दोस्तों आने वाले समय में भंयकर मंदी के दौर के लिए तैयार रहें। क्योंकि कालेधन से बनी अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने के दूरगामी परिणाम होने वाले हैं।
जब तक नगदी जमा करने और उसके इस्तेमाल के रास्ते खुले रहेंगे, काले धन पर वास्तविक रूप से अंकुश लग पाने की संभावना कम है।
यह याद करना होगा कि वर्ष 1978 में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा उठाए गए इसी तरह के कदम से कोई खास लाभ नहीं मिल पाया था। लगभग 40 साल बीत चुके हैं, और आज हमारी व्यवस्था में संभवतः पुराने समय की तुलना में ज़्यादा काला धन है. अगर कुछ बदला है, तो वह नगदी जमा करने के तरीके और वजहें।
अब हमारे पास भले ही 100 प्रतिशत का असामान्य टैक्स स्लैब नहीं है, जो '70 के दशक में हुआ करता था, लेकिन अब हमारे पास पूरी तरह विकसित हो चुकी नगदी की अर्थव्यवस्था है, जिसके बिना ज़मीन-जायदाद खरीदना तो असंभव ही हो जाएगा।
राजनैतिक दल चुनाव कैसे लड़ पाएंगे या हमारे देश के बाबू रिटायरमेंट के बाद के लाभ कैसे हासिल कर पाएंगे, अगर नोटों से भरे बोरों का अस्तित्व न हो...? और उन टैक्स कलेक्टरों की तो बात ही न करें, जिनकी 'सेवाओं' के बदले पांच से 10 फीसदी का रेट तय हो गया लगता है।
अब विमुद्रीकरण से 'काले धन' की इन तिजोरियों पर कड़ी चोट पड़ने वाली थी, अगर रातोंरात एक नया 'शानदार' उद्योग पैदा न हो गया होता - जिसके तहत 20 फीसदी की फीस लेकर पुराने नोटों के बदले नए नोट दिए जाने की पेशकश की जा रही है।
हम देश में मौजूद उस मनी-लॉन्डरिंग सेक्टर को भूल जाते हैं, जो अनगिनत गुमनाम शेल कंपनियों में छोटी-छोटी रकमें जमा रखता है, और मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुके इस सेक्टर को सरकार के इस फैसले की बदौलत एक बोनस हासिल हो गया है।
इस सच्चाई को सभी ने कबूल किया है कि यह एक साहसिक कदम है, लेकिन काले धन पर इसका कोई दूरगामी प्रभाव हो पाएगा, इसमें संदेह है।
नए नोटों के अच्छी तरह प्रचलन में आने तक आने वाले कुछ महीनों में कारोबार के काफी सिकुड़ जाने की आशंका है, सो, राज्य विधानसभा चुनावों से ऐन पहले ऐसा कदम उठाया जाना किसी भी राजनैतिक मानक से खतरनाक हो सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह खतरा सोच-समझकर, नाप-तौलकर उठाया गया है, जिसका एक मकसद विपक्षी पार्टियो के चुनावी फंड को तबाह कर देना भी है। बहरहाल, जब तक नगदी की मांग बनी रहेगी, और उसे इस्तेमाल किया जा सकेगा, इसका इस्तेमाल होता ही रहेगा।
...तो हम काले धन की 'उपज' को रोकने और रिश्वतखोरी पर लगाम लगाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं...?
हम निर्माण के क्षेत्र में ज़्यादा खर्च दिखाने और बड़े-बड़े व्यापारों में किए जाने वाले आयात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने पर ज़्यादा कड़े कदम क्यों नहीं उठाते, ताकि लाखों-करोड़ों रुपये विदेशों में छिपाए न रखें जा सकें।
अगर सरकार भारतीय बैंकों के नॉन-परफॉरमिंग एसेट (एनपीए) की जांच करे, और सचमुच फॉरेन्सिक सबूतों पर कार्रवाई करे, तो शायद ज़्यादा अहम नतीजे सामने आएंगे।
हमने ज़मीन-जायदाद के क्षेत्र में बोली लगाने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था की स्थापना क्यों नहीं की, जैसा पश्चिमी देशों में होता है, बल्कि हमने तो ग्राहकों को दलालों और बिचौलियों के रहमोकरम पर छोड़ा हुआ है।
नगदी के लेन-देन को खत्म कर देने की जगह हमने एक नियामक लाने का फैसला किया, जिसके आदेशों की पालना होने में सालों का वक्त लगना तय है, क्योंकि न्यायिक व्यवस्था पहले से ही ज़रूरत से ज़्यादा केसों के दबाव में है।
सोने तथा जेवरों के प्रति भारतीयों की दीवानगी से सारी दुनिया परिचित है, लेकिन आज तक हम उसके निर्माण तथा बिक्री की जांच के लिए बेहतर व्यवस्था नहीं बना पाए हैं।
अंत में, सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि उस पारदर्शी वातावरण में हमारी राजनैतिक व्यवस्था कैसे टिकी रह सकेगी, जहां वोट तो आम आदमी के नाम पर तैयार किए जाते हैं, लेकिन कंपनियों तथा लॉबियों से मिलने वाले राजनैतिक चंदे जिसके सिद्धांतों के खिलाफ हैं।