूसरी तरफ उनके बेटे संजय गांधी के राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी. इस सफर ने इस तेजी से रफ्तार पकड़ी कि जल्द ही संजय गांधी को समानांतर सत्ता केंद्र कहा जाने लगा. उन्होंने आपातकाल के दिनों में एक पांच सूत्री कार्यक्रम लागू किया. साक्षरता, सौंदर्यीकरण, वृक्षारोपण, दहेज प्रथा व जाति उन्मूलन और परिवार नियोजन इसका हिस्सा थे. लेकिन इनमें भी संजय गांधी के लिए सबसे अहम था परिवार नियोजन. उनका मानना था कि जिस आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताया जा रहा है उस पर अगर वे लगाम लगा सकें तो तुरंत ही देश और दुनिया में वे एक प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. माना जाता है कि इसके चलते उन्होंने सारी सरकारी मशीनरी को इस काम में झोंक दिया.
संजय गांधी इस काम की शुरुआत राजधानी और उसमें भी पुरानी दिल्ली से करना चाहते थे. तब भी नसबंदी के बारे में कई भ्रांतियां थीं. मुस्लिम समुदाय में यह अफवाह उड़ती थी कि यह उसकी आबादी कम करने की साजिश है. संजय गांधी को लगता था कि अगर उन्होंने शुरुआत में ही इस अभियान को सफल बना दिया और वह भी मुस्लिम समुदाय के बीच तो पूरे देश में एक असरदार संदेश जाएगा.
दिल्ली में नसबंदी कार्यक्रम कैसे चलेगा, इसकी जिम्मेदारी जिन चार लोगों को दी गई थी वे थे लेफ्टिनेंट गवर्नर किशन चंद, नवीन चावला, विद्याबेन शाह और रुखसाना सुल्ताना. रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था.
बताया जाता है कि संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों को नसबंदी के लिए राजी करें.
ऐसा नहीं था कि रुखसाना को सामाजिक कार्य का कोई अनुभव था या वे डॉक्टर थीं. इससे पहले वे दिल्ली में अपना एक बुटीक चलाती थीं. उनकी मां जरीना बीकानेर रियासत के मुख्य न्यायाधीश मियां अहसान उल हक की बेटी और चर्चित अभिनेत्री बेगम पारा की बहन थीं. रुखसाना ने एक सैन्य अधिकारी शिविंदर सिंह से शादी की थी जो दिग्गज पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह के भतीजे थे. उनकी बेटी का नाम अमृता सिंह है जो हिंदी फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री हैं.
बताया जाता है कि संजय गांधी से प्रभावित रुखसाना एक आयोजन में उनके पास आईं और पूछा कि वे उनके लिए क्या कर सकती हैं? संजय ने उनसे कहा कि वे मुसलमानों को नसबंदी के लिए राजी करने की जिम्मेदारी संभालें. इस तरह रुखसाना संजय गांधी की टीम में शामिल हो गईं. जल्द ही उन्होंने अपना काम भी शुरू कर दिया. वे पुरानी दिल्ली में घर-घर जाकर लोगों को परिवार नियोजन के फायदों के बारे में समझाने लगीं. उन्होंने इस इलाके में छह नसबंदी कैंप भी शुरू कर दिए.
लेकिन जल्द ही पुरानी दिल्ली में नसबंदी के बारे में जागरूकता से कहीं ज्यादा उसका आतंक फैल गया. खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को जबरन पकड़कर उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 साल के नौजवानों को भी बख्शा नहीं जा रहा. कहते हैं कि ये खबरें संजय गांधी तक भी पहुंचती थीं, लेकिन वे इन्हें अतिश्योक्ति कहकर खारिज कर देते थे.
खबरें आने लगीं कि महीने का टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को जबरन पकड़कर उनकी नसबंदी की जा रही है और इसमें 60 साल के बुजुर्गों और 18 साल के नौजवानों को भी बख्शा नहीं जा रहा.
अपनी किताब ‘द संजय स्टोरी’ में विनोद मेहता याद करते हैं कि कैसे उस दौर में एक खबर पर काम करते हुए वे जामा मस्जिद के आसपास वाले इलाकों में लोगों से मिले थे जिनमें नसबंदी कार्यक्रम को लेकर बहुत गुस्सा था. आलम यह था कि रुखसाना की कार देखकर लोगों की रूह सूख जाती थी.
बाद में रुखसाना के साथ हुई मुलाकात का जिक्र करते हुए मेहता लिखते हैं कि उन्होंने इन बातों को खारिज करते हुए कहा कि नसबंदी का काम बहुत मानवीय और स्वैच्छिक तरीके से हो रहा है. रुखसाना का मानना था कि राई का पहाड़ बनाया जा रहा है और यह इलाके के पुराने कांग्रेसियों की साजिश है जिनसे यह हजम नहीं हो रहा कि कोई दूसरा उनके इलाके में आकर वास्तव में कुछ कर रहा है. इसी मुलाकात में रुखसाना ने मेहता से कहा कि वे उन्हीं लोगों से मिलने जा रही हैं जिन पर कैंपों को चलाने की जिम्मेदारी हैं. उनका कहना था कि मेहता चाहें तो खुद उनसे पूछ करके यह पुष्टि कर सकते हैं कि कोई जोर जबरदस्ती नहीं हो रही. मेहता के मुताबिक जब वे रुखसाना की कार में बैठकर पुरानी दिल्ली के एक मकान में पहुंचे तो उन लोगों की शक्लें देखकर चौंक गए. दरअसल वे बहुत डरावनी शक्ल वाले लोग थे.
अपनी किताब में मेहता लिखते हैं कि जब उन्होंने पूछा कि ये लोग कौन हैं तो रुखसाना का जवाब था, ‘ये राजस्थानी नायक हैं. आप इसे देख रहे हैं. ये इनका मुखिया है. आपको पता है इसने आठ मर्डर किए हैं और एक भी लाश नहीं मिली.’ इसके बाद वे मुखिया की तरफ मुड़ीं और हंसते हुए पूछा, ‘तो कितने आदमी मारे हैं तुमने? आठ या इससे भी ज्यादा?’ मेहता आगे लिखते हैं, ‘तो ये थे वे लोग जो रुखसाना के मानवीय और स्वैच्छिक तीरके वाले नसबंदी कैंप चला रहे थे.’
‘ये राजस्थानी नायक हैं. आप इसे देख रहे हैं. ये इनका मुखिया है. आपको पता है इसने आठ मर्डर किए हैं और एक भी लाश नहीं मिली.’
इन्हीं रुखसाना ने संजय गांधी के लिए एक मास्टरस्ट्रोक भी खेला. जब नसबंदी के चलते मुजफ्फरनगर, मेरठ, गोरखपुर और सुल्तानपुर जैसे कई शहरों में दंगे होने लगे तो उन्होंने उसी दौरान दो इमामों को नसबंदी कराने के लिए तैयार कर लिया. जब मुसलमान नसबंदी को इस्लाम के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध कर रहे हों तो मुस्लिम धर्मगुरुओं का नसबंदी करवाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. रुखसाना ने यह ऐलान करके इस कामयाबी को और भी वजन दे दिया कि शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद नाम के ये दो इमाम उसी मुजफ्फरनगर के हैं जहां नसबंदी के मुद्दे पर बड़ा दंगा हुआ है.
उस समय ये भी खबरें आईं कि बाकी लोगों की तरह इमाम भी पहले नसबंदी के खिलाफ थे. लेकिन अपनी वाकपटुता और कुरान की कुछ आयतों का उदाहरण देते हुए रुखसाना ने उन्हें मनाने में कामयाबी हासिल कर ली. संजय गांधी इससे बहुत खुश हुए. उन्होंने खुद इन दोनों इमामों को नसबंदी का सर्टिफिकेट दिया और साथ ही दोनों को 101 रु का नकद ईनाम भी. शरीफ अहमद और नूर मोहम्मद ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे दूसरे धार्मिक नेताओं को मनाने की भी हरमुमकिन कोशिश करेंगे. अगले दिन अखबारों में संजय गांधी के अगल-बगल खड़े इन दोनों इमामों की तस्वीरे छपीं.
आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार आई तो रुखसाना नेपथ्य में चली गईं. इसके बाद उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं सुना गया. दुबारा उनका नाम 1983 में तब चर्चा में आया जब उनकी बेटी अमृता सिंह की पहली फिल्म बेताब रिलीज हुई थी. इसके बाद से उनके बारे में फिर कुछ और सुनने में नहीं आया.
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आपातकाल शख्सियत संजय गांधी
आपातकाल

सरकार भले न माने लेकिन ‘दो निशान, दो विधान और दो प्रधान’ नगालैंड में खुला रहस्य है

नगालैंड का विद्रोही गुट एनएससीएन-आईएम पिछले दो दशकों से राज्य में समानांतर सरकार चला रहा है और राजधानी कोहिमा से 100 किमी दूर इस सरकार का मुख्यालय है।

पिछले साल तीन अगस्त को भारत सरकार और नगालैंड के सबसे प्रभावशाली विद्रोही गुट नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन-आईएम) के बीच एक समझौता हुआ था. पहले इसे शांति समझौता (पीस एकॉर्ड) कहा जा रहा था लेकिन बाद में ‘फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ नाम दिया गया. इसका मोटा-मोटा मतलब था कि दोनों पक्षों ने बातचीत और संभावित शांति समझौते की एक रूपरेखा पर सहमति जता दी है.
इस समझौते से जुड़ी शर्तें अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई हैं लेकिन एक मुद्दे पर यह समझौता भारी विवादों में है. पिछले दिनों कुछ समाचार वेबसाइटों और सोशल मीडिया साइटों पर खबर आई थी कि भारत सरकार ने एनएससीएन-आईएम की नगा लोगों के लिए अलग झंडे और पासपोर्ट की मांग मान ली है. नरेंद्र मोदी सरकार ने नगालैंड में शांति स्थापित करने की दिशा में इसे ऐतिहासिक समझौता करार दिया था लेकिन इन खबरों के बाद सरकार लगातार निशाने पर है.
आज की तारीख में कैंप हेब्रॉन आकार या भव्यता में न सही लेकिन संरचना में एक संप्रभु राष्ट्र के मुख्यालय से कम नहीं लगता
भाजपा के लिए यह दोहरी मुसीबत है. वह खुद और उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्याम प्रसाद मुखर्जी को आदर्श मानते हैं जिन्होंने कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे’ का नारा दिया था. जबकि इसबार खुद उसकी सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि उसने नगालैंड के लिए यह मांग मंजूर कर ली है.
फिलहाल भारत सरकार ने इस खबर का खंडन किया है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजीजू का कहना है कि अभी नगा संगठन से बातचीत चल रही है और अलग झंडे व पासपोर्ट की खबर सही नहीं है. अलग झंडे और पासपोर्ट का सीधा अर्थ है कि संबंधित भूभाग पर दूसरी सरकार है. केंद्र में किसी अन्य पार्टी की सरकार के लिए भी यह काफी मुश्किल होता और भाजपा के लिए तो यह मांग मानना तकरीबन असंभव ही है. लेकिन इस पूरे विवाद का एक अलग लेकिन सबसे दिलचस्प पहलू है कि नगालैंड में आज भी दो सरकारें चलती हैं. यहां दो झंडे हैं और नियम-कानून भी अलग-अलग हैं.
नगालैंड में भारतीय संविधान के तहत एक चुनी हुई सरकार तो है ही लेकिन इसके साथ विद्रोही गुट एनएससीएन-आईएम की भी समानांतर सरकार का भी यहां शासन है.
एनएससीएन-आईएम की समानांतर सरकार का मुख्यालय कैंप हेब्रॉन में है
दीमापुर नगालैंड की व्यवसायिक राजधानी है. इससे तकरीबन 40 किमी दूर जंगल के बीच पहाड़ी पर एक विशाल परिसर में कई आवासीय इकाइयां बनी हुई हैं और यही कैंप हेब्रॉन कहलाता है. यह एनएससीएन-आईएम का केंद्रीय मुख्यालय (सीएचक्यू) और गवर्नमेंट ऑफ पीपल्स रिपब्लिक ऑफ नगालिम (जीपीआरएन) का भी मुख्यालय है. जीपीआरएम नगालैंड की स्वघोषित सरकार है. एनएससीएन-आईएम की स्थापना इसाक चिसी स्वू और थ्युंगालेंग मुइवा ने की थी. इसाक संगठन के चेयरमैन और सरकार में राष्ट्रपति हैं और संगठन के महासचिव मुइवा प्रधानमंत्री.
एनएससीएन-आईएम की स्थापना इसाक चिसी स्वू और थ्युंगालेंग मुइवा ने की थी. इसाक संगठन के चेयरमैन और नगालिम सरकार में राष्ट्रपति हैं और संगठन के महासचिव मुइवा प्रधानमंत्री
1995 में जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे तब केंद्र सरकार सभी विद्रोही नगा गुटों को बातचीत की टेबल पर लाने पर सफल हुई थी. फिर 1997 में एनएससीएन-आईएम ने भारत सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौता कर लिया. इस गुट ने मांग की थी कि जब तक संघर्ष विराम लागू है केंद्र सरकार विद्रोहियों को रहने के लिए सुरक्षित जगह उपलब्ध कराए. इसी प्रक्रिया के तहत हेब्रॉन में विद्रोहियों के लिए शिविर या कैंप बनाए गए. लेकिन इन दो दशकों में दोनों पक्षों के बीच स्थायी संधि नहीं हो पाई और संघर्ष विराम लंबा खिंचता रहा. इस बीच कैंप हेब्रॉन के परिसर का विस्तार होता गया.
कैंप हेब्रॉन का मुख्य गेट (तस्वीर - इप्सिता चक्रवर्ती)
आज की तारीख में कैंप हेब्रॉन आकार या भव्यता में न सही लेकिन संरचना में एक संप्रभु राष्ट्र के मुख्यालय से कम नहीं लगता. स्क्रोल डॉट इन की एक रिपोर्ट के मुताबिक परिसर के भीतर जीपीआरएन के तमाम सरकारी विभागों के कार्यालय हैं. यहां कृषि मंत्रालय से लेकर पर्यावरण और वित्त मंत्रालय भी हैं. इस वित्त मंत्रालय के पास नगालैंड में कर वसूलने के लिए एक व्यवस्थित ढांचा भी मौजूद है और सिर्फ नगालैंड ही नहीं है पड़ोसी राज्यों के नगाबहुल इलाकों के नागरिकों से भी कर वसूला जाता है. यहां भी वित्त मंत्री सालाना बजट पेश करते हैं. फ्रंटलाइन की एक रिपोर्ट जीपीआरएन के एक अधिकारी के हवाले से जानकारी देती है कि इस सरकार का बजट भी करोड़ों रुपये का होता है. हर मंत्रालय के लिए एनएससीएन ने एक-एक मंत्री नियुक्त किया है. जीपीआरएन के संचालन की गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि भारत सरकार से बातचीत की जिम्मेदारी इसके गृमंत्रालय को सौंपी गई है.
कैंप हेब्रॉन के सबसे भीतरी हिस्से में नगा सेना का मुख्यालय (जीएचक्यू) है. यहां हर दिन नए रंगरूटों के प्रशिक्षण का काम चलता है. एक अंग्रेजी मैंगजीन की रिपोर्ट बताती है कि जीएचक्यू की तुलना भारतीय सेना की किसी भी छावनी से की जा सकती है. यहां 30 से ज्यादा रसोईघर हैं इसके साथ ही दर्जनों डाइनिंग हॉल हैं.
कैंप हेब्रॉन के सबसे भीतरी हिस्से में नगा सेना का मुख्यालय (जीएचक्यू) है. यहां हर दिन नए रंगरूटों के प्रशिक्षण का काम चलता है
पिछले दिनों नगा सरकार के ‘लोकनिर्माण विभाग’ ने यहां एक बड़ी इमारत भी बनाई है. यह तातार होहो यानी जीपीआरएन की ‘संसद’ है. इस ‘संसद’ में नगाओं की अलग-अलग जनजातियों की तरफ से नामित और कुछ चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं. इन्हें तातार कहा जाता है. मंत्रियों और उपमंत्रियों की परिषद - ‘किलोनसेर्स’, विभिन्न विभागों के सचिव और प्रमुख और इनके साथ सेना के कमांडर संसद के सदस्य होते हैं.
जीपीआरएन का अपना झंडा और एक कानून प्रणाली भी है
एनएससीएन-आईएम गुट हर साल 14 अगस्त को ‘वृहत्तर नगालैंड’ या जिसे वह नगालिम कहता है, का स्वतंत्रता दिवस मनाता है. नगालैंड के पहले और मूल विद्रोही गुट नगा नेशनल काउंसिल (एनएससी) ने 14 अगस्त, 1947 को नगालैंड की आजादी की घोषणा की थी. भारत सरकार ने इसे खारिज कर दिया था लेकिन तब से हर साल 14 अगस्त को हेब्रॉन में ‘स्वतंत्रता’ दिवस कार्यक्रम मनाया जाता है. पिछले साल तक यहां नगालिम का एक अलग झंडा फहराया जाता रहा है. हेब्रॉन में मुख्य कार्यक्रम होता है इसके अलावा नगालैंड की राजधानी कोहिमा सहित सभी शहरों कस्बों में इस दिन नगालिम का झंडा फहराया जाता है.
जीपीआरएन ने इन सालों में अपनी एक औपचारिक न्याय प्रणाली भी बना ली है जिसमें परंपरागत कानूनों के हिसाब से फैसले सुनाए जाते हैं. फ्रंटलाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसके सबसे निचले पायदान पर ग्राम अदालतें हैं. अलग-अलग जनजातीय क्षेत्रों में क्षेत्रीय अदालतें मौजूद हैं. इसी रिपोर्ट में जीपीआरएन के कर्मचारी दावा करते हैं कि ज्यादातर नगा आबादी भारतीय अदालतों के बजाय इन अदालतों पर भरोसा करती है.
हर साल 14 अगस्त को हेब्रॉन में ‘स्वतंत्रता’ दिवस कार्यक्रम मनाया जाता है. यहां मुख्य कार्यक्रम होता है इसके अलावा नगालैंड की राजधानी कोहिमा सहित सभी शहरों कस्बों में इस दिन नगालिम का झंडा फहराया जाता है
नगालैंड की इन परिस्थितियों के बीच सवाल उठता है कि वहां चुनी हुई सरकार राज्य में एक समानांतर सत्ता क्यों चलने दे रही है? इस सवाल का सीधा जवाब यही है कि एनएससीएन-आईएम समानांतर सत्ता चलाने लायक ताकत रखता है. इस समय नगालैंड में नगा पीपल्स फ्रंट (एनपीएफ) की सरकार है और माना जाता है कि इसे विद्रोही गुट अप्रत्यक्षरूप से समर्थन देता है. एनपीएफ की स्थापना नेफियो रियो ने 2002 में की थी. इससे पहले वे कांग्रेस में थे. एनपीएफ कुछ सहयोगी दलों जिनमें भाजपा भी शामिल है, के साथ 2003 से ही नगालैंड में सत्ता में है. उसने कांग्रेस को बेदखल कर पहली बार सरकार बनाई थी.
राज्य में कांग्रेस एनएससीएन-आईएम की विरोधी पार्टी रही है लेकिन इस गुट का इतना प्रभाव है कि निजी स्तर पर कई कांग्रेस नेता उसी के समर्थन से चुनाव जीतते हैं. वहीं दूसरी तरफ एनपीएफ को तो गुट का समर्थन हासिल ही है. जाहिर है कि ऐसे में एनएससीएन की समानांतर सरकार को चुनी हुई सरकार चुनौती नहीं देगी.
इस राज्य में वैसे तो सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लागू है पर एनएससीएन-आईएम केंद्र सरकार के साथ संघर्ष विराम की स्थिति में है. इसलिए यहां केंद्रीय सुरक्षाबल यथास्थिति बनाए रखते हुए विद्रोही गुट के लड़ाकों पर तब तक सीधे कार्रवाई नहीं करते जबतक कि वे किसी हिंसक संघर्ष की वजह न बन रहे हों.
पिछले साल भारत सरकार के साथ समझौते के बाद 14 अगस्त को हेब्रॉन में एनएससीन-आईएम ने ‘नगालिम’ का स्वतंत्रता दिवस मनाया था. इस दिन फिर से नगालैंड में जगह-जगह नगालिम के झंडे फहराए गए. तब कहा जा रहा था कि यह नगालिम का अंतिम स्वतंत्रता दिवस हो सकता है क्योंकि इसके बाद जल्दी ही शांति समझौता अंतिम रूप ले लेगा. फिलहाल एक साल के बाद भी इस दिशा में दोनों पक्षों के बीच मतभेद दिखाई दे रहे हैं और पूरी संभावना है कि इसबार फिर 14 अगस्त को हेब्रॉन में नगालिम का झंडा फहराया जाए.
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