6/26/2016

‘मुताह एक तरह की कानूनी वेश्यावृत्ति है, जिस पर मुस्लिम समुदाय को बात करने में भी शर्म आती है…’

औरत जात को बचपन से इतना डराया जाता है कि अगर वह शरीयत और मौलवी के खिलाफ जाती है तो ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा. जबकि कुरान खुद सबसे पहले यह कहता है कि तुम खुद पढ़ो और समझो. लेकिन वहां तक बात पहुंचती ही नहीं है. मौलवियों ने व्याख्या करने की बात अपने हक में कर ली है.

तीन तलाक के खिलाफ अभियान से मुस्लिम समुदाय के लोगों या मौलवियों को आहत नहीं होना चाहिए क्योंकि जिस तरह से आज के दौर में तीन तलाक हो रहा है, वह पूरी तरह इस्लाम के खिलाफ है. इससे इस्लाम के जो पांच सिद्धांत हैं, जो हिदायत है, उसमें कोई तब्दीली नहीं होती. जो चीज थोड़ी-सी बदल रही है, वह शरीयत है. अब शरीयत बाद की चीज है, कुरान के डेढ़ सौ साल बाद की. उसका मकसद यही है कि कुरान को समझने और विश्लेषण करने में मदद करे. आज भी हम लोग कुरान को विश्लेषण कर सकते हैं कि आज के दौर में क्या जरूरी है. इस मामले में तो कुरान में बिल्कुल साफ निर्देश हैं कि तीनों तलाक के बीच में एक महीना दस दिन, एक महीना दस दिन का गैप होना चाहिए. तो इसमें समाज को आहत होने या तीन तलाक का बचाव करने की कोई गुंजाइश ही नजर नहीं आती.

एक चीज इसमें और जोड़ना चाहती हूं. इसके बिना ये मांग अधूरी है. मेरे ख्याल से इस मांग में ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि औरत को भी उतनी ही आसानी हो खुला लेने में, जितना कि मर्द को है. औरत भी तीन बार ये कह सके और तलाक हो जाए. क्योंकि औरत अगर खुला मांगती है तो अंतत: देता मर्द ही है. अगर वह नहीं चाहे तो उसे मनाना पड़ता है किसी बुजुर्ग से, दोस्त से, या समाज से दबाव डलवाना पड़ता है या कुछ संपत्ति वगैरह देकर मनाना पड़ता है. बच्चों से मिलने का अधिकार छोड़ना पड़ता है या मेहर की रकम छोड़नी पड़ती है. इस तरह कुछ चीजें छोड़कर महिला को तलाक मिलता है. इस सबके बावजूद जो फाइनल प्रोनाउंसमेंट है तलाक का, वह पुरुष ही देता है. महिला सब कुछ दे दे, तब भी तलाक-तलाक-तलाक का घोषणा पुरुष ही करता है. तो मैं समझती हूं कि इसके बिना बात अधूरी रहेगी. इसे न छोड़ा जाए. इस मांग में ये चीज जोड़ी जानी चाहिए कि औरत भी अगर तीन महीने का वक्त लेकर तीन बार तलाक कह दे तो उसे तलाक मान लिया जाना चाहिए.

औरत के खुला मांगने के मामले शायद ही कभी सुनने को मिलते हैं, क्योंकि उसमें वक्त बहुत लगता है. जब महिला को खुला लेना हो तो उसे एक से दूसरे मौलवी के पास जाना पड़ता है. कभी बरेलवी के पास, कभी दारुल उलूम के पास. वह मौलवी के पास जाती है तो वे हजारों वजहें पूछते हैं कि तुम क्यों खुला लेना चाहती हो. जबकि मर्द को कोई वजह नहीं देनी पड़ती. औरत वजह भी बताए तो उसे खारिज कर देते हैं कि ये वजह तो इस काबिल है ही नहीं कि तुम्हें खुला दिया जाए. इसमें आठ-साल दस साल लग जाते हैं.

मौलवी लोगों के फैसले ज्यादातर महिलाओं के खिलाफ इसलिए होते हैं क्योंकि वे मुख्य धर्मग्रंथ कुरान को मानते ही नहीं हैं. बुनियादी तौर पर यह लड़ाई तीन तलाक की लड़ाई नहीं है, यह कुरान शरीफ को आधार मानने की लड़ाई है. कुरान को मानने की जगह वह शरिया और क्या-क्या चलन है, ये सब बताया करते हैं. जैसे, जो निकाहनामा है उसमें ये लिखा होना चाहिए कि औरत भी अगर चाहे तो वह तलाक ले सकती है लेकिन उसे काट दिया जाता है. कहा जाता है कि निकाह के वक्त तलाक की बात करना अपशकुन है. वे असली कुरान कभी कोट ही नहीं करते.

मेरे पास जो भी है वह अल्लाह का दिया हुआ है. अगर अल्लाह की ये ख्वाहिश होती कि मैं इसे छिपाकर रखूं तो वे उसका कुछ कुछ इंतजाम करते. मुझे सिर से अपना पूरा चेहरा ढककर रखने की क्यों जरूरत है? बुरके से ढकी हुई औरतें घर में भी कहां सुरक्षित हैं? वे कौन लोग हैं जो इस तरह के लिबास या रहन-सहन को ही इज्जत की नजर से देखते हैं?

मेरे पास जो भी है वह अल्लाह का दिया हुआ है. अगर अल्लाह की ये ख्वाहिश होती कि मैं इसे छिपाकर रखूं तो वे उसका कुछ न कुछ इंतजाम करते. मुझे सिर से अपना पूरा चेहरा ढककर रखने की क्यों जरूरत है? बुरके से ढकी हुई औरतें घर में भी कहां सुरक्षित हैं? वे कौन लोग हैं जो इस तरह के लिबास या रहन-सहन को ही इज्जत की नजर से देखते हैं?

औरत जात को बचपन से इतना डराया जाता है कि अगर वह शरीयत और मौलवी के खिलाफ जाती है तो ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा. जबकि कुरान खुद सबसे पहले यह कहता है कि तुम खुद पढ़ो और समझो. लेकिन वहां तक बात पहुंचती ही नहीं है. मौलवियों ने व्याख्या करने की बात अपने हक में कर ली है. ईरान में एक बेचारी कुर्रतुल ऐन ने दावा किया था कि कुरान में लिखा है कि आखिरी नबी हजरत मुहम्मद होंगे लेकिन मैं तो नादिया (महिला नबी) हूं. उसके बारे में तो कुरान कोई बात कहता नहीं है इसलिए नादिया तो हो ही सकती है. लेकिन उस बेचारी को तो मार दिया गया.

अभी मैंने अपनी किताब ‘डिनाइड बाइ अल्लाह’ लिखी तो तलाक, हलाला, खुला, मुताह आदि पर सच्ची कहानियों के सहारे तमाम सारे सवाल उठाए कि कुरान क्या कहता है, शरीयत क्या कहती है, संविधान क्या कहता है और हो क्या रहा है, तो उस पर फतवा जारी हो गया कि ये तो मुसलमान हैं ही नहीं. इन्हें ये सब कहने का कोई हक नहीं है. हमारा तो कहना है कि हम मुसलमान हैं या नहीं हैं, लेकिन हमारे साथ जो हो रहा है उस पर हम क्यों टिप्पणी नहीं कर सकते. जब रूपकंवर को जलाया गया और उसे सती का नाम दिया गया, हम हर विरोध और हर जुलूस में शामिल थे. इस तरह अगर कोई हिंदू या ईसाई भी है तो वह क्यों नहीं बोल सकता?

तलाक तो एक अहम मुद्दा है कि जल्दबाजी में किसी ने तलाक दे दिया और उसे भी अलगाव मान लिया गया, लेकिन एक और मुद्दा जो इससे जुड़ा है, वो है हलाला. इसमें ये व्यवस्था है कि मर्द ने जल्दबाजी में तलाक दे दिया, अब वह पछता रहा है, अपना फैसला वापस लेना चाहता है तो वह ऐसा कर नहीं सकता. उस औरत की पहले किसी और से शादी हो और वह अमल में लाई जाए. फिर या तो उसका तलाक हो या वह मियां मर जाए, तब पहला शौहर उससे शादी कर सकता है. ये प्रथा बीते कुछ सालों में बहुत ज्यादा बढ़ गई है. एक बार तलाक हो गया और फिर मियां-बीवी चाहें तो भी उनके पास सूरत नहीं है, सिवाय एक प्रताड़ना भरी प्रक्रिया से गुजरने के. औरतों की वह प्रताड़ना जब बढ़ी है तो औरतें एक होकर आगे आ रही हैं. वे चाहती नहीं कि हड़बड़ी में तलाक हो जिसे सुधारने के लिए हलाला झेलना पड़ता है. ये बहुत शर्मनाक है कि अपने पति के पास ही वापस जाने के लिए एक रात किसी और मर्द के साथ रहें. इस पर बात होनी चाहिए. मुस्लिम महिलाओं की मानसिक बुनावट ऐसी है कि वे जल्दी आवाज नहीं उठातीं. अब सूरत ऐसी बन गई है कि पचास-साठ हजार पढ़ी-लिखी महिलाएं इकट्ठा होकर विरोध में आगे आ रही हैं.

दूसरी एक प्रथा है मुताह. वह एक तरह का फौरी विवाह है. उसके दिन तय होते हैं कि वह दस दिन, सौ दिन या कुछ निर्धारित दिन का हो सकता है. हालांकि, इसके ऐतिहासिक संदर्भ पर मुझे शक है लेकिन माना जाता है कि जब फौजें चलती थीं तो जहां फतह मिलती थी, सैनिक वहां की औरतों से बलात्कार करते थे. अगर बच्चे हो जाते थे तो वे नाजायज कहे जाते थे. इसलिए फौरी विवाह का सिस्टम बनाया गया. इसमें जितने दिन का करार होगा, उसके बाद वह खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा. हाल में कई मामले ऐसे सामने आए हैं कि खाड़ी देशों से महीने-दो महीने के लिए मर्द वापस आते हैं तो उनको वक्त बिताने के लिए कोई चाहिए. जिम्मेदारी भी नहीं निभानी है. दूसरे उनको इस्लाम का भी डर है कि जन्नत मिलेगी कि नहीं मिलेगी. मजा भी करना है. तो वे यहां आकर इस तरह की फौरी शादियां करते हैं. इसमें तो एक बार कोई लड़की फंस गई तो उसकी शादी कभी नहीं होती. फिर उसे मुताही बोलते हैं. जैसे-जैसे उसकी जवानी ढलती है, उसके पैसे घटते जाते हैं. यहां तक होता है कि कई औरतों को सिर्फ खाने-कपड़े पर रखा जाता है, उनका यौन उत्पीड़न किया जाता है और वे घर का काम भी करती हैं. यह एक तरह की कानूनी वेश्यावृत्ति है. इसमें मौलवी भी खबर रखते हैं कि किसके घर की लड़की सयानी हो गई है और किसके घर का लड़का लौटने वाला है. वे इसमें बिचौलिये की भूमिका निभाते हैं. अब ये सब मसले कभी नहीं उठते कि मुस्लिम समुदाय को भी इस पर बात करने में शर्म आती है. इसे सिर्फ महिलाएं झेलती हैं.

तलाक के साथ एक अहम मुद्दा है हलाला. इसमें ये है कि मर्द ने जल्दबाजी में तलाक दे दिया, अब वह अपना फैसला वापस लेना चाहता है तो वह ऐसा कर नहीं सकता. उस औरत की पहले किसी और से शादी हो और वह अमल में लाई जाए. फिर या तो उसका तलाक हो या वह मियां मर जाए, तब पहला शौहर उससे शादी कर सकता है. ये बहुत शर्मनाक है.

दूसरी बात ये है कि तलाक के अलावा जितनी रूढ़ियां हैं पर्दा वगैरह, इनको कभी तार्किक ढंग से चुनौती नहीं दी गई. आप सीधे-सीधे बहस में उतरिए, बातचीत कीजिए. मैं कहती हूं कि मेरे पास जो भी है वह अल्लाह का दिया हुआ है. अब उसको देखते हुए मेरा चेहरा तो अल्लाह ने दिया है. तो अगर अल्लाह की ये ख्वाहिश होती कि मैं इसे छिपा कर रखूं तो वे उसका कुछ न कुछ इंतजाम करते. मुझे सिर से अपना पूरा चेहरा ढंककर रखने की क्यों जरूरत है? ये सब बेकार की बातें हैं कि औरत घर में रहेगी तो सुरक्षित रहेगी, खुद को ढंककर रखेगी तो सुरक्षित रहेगी. बुरके से ढंकी हुई औरतें घर में भी कहां सुरक्षित हैं? हमारे समाज में मर्द कहता है कि तुम ऐसे रहो तो सुरक्षित हो. औरतों में आत्मविश्वास की कमी है, इसलिए वे भी मान लेती हैं कि हम इसी तरह सुरक्षित हैं. वे सोचती हैं कि जैसा कहा जा रहा है, वे वैसे ही रहेंगी तो उनको इज्जत की नजर से देखा जाएगा. वे कौन लोग हैं जो इस तरह के लिबास या रहन-सहन को ही इज्जत की नजर से देखते हैं? उनकी सोच और उनकी मानसिक बनावट पर कभी बात नहीं होती जो कहते हैं कि उसका मुंह खुला था, पहुंचा ऊंचा था या बाजू खुली थी, इसलिए उसे छेड़ा गया.

दो बातें मुसलमान औरतों के पक्ष में जाती हैं. वे बाकी समुदायों की औरतों के बराबर में रह रही हैं. आज उसके पास सब अधिकार हैं. संविधान हमें बराबरी देता है. जो हक हिंदू औरत को है, वही हक मुसलमान औरत को भी है और उसे यह मिलना चाहिए. हम अपनी लड़ाई इस्लाम के नजरिये से न लड़कर इस्लाम और संविधान दोनों के मद्देनजर लड़ेंगे. और संविधान कहीं भी कुरान के आड़े नहीं आ रहा है. वह कहीं से भी खतरे में नहीं आ रहा है.

आंबेडकर से किसी ने पूछा था कि पर्सनल लॉ का अलग से प्रावधान क्यों रखा गया है, क्या सभी के लिए एक-समान कानून अच्छा नहीं होगा? उसके जवाब में उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें कहा कि समान नागरिक संहिता इतनी बेहतरीन चीज है कि समुदाय भी कुछ समय बाद इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि हमें समान नागरिक संहिता को अपनाना चाहिए, न कि पर्सनल लॉ को अपनाना चाहिए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अब वजह जो भी रही हो. कम से कम मुसलमानों में तो बिल्कुल नहीं हुआ. अब काफी सारी चीजें आज के दौर में देखते हैं कि काफी कुछ बदलाव शुरू हो गया था. उसे तगड़ा झटका लगा 1986 में, जब शाहबानो के केस को पलट दिया गया. उससे हम लोगों को बहुत नुकसान हुआ.

दो चीजें एक साथ हुईं. इधर शाहबानो के केस को पलट दिया गया. उधर पाकिस्तानी तानाशाह जियाउल हक ने 1981-82 में हुदूद कानून लागू किया. उसके तहत बहुत सारी ऐसी चीजें पाकिस्तान में हुईं जो औरतों के खिलाफ गईं. इससे यहां के मौलवियों को यह कहने का मौका मिला कि देखो पाकिस्तान में शरीयत मान ली गई है और तुम लोग नहीं मान रहे हो. शाहबानो का केस उसी का नतीजा था. जबकि आप नंदिता हक्सर की किताब पढ़िए तो सारी मुसलमान औरतें शाहबानो के पक्ष में खड़ी थीं कि उसे उसका हक मिलना चाहिए.

देखिए, धर्मगुरु किसी भी धर्म का हो, वह मौका लपकने की फिराक में रहता है. शाहबानो के समय का मौका भी मौलवियों ने लपक लिया. उस समय के मंत्री थे जेडआर अंसारी. उन्होंने धमकी दी कि मैं संसद के सामने आग लगा लूंगा तो सारे मर्द घबरा गए कि नहीं-नहीं, कुछ भी हो जाए लेकिन मर्द किसी कम्युनिटी का नहीं जलना चाहिए. औरतें दहेज के लिए या दूसरी वजहों से जलाई जाएं तो जलें. लेकिन मर्द नहीं जलना चाहिए. मौलवी लोग कहते हैं कि मुसलमान के मसले पर सिर्फ मुसलमान बोलें. शाहबानो के केस को कोर्ट में जस्टिस चंद्रचूड़ हेड कर रहे थे. वे जज हैं, इस्लामिक लॉ पर डिग्री है, लेकिन आप कहेंगे कि नहीं, वे हिंदू हैं इसलिए वे अथॉरिटी नहीं हैं. इससे काम नहीं चलेगा. बात-बहस से कोई रास्ता निकलेगा.

लेखिका
नूर ज़हीर
सौजन्य से
तहलका डॉट कॉम

सबसे ज्यादा गालियां औरतों को लेकर क्यों बनीं?

भारतीय गाली ‘भों**डी के’ का कोई यूरोपीय संस्करण नहीं है. बंगाल में किसी को ‘चूतिया’ कहने पर आपकी पिटाई हो सकती है. ध्यान दीजिये कि असम की एक जनजाति भी इसी नाम से है.

संदीप सिंह. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और जेएनयू से पढ़ाई. स्टूडेंट पॉलिटिक्स का देश का चर्चित नाम. जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे. फिर आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी. सिनेमा, साहित्य, सामाजिक आंदोलनों पर लगातार लिखते बोलते रहे. आज आप उनका गालियों पर लिखा आर्टिकल पढ़िए और जानिए ये गालियां कहां से कब और क्यों आईं…

कभी सोचा है कि लोग गाली क्यों देते हैं?
कोई कह सकता है कि ‘सभ्य’ लोग गाली नहीं देते! पर ऐसा नहीं है. दुनिया में शायद कोई ऐसा नहीं है जो गाली न देता हो या जिसने कभी गाली न दी हो. आदमी और औरत, बच्चे-बूढ़े, प्रोफ़ेसर और साधु-महात्मा, नेता-अभिनेता, अमीर-गरीब, विद्वान-मूर्ख, हिन्दू, मुसलमान, सिख-ईसाई सब गाली देते हैं. दुनिया में गाली देने का चलन कब शुरू हुआ? दुनिया की सबसे बुरी गाली क्या है? क्या सारी दुनिया में एक जैसी गालियां होती हैं? अगर दुनिया के समाजों का विकास अलग-अलग हुआ तो हमारी गालियों में इतनी समानता कैसे आ गई?

सबसे ज्यादा गालियां औरतों को लेकर क्यों बनीं?
क्या सब समाजों में औरतों को लेकर गालियां थीं? गालियों की शुरुआत का इतिहास क्या है और कैसे इनके अर्थ बदलते गए? अलग-अलग समाजों और संस्कृतियों में गालियों का विभाजन कैसे हुआ है? क्या गुण-धर्म के मुताबिक, हम गालियों का बंटवारा कर सकते हैं? एक औरत होने के नाते औरतों पर बनी गालियां आपको कैसे लगती हैं? एक पुरुष होने के नाते औरतों पर बनी गालियां आपको कैसी लगती हैं?

इतिहासकार सुसन ब्राउनमिलर ने बलात्कार के इतिहास पर एक किताब लिखी है, ‘Against Our Will: Men, Women And Rape’. उनका कहना है बलात्कार की शुरुआत प्रागैतिहासिक काल में हुई. जीवविज्ञानियों के अध्ययनों की चर्चा करते हुए वे बताती हैं कि अपने प्राकृतिक वातावरण में कोई पशु (animal) बलात्कार नहीं करता. पर इंसानों में मर्दों के रेप करने की क्षमता शरीर विज्ञान का मूलाधार है. क्योंकि यह पुरुषों और औरतों की लैंगिक बनावट से जुड़ी है, जहां औरतों की बनावट कमजोर है. किसी भी कारण अगर उनकी मौजूदा शारीरिक, जीववैज्ञानिक बनावट कुछ और होती (जहां दोनों के यौन अंगों को आपस में एक खास तरीके से जुड़ना न पड़ता) तो कहानी कुछ और ही हो जाती. आग और पत्थर के हथियारों की खोज के साथ-साथ, प्रागैतिहासिक मनुष्य की यह जानकारी कि उसके अंग डर पैदा करने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल किए जा सकते हैं, उसकी सबसे बड़ी खोज थी.

वैसे पशुओं में भी जननांग होते हैं पर वे गाली का इस्तेमाल नहीं करते या कम से कम हम उन्हें नहीं जानते.
जब मर्दों को पता चला कि वे बलात्कार कर सकते हैं तो वे इसके साथ आगे बढे. बहुत-बहुत बाद में, खास हालात के चलते वे रेप को अपराध मानने के लिए तैयार हुए. संभवतः यहीं से गालियों और अपमानसूचक शब्दों की भी शुरुआत हुई हो. गाली देकर हम किसी का अपमान करते हैं, अपना गुस्सा/खीझ उतारते हैं या मजाक उड़ाते हैं. आमतौर से ये सारे गुण, जैसे सम्मान, गुस्सा या मजाक मर्दों के ‘अधिकार’ माने जाते हैं. ऐसे में गाली अक्सर मर्दों की चीज बन जाती है. इसीलिए ज्यादातर गालियां मर्दों के अपमान/नुकसान को केन्द्रित कर बनी हैं. भले ही ऐसा करने में औरतों के शरीर या जानवरों की उपमाओं का इस्तेमाल किया जाता हो.

‘किसी समाज में प्रचलित गालियां ये बताती हैं कि सबसे बुरा अपमान कैसे हो सकता है. सामाजिक व्यवहार की सीमा क्या है’. इनमें छुपी हुई लैंगिक हिंसा यह दिखाती है कि कैसे हम किसी को नीचा दिखा सकते हैं. औरत का शरीर ही इन गालियों का केंद्र होता है. इसी कारण युद्ध या सांप्रदायिक दंगों में सबसे पहले महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. हालांकि कई शोध यह दावा करते हैं कि हर सन्दर्भ में गाली का मकसद एक जैसा अपमानजनक नहीं होता.

मनोविश्लेषक और इतिहासकार सुधीर कक्कर मानते हैं कि भारतीय और यूरोपीय गालियों में फर्क है. जहाँ भारतीय सगे-संबंधी के साथ यौन-सम्बन्ध को सबसे बुरा समझते हैं वहीं यूरोपीय मल/टट्टी से जुड़ी गालियों को सबसे बुरा समझते हैं! उदाहरण के लिए बहन के नाम पर दी जाने वाली सबसे ज्यादा ‘लोकप्रिय’ भारतीय गाली का कोई यूरोपीय संस्करण है ही नहीं. हां, मां के नाम पर गाली वहां भी है. पर मां की योनि से पैदा होने को लेकर ‘प्रचलित’ भारतीय गाली ‘भो**डी के’ का कोई यूरोपीय संस्करण नहीं है. फ़र्ज़ कीजिये कि मां के नाम पर दी जाने वाली का पहला शब्द ‘मादर’ एक फारसी शब्द है. हम कहते भी हैं, मादर-ए-हिन्द या मादर-ए-वतन. इस गाली का अगला शब्द संभवतः हिन्दुस्तानी शब्द ‘छेद’ से आता है.

इतिहासकार Melisaa Mohr अपनी किताब ‘HOLY S**T: A Brief History of Swearing’ में बहुत रोचक ढंग से ब्रिटिश समाज के विभिन्न अपशब्दों/गालियों की यात्रा, उनसे जुड़े पूर्वाग्रह, प्रयोग के तरीके और बदलते अर्थ और समाज में स्वीकार्यता के इतिहास को तलाशती हैं. कितना दिलचस्प है कि ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के पहले संस्करण में ‘F**k’ शब्द मिलता ही नहीं है क्योंकि वे इसे बुरा शब्द मानते थे. लिखित अंग्रेजी साहित्य में पहली बार इस शब्द का खुला इस्तेमाल कवि सर डेविड लिंडेसी ने सन् 1535 में किया. दूसरे पॉपुलर शब्दों का भी कमोबेश ऐसा ही इतिहास है. वे बताती हैं कि कैसे पिछली सदी की शुरुआत तक ब्रिटेन के कुलीनों में ‘Bloody’ बहुत ही बुरा शब्द माना जाता था. 1914 में जब जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटक ‘प्यग्मलिओन’ (Pygmalion) में एक पात्र इस शब्द का इस्तेमाल करता है तो लंदन के ‘सभ्य-समूह’ इसका विरोध करते हैं और ब्रिटिश समाज में एक छोटा-मोटा ‘स्कैंडल’ मच जाता है. साथ ही वो ये भी बताती हैं कि कैसे ‘F**K’ शब्द के कई अर्थ 18वीं-19वीं सदी तक आते-आते सर्वव्यापी हो गए. B. Murphy (2009) के अध्ययन ‘She’s a Fucking Ticket’ में इसका विस्तार से वर्णन है. भारत की गालियों और उनमें लैंगिक विभाजन का अच्छा अध्ययन समाज-भाषाविज्ञानी हंसिका कपूर ने भी किया है.

भारतीय साहित्य और गाली
आपने कभी गौर किया है कि हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ और महाकाव्यों में गाली का एक शब्द भी नहीं है. महाभारत में इतनी मारकाट और रक्तपात है पर कोई किसी को गाली नहीं देता. जबकि इतना तो तय है कि जन-जीवन में गालियां जरूर रही होंगी. यहां तक कि ग्रीक गंथ्रों, जैसे होमर के महाकाव्य ‘इलियड और ओडिसी’ में भी गाली नहीं मिलती. कालिदास जैसे महान कवि नायिका के अंग-अंग का मादक वर्णन तो करते हैं पर किसी गाली का कोई सन्दर्भ नहीं देते. कुछ अपशब्द जरूर थे. ध्यान दीजिये कि अपशब्द पुल्लिंग है जबकि गाली स्त्रीलिंग शब्द है. प्राचीन भारतीय-संहिता मनुस्मृति जो शरीर के अंग-विशेषों का नाम लेकर अपराधों की सजा मुकर्रर करती है वह भी किसी गाली का नाम नहीं लेती. भारतीय साहित्य में अगर बुरी गाली/अपशब्द मिलते हैं तो वह पिछड़ी जातियों और औरतों को लेकर ही मिलते हैं.

‘हरामी’ अरबी भाषा का शब्द है जो अब उतना ही भारतीय भी है. पर प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है. इसका कारण क्या है? यह जानना है तो प्रकांड संस्कृत विद्वान और महान भारतीय इतिहासकार काशीनाथ राजनाथ राजवाड़े की किताब ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ पढ़िए. संस्कृत साहित्य में ‘दास्यपुत्र’ (दासी का पुत्र, क्योंकि पिता ज्ञात नहीं है), ‘गुरुपत्नीगामी’ (गुरु की पत्नी से सम्भोग करने वाला) इत्यादि मिलते हैं पर उनका चित्रण गाली के रूप में नहीं हुआ है.

यह दिलचस्प है कि अलग-अलग संस्कृतियों में बुरी गालियों का मापदंड अलग-अलग है. किन्हीं समाजों में सगे-सम्बन्धियों के साथ यौन-संपर्क को सबसे बुरी गाली (मां, बहन से जुड़ी गालियां) माना जाता है तो किन्हीं समाजों में शरीर के खास अंगों/उत्पादों से तुलना (अंगविशेष या मल आदि के नाम पर दी जाने वाली गालियां) को बहुत बुरा माना जाता है. कुछ समाजों में जानवरों या कीड़े-मकोड़ों से तुलना सबसे बुरी मानी जाती है तो कुछ समाजों में नस्ल और जाति से जुड़ी गालियां सुनने वाले के शरीर में आग लगा देती है. हां, लिंग से जुड़ी गालियां अमूमन हर जगह पाई जाती हैं.

गालियों का भी लिंग होता है. मसलन पुर्तगाली और स्पैनिश की गालियां हैं- ‘वाका’ और ‘ज़ोर्रा’. जिसका मतलब लोमड़ी और गाय होता है. जब किसी महिला को ये गालियां दी जाती हैं तो इसका मतलब ‘ख़राब चरित्र की महिला’ होता है. पर जब यही गालियां पुरुषों को दी जाती है तो इसका अर्थ ‘चालाक’ और ‘ताकतवर सांड’ हो जाता है. यह लिंग विभाजन ज्यादातर हर भाषा-संस्कृति में है.

बंगाल में किसी को ‘चूतिया’ कहने पर आपकी पिटाई हो सकती है. ध्यान दीजिये कि असम की एक जनजाति भी इसी नाम से है. यह एक अलग विषय है कि कैसे इस जाति-विशेष के नाम से गाली बनी. इस समुदाय की अपनी भाषा में ‘चूतिया’ का अर्थ ‘वैभव’ होता है. शायद ऐसा असम पर बंगाल के लम्बे शासन के चलते हुआ हो. बंगाल में ही, खास सन्दर्भ में किसी को ‘सुअरेर बाच्चा’ कहना बहुत अपमानजनक माना जाता है.

तुर्की, ईरान से लेकर सेंट्रल एशिया फिर आगे चलकर भारत में भी मां-बहन के साथ यौन-सम्बन्ध को बहुत बुरी गाली माना जाता है क्योंकि इन समाजों में सगे के साथ यौन-सम्बन्ध भीषणतम अपराध था. पर पूर्वीं एशियाई देशों में मामला कुछ दूसरा है. मसलन, चीन के लोग ‘कछुआ’ को बहुत बुरी गाली मानते हैं और थाईलैंड में किसी को ‘हिय्या’ (मोनिटर लिजार्ड) कहना आपको खतरे में डाल सकता है. अफ्रीकन महाद्वीप मेडागास्कर में ‘डोंद्रोना’ (कुत्ता) और ‘अम्बोआ राजाना’ (कुत्ते का बच्चा) सबसे बेइज्जती वाली गाली मानी जाती है.

यही मामला इंडोनेशियन द्वीप जावा का भी है जहां ‘आसु’ (कुत्ता) और ‘अनक कम्पांग’ (सड़क का बच्चा) सबसे मारक गाली है. उत्तरी इंडोनेशिया में सबसे बुरी गाली ‘ताई लोसो’ (गंदी टट्टी) है. तो मलय और उत्तरी सुमेत्रा में पुकिमाई. ताइवान में महिलाओं को लेकर बहुत गालियां हैं जहाँ ‘फुआ बा’ (बर्बाद रंडी) और मॉडर्न महिलाओं को इंटरनेट पर ‘मुज्हू’ (मादा सुअर) नाम से गाली दी जाती है. नेपाल के काठमांडू शहर के मूल निवासियों में बोली जाने वाली नेवारी भाषाभाषी समाज में ‘खिच्यु व्ह्हत’ (कुत्ते का पति) को बहुत बुरा माना जाता है. कुछ जगहों पर कुछ अंक बहुत बुरे या मजाकिया माने जाते हैं जैसे चीन 2 का अंक बहुत असम्मानित माना जाता है.

यूरोप और अमेरिका में काले लोगों के लिए प्रयुक्त ‘नीग्रो’, ‘सेवेज’, स्पेनिश में ‘मुलाटो’, हिन्दी/उर्दू में ‘हब्शी’ गालियां हैं. भारतीय तमिलों में किसी को ‘मोन्ना नाए’ (लंठ कुत्ता) या ‘पारापुंडा नुआने (भिखारी के कुत्ते का बच्चा) कहना बहुत ही अपमानजनक है. जोर्जिया और रूस में समलैंगिकों को ‘गाटामी’ (मुर्गा) और पिदारस्ती (गन्दा गांडू) नाम से गालियां दी जाती हैं. कश्मीर में ‘खंजीर’ (सुअर), ‘चोतुल’ (गांडू) और काले लोगों को ‘बोम्बुर’ (दतैय्या) बुरी गालियां मानी जाती हैं. भारतीय समाज में भी खासकर पिछड़ी जातियों के नाम पर दी जाने वाली अपमानसूचक गालियों की सूची बहुत लम्बी है. उसी तरह मुसलमानों को लेकर भी प्रचलित कई गालियाँ हैं जिन्हें आप अक्सर दक्षिणपंथी नेताओं के भाषणों या लेखों में पढ़ सकते हैं.

झारखण्ड के मुंडा आदिवासियों की गालियां बाकी सब से एकदम अलग हैं. ‘कुलाः जोमई’ (शेर खा जाय), ‘उदरई करेदो’ (जानवर कहीं का), ‘कोय केरेदो’ (भिखारी कहीं का), ‘कुडडी मुहा’ (महिला है), ‘हाड़ी गडसी’ (कुत्ता है), ‘बाजीकार’/’गुलगुलिया’ (असभ्य, धोकेबाज) जैसी गालियाँ एक अलग ही समाज की तरफ इशारा करती हैं. साथ ही यह भी बताती हैं कि गालियों के निर्माण में जलवायु, वातावरण एवं जीवन-पद्धति का कितना बड़ा हाथ होता है.

मोटे तौर पर गालियों को पांच परिवारों में विभक्त कर सकते हैं. पहला सगे-सम्बन्धियों से यौन-सम्बन्ध को लेकर बनने वाली, दूसरा, शरीर के अंग-विशेष को केन्द्रित कर दी जानी वाली गालियाँ (ये पश्चिम में ज्यादा प्रचलित हैं जैसे asshole, dick, cunt, prick इत्यादि), तीसरा, जानवरों को सामने रखकर दी जाने वाली, चौथा, जाति या नस्ल के नाम पर दी जाने वाली और पांचवां, लिंग के आधार पर बनने वाली. फुटकर गालियों के रूप में संख्याओं, फूलों, पेड़ों के नाम पर बनने वाली गालियों का एक छोटा उप-परिवार भी हो सकता है.

एक आदर्श समाज में गाली के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, पर हम जानते हैं ऐसा सिर्फ कल्पनाओं में होता है. लोग एक-दूसरे को जलील करने के तरीके खोज ही लेते हैं और हमेशा करते रहेंगे. इसमें शायद किया ये जा सकता है कि आजकल की संवेदनशीलता और नीतियों, नैतिकताओं व संस्कृति से तालमेल बिठाते हुए अपना गालियों का सॉफ्टवेयर बदल लें. देखा जाय तो गालियों की अब तक की दास्तान असल में लैंगिक, जातीय और सामुदायिक उत्पीड़न का भी इतिहास है. मानव-शरीर के अंगों व उनसे जुड़ी प्रक्रियाओं की कूड़ा-कर्कट और गन्दगी से तुलना हो या मासूम जानवरों के नाम पर (दुनिया में पशुप्रेमी बहुत हैं) बनने वाली गालियां हों, अब बदलाव का वक़्त आ चुका है.

उदाहरण के लिए bullshit या shit जो सामान्यतः गाली के लिए इस्तेमाल होता है, दरअसल प्राकृतिक तरीके से सड़नशील, पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा और organic उत्पाद है. हां, प्लास्टिक शब्द का गाली की तरह इस्तेमाल हो सकता है. “चल बे प्लास्टिक”. कैसा रहेगा? यह हमारे समय के हिसाब से ईको-फ्रेंडली भी रहेगा और जो हमें नापसंद हैं उनके लिए- ‘चल बे प्लास्टिक की बाटली’!! उसी तरह से ‘बेंजीन की बू’, और ‘पोलीथीन चिरकुट’ कैसा रहेगा? किसी का ज्यादा अपमान करने के लिए उसे ‘न्यूक्लियर’ भी कहा जा सकता है. किसी को अपमानित ही करना है तो राजनीतिक गालियां भी ईजाद की जा सकती हैं. उदाहरण के लिए ‘कांग्रेसी’ या ‘चड्ढीवाला’. सोशल मीडिया पर भी ‘सिकुलर’, ‘आपटार्ड’ या ‘भक्त’ जैसे अपमानसूचक शब्द आए हैं. कम्युनिस्टों के लिए ‘पेटी बुर्जुआ’ बहुत बड़ी गाली है.

परिवार के सदस्यों को लेकर बनी गलियों के पीछे धारणा यह थी कि जिन लोगों से आपका गहरा लगाव है उन्हें गाली देने से आपको चोट पहुंचेगी. पर आज कल जिस तरह परिवार के सदस्यों से प्यार करने की बजाय लोग अपने बैंक खातों, कारों, महंगे मोबाइल फोनों, जूतों-कपड़ों से ज्यादा प्यार करने लगे हों तो यह कहना कैसा रहेगा, ‘तेरी iPhone की तो’, या ‘तेरी ऑडी की’ या ‘तेरी स्कोडा की’…’बजा दूंगा’.
नई-नई रचनात्मक, ईको-फ्रेंडली, राजनीतिक रूप से अच्छी गालियों के खजाने को आपकी जरूरत है. इससे भाषा भी सबल होगी. लग जाइए!