11/30/2016

भूल चूक लेनी देनी, अब मरहम की प्रतीक्षा


          इरादे नेक हो सकते हैं। लक्ष्य भी निश्चित रूप से सही हैं। काले धन, भ्रष्टाचार और सीमा पार से नकली नोट की घुसपैठ एवं आतंकवादियों की गतिविधियों के विरुद्ध संपूर्ण भारत एकमत है। प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के पुराने करेंसी नोट को तत्काल प्रभाव से अवैध करार देने का फैसला इन मुद्दों से जोड़ा है।

वहीं इस निर्णय को लागू करने में रही कमियों, गड़बड़ियों, गंभीर असुविधाओं, अमीर की अपेक्षा दैनन्दिन आजीविका कमाने वाले गरीबों की गंभीर वित्तीय समस्या अब तक सरकार को भी कुछ हद तक समझ में आ जानी चाहिए थी। जमीनी राजनीति करने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों से समस्याओं का अहसास हुआ होगा। प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा अध्यक्ष की पृष्ठभूमि गुजरात की है। गुजरात सहित विभिन्न प्रदेशों के बाजारों में एक पट्टी लिखी दिखाई पड़ती है- 'भूल-चूक लेनी देनी।’ प्रतिपक्ष भी जानता है कि नोटबंदी का ऐतिहासिक फैसला अब वापस नहीं हो सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोची समझी राजनीतिक रणनीति के तहत अपने कार्यकाल की आधी अवधि के बाद अपने लोकप्रिय चुनावी वायदे को पूरा करने के लिए यह तोप चलाई है। इस राजनीतिक-आर्थिक गोलाबारी ने सबको हिला दिया है। वहीं साधन संपन्न उद्यमी, व्यापारी, संस्थान, बैंक से जुड़े लोग तात्कालिक गुबार के बाद आर्थिक क्रांति की नई रोशनी की आशा संजोए हुए हैं। खासकर शहरी नई पीढ़ी का बड़ा वर्ग डिजिटल लेन-देन को पसंद करता है। सरकार कैशलेस अर्थव्यवस्था को यथाशीघ्र लागू करना चाहती है। वहीं बैंकों में निजी या व्यावसायिक लेन-देन बढ़ने एवं इस नोटबंदी से जमा विपुल राशि आने पर भाजपा सरकार कुछ विकास एवं कारोबारी के लिए नए महत्वपूर्ण वित्तीय घोषणाएं कर सकी है।

नए वित्तीय वर्ष (2017-18) के आम बजट में वित्तीय सुधारों, करों में राहत, जी. एस. टी. लागू करने के लाभ, उद्योग धंधों के लिए ब्याज दरों में कमी के प्रावधान की गुंजाइश बन सकती है। लेकिन यह स्मरण रखना होगा कि हर आंदोलन और क्रांति के बाद करोड़ों लोगों की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। चुनावी वायदों और उन पर आंशिक अमल के बाद भी सूखे गले की प्यास की तरह चाह बढ़ जाती है। भारत की जनता बहुत धैर्यवान है। यह 'आशा पर आकाश टिका है’ वाली स्थिति को गले उतारती रहती है।

नोटबंदी ने गली-मोहल्ले से लेकर राजमार्गों, छोटे-छोटे कल-कारखानों, दुकानों इत्यादि में काम करने वाले मजदूरों के लिए बड़ी संख्या में रोजी-रोटी का संकट पैदा कर दिया  है। उन्हें काम देने वाले लघु-मध्यम उद्यमियों के लिए भी तात्कालिक वित्तीय संकट और उलझन की स्थिति है। भारत सरकार के छठे आर्थिक सेंसेस (2013-14) के अनुसार देश में लगभग 5 करोड़ 80 लाख लघु निजी व्यापारिक संस्थान हैं, जिनमें करीब 13 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। पिछले दो वर्षों में इसमें वृद्धि की अनुमानित संख्या 15 से 17 करोड़ बताई जाती है। नोटबंदी से उनके दु:ख-दर्द की दास्तां सड़कों पर देखी-सुनी जा रही है। इस कष्ट के बावजूद लाखों भोले-भाले लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा रहे हैं। दूरदराज के गांवों-खेतों-खलिहानों में काम करने वालों को भी संघर्ष की आदत है। कभी प्रकृति से लड़ना होता है, कभी पुरानी सामाजिक कुरीतियों अथवा बदलती अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटना होता है। उन्हें तो छोटे-बड़े नोट और सिक्कों का हिसाब भी दूसरों से समझना पड़ता है। कभी इलाके के दबंग साहूकारों से मदद या ज्यादती झेलनी पड़ी, तो कभी सहकारी आंदोलन में उपजे कई नेताओं अथवा अधिकारियों द्वारा रिश्वतखोरी एवं धमकियों का सामना करना पड़ा। इसलिए भ्रष्टाचार से मुक्ति के हर अभियान में हिंदुस्तान का आम आदमी झंडा लिए खड़ा रहता है। लेकिन अब उसे जयकार के साथ सरकारी खजाने से बजट में अच्छी राहत की उम्मीद है।

जैसा भी हो काला या सफेद धन-अरबों रुपया बैंकों में आ गया है। जन-धन के खाते में तो उसने नाम मात्र की राशि जमा की। मतलब, वह भी अपनी मेहनत की कमाई थी। गरीब को गैस की सब्सिडी भी तभी मिल सकती है, जब उसके पास किसी मकान मालिक से किराए के कमरे का प्रमाण हो या अधिकृत कॉलोनी में काई कच्चा-पक्का मकान होने पर आधार कार्ड बना हो। बहरहाल, उसे मजदूरी बढ़ने, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और इलाज की अच्छी मुफ्त सुविधा, दुकान या कारोबार के लिए इंस्पेक्टर राज से मुक्ति और बैंक से कर्ज लेने पर ब्याज-दरों में कमी जैसी कामनाएं हैं। आप पूंजी निवेश अमेरिका, यूरोप, चीन, रूस या खाड़ी के देशों से लाएं, अधिकाधिक लोगों को रोजगार दिलवाने की व्यवस्था करवाएं। फिलहाल तो बेरोजगारी ही बढ़ती गई है। बैंक से कर्ज पर ब्याज दरों में कमी का दूसरा असर निम्न या मध्यम वर्ग द्वारा जमा की गई धनराशि पर मिलने वाले ब्याज की दरों में भी कटौती होगी। चिंता यही है कि बैंकों की तिजोरी बड़ी कंपनियों के लिए खुलती जाए और पेंशनभोगी लोगों अथवा बचत करने वाली महिलाओं को घाटा हो जाए। नई क्रांति के बहुत पेंच हैं। इनकम टैक्स, जी.एस.टी. ही नहीं हर राज्य में समय-समय पर नए शुल्क लगते रहते हैं। मतलब सरकार को रेगिस्तानी पहाड़ से भी मीठे पानी की गंगा लानी है। सरकार कोशिश करती रहे, लोग भूल-चूक भी माफ करते रहेंगे।

सौजन्य से
न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र.

नोटबंदी से छाएगी मंदी? ख़र्च करें सैलरी, वरना जा सकती है नौकरी..!

अमेरिका में अगर लोग बचत करने लगें और भारत में लोग खर्च करने लगे तो इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था चमकने लगेगी। हालांकि पिछले दो दशक में भारतीयों की खर्च करने की आदत बढ़ी है, लेकिन नोटबंदी ने एक बार फिर लोगों की बचत बढ़ा दी है। नोटबंदी के बाद से अब तक बैंकों के पास 8.11 लाख करोड़ रुपया जमा हुआ है, जबकि नए नोटों के साथ जनता ने करीब 2.5 लाख करोड़ रुपया बैंकों से निकाला है, यानी कुल नोटबंदी का 18 फ़ीसदी रुपया ही बाज़ार में घूम रहा है। ऐसे में इस रुपये की घूमने की गति बढ़ाना नौकरी बचाने के लिए जरूरी है। दिख रहा है कि कैश की किल्लत ने लोगों की खर्च करने की क्षमता को ना सिर्फ कम किया है, बल्कि खर्च करने की उनकी इच्छा पर भी लगाम लगा दी है।

हालांकि ऐसा बिल्‍कुल भी नहीं है कि खर्च करने के अवसर नहीं हैं, या खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड या फिर इंटरनेट बैंकिंग के ज़रिए नौकरीपेशा आदमी बड़े मज़े से खर्च कर सकता है। लोग ख़र्च करें इस खातिर लगभग सभी रिटेल चेन स्टोर, शॉपिंग मॉल्स, रेस्तरां और ब्रांडेड सामान बेचनेवाले स्टोर्स छोटे-मोटे डिस्काउंट स्कीम्स भी लेकर आए हैं, मगर ग्राहक है कि सीढ़ियां चढ़ने को राजी नहीं है।

नोटबंदी के पहले दो हफ्ते सकुचाने के बाद इस हफ्ते मैंने 12 हज़ार रुपये की शॉपिंग की, जिसमें से की 6 हज़ार रुपये का एक ब्रांडेड ट्रैवल सूटकेस खरीदा, आम दिनों में वही सूटकेस मुझे करीब 12 हज़ार रुपये का पड़ता। नोटबंदी से मेरी तनख्वाह या कार्ड के ज़रिए खर्च करने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ा – असर पड़ा तो मेरी सोच पर, जिसने मुझे करीब दो हफ्ते तक शॉपिंग मॉल से दूर रखा। यह अनजाना डर उन तमाम 8 करोड़ लोगों में है, जो संगठित क्षेत्र की नौकरी में हैं। लेकिन वो कहते हैं ना, जो डर गया वो मर गया और अगर पहली दिसंबर को तनख्वाह मिलने के बाद भी आपने अपने खर्चों को पहले की तरह नहीं किया तो आपकी नौकरी पर भी संकट आ सकता है।

दरअसल, इसे इस तरह समझिए कि अर्थव्यवस्था में एक व्यक्ति का ख़र्च ही दूसरे व्यक्ति की आय बनता है, तो सीधे शब्दों में अगर हम सबने अपने खर्च कम करने शुरु कर दिए तो अर्थव्यवस्था में मंदी आएगी और उसका असर पक्का हमारी आमदनी और नौकरी पर पड़ेगा। अब इसी बात को दूसरी तरह ऐसे समझिए कि आखिर 100 रुपये की कीमत कितनी है? आप कहेंगे 100 रुपये की कीमत 100 रुपये है, लेकिन मैं कहूंगा कि 100 रुपये की कई हज़ार– कई लाख या कई करोड़ रुपये हो सकती है, और वह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी जेब में रखा सौ रुपया कितनी तेज़ी से आपकी जेब से निकलकर किसी दूसरे तीसरे चौथे और हज़ारों-लाखों-करोड़ो लोगों की जेब का सफ़र तय करता है। यानी की सौ रुपये का एक नोट जितनी तेजी से जेब बदलेगा, या यूं कहें कि बार-बार खर्च होगा, वह उतनी ही बार किसी दूसरे व्यक्ति की आमदनी बनेगा, वह उतनी ही बार 100 रुपये कीमत का सामान या सेवा का उत्पादन करेगा और यूं अर्थवस्वस्था में उसका योगदान, लगातार बढ़ता ही जाएगा।

यकीनन, जिस डिजिटल रुपये वाली अर्थव्यवस्था में देश कदम रख रहा है, उसमें रुपये के घूमने की गति बढ़ जाएगी और जितने वक्त में कैश का एक सौदा होता था, उतने वक्त में ही डिजिटल मनी के सैकड़ों सौदे हो सकेंगे। ठीक वैसे ही जैसे पहले चिठ्ठी के ज़रिए संदेश एक हफ्ते में पहुंचता था और फिर ई-मेल और अब चैट के ज़रिए संदेश रिअल टाइम में पहुंच जाता है। इससे संवाद करने की हमारी शक्ति बढ़ी है। जैसे डिजिटल मैसेजिंग एप्स के ज़रिए संदेश भेजने के अलावा लाइव वीडियो कॉल भी हो रहा है, ठीक वैसे ही डिजिटल इकोनॉमी में ना सिर्फ सौदे तेज़ी से होंगें, उनमें पारदर्शिता और कारोबार में गुणवत्ता भी आएगी।

दरअसल, नोटबंदी से बाज़ार में मौजूद रोकड़ा या कैश, या यूं कहें कि साक्षात नोट की कमी भले ही हो गई है, मगर रुपया कम नहीं हुआ है। यह रुपया आपके बैंक में सुरक्षित है, और आपका ही है और आप जब चाहें जितना चाहें जैसे जिसपर चाहें खर्च करें, मगर क्‍योंकि फिलहाल नए नोटों की कमी है और आप अपना पैसा डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, इंटरनेट बैंकिंग या पेटीएम जैसे डिजिटल बटुए के ज़रिए खर्च कर सकते हैं।

इधर, अलग-अलग विशेषज्ञ अलग-अलग आंकड़े दे रहे हैं कि नोटबंदी से देश की जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद में 2 से 3 फ़ीसदी की गिरावट आएगी और सालाना विकास दर भी घटेगी। ऐसा तभी होगा जब नोट या रोकड़ा की कमी से लोग कम खर्च करेंगे और छोटे मध्यम तथा लघु उद्योगों में काम करने वाले करीब 40 करोड़ असंगठित क्षेत्र के लोगों की आय पर इसका असर पड़ेगा।

मेरे पत्रकार मित्र यतीश राजावत ने अपने एक ताज़ा लेख में कहा है कि अर्थव्यस्था में मंदी ना आए, इसके लिए सरकार को भी खर्च करना होगा और उसे ऐसा तुरंत ही करना पड़ेगा। आमतौर पर सरकार बजट में खर्च के प्रावधान करती है। मगर यह एक असामान्य परिस्थिति है और सरकार को तुरंत ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे उन तमाम क्षेत्रों में तेज़ी आए जिनपर नोटबंदी का सीधा असर पड़ा है मसलन, ट्रेड, टूरिज़्म, लॉजिस्टिक, रियल स्टेट, ज्वैलरी और छोटे तथा लघु उद्योग।

दरअसल, इन सभी क्षेत्रों पर नोटबंदी का असर अभी अगले साल भर तक नज़र आएगा ऐसे में सरकार को विदेशी निवेश लाने तथा सामाजिक क्षेत्र एवं आधारभूत क्षेत्र में निवेश को प्राथमिकता देनी होगी। खर्च करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी सिर्फ आम जनता पर ही नहीं, बल्कि सरकार पर है ताकि बाज़ार का उत्साह और व्यापार का उत्साह बढ़े। अगर नोटबंदी का मतलब खर्चबंदी बन गई तो समझो कि नौकरी गई, आपकी भी और सरकार की भी।