7/06/2016

कभी स्कूटर से चलने वाले 12 वीं पास अदने से आदमी अडानी कैसे हुए 60 हजार करोड़ के मालिक


किस्मत और सत्ता से नजदीकियों के दम पर एक अदना सा आदमी कैसा देश के सबसे अमीर लोगों में से एक हो जाता है, यह जानना हो तो अडानी को पढ़िए।
कभी अपने दोस्त मलय महादेविया को पीछे बैठाकर ग्रे कलर की बजाज स्कूटर से अहमदाबाद की गली-चौराहे नापते फिरने वाले गौतम अडानी को इसका अंदाजा कतई नहीं रहा होगा कि एक दिन उन पर छप्पर फाड़कर  धनवर्षा होगी। जिससे वे 55 से 60 हजार करोड़ का भारी-भरकम साम्राज्य खड़ा कर लेंगे। उनके क्रोनी कैपिटलिज्म(पूंजीवादी सांठगांठ) का खेल इस कदर सफल होगा कि वे  अनिल अंबानी जैसे दिग्गज को भी देश के टॉप-10 कारोबारियों की लिस्ट से निकालकर बाहर कर देंगे। मगर हाथ की लकीरों में दम हो और 12 साल सीएम और फिर पीएम राज मे मोदी का साथ मिले। भाजपा की सरकार न रहे भी रहे तो कांग्रेस में कमलनाथ व एनसीपी के शरद पवार जैसे खैरख्वाह आप पर मेहरबान हो जाएं तो कुछ भी संभव है। जिससे बिजनेस की दुनिया का पहलवान बनने से आपको कोई रोक नहीं सकता। फोर्ब्स ने तो अंबानी की संपत्ति करीब दस अरब डॉलर से ज्यादा आंकी है।
जी हां बिल्कुल फिल्मी कहानी है देश में सबसे अप्रत्याशित तरीके से खरबपति बनने वाले बहुधंधी गौतम अडानी की।
18 साल में घर छोड़ मुंबई भागे अडानी
गौतम अडानी के दिमाग में हमेशा रातोंरात अमीर बनने के सपने आते थे। 12 वीं पास होते ही बीकाम करने के लिए अहमदाबाद के कॉलेज में दाखिला लिया। मगर मन नहीं लगा तो 18 साल की उम्र में अहमदाबाद में पिता शांतिलाल के कपड़ों का व्यापार छोड़कर मुंबई भाग निकले। यहां हीरे की कंपनी महिंद्रा ब्रदर्स में महज तीन सौ रुपये पगार पर अडानी काम करने लगे। दिमाग तो था ही इधर-उधर से कुछ पैसा जुटा तो 20 साल की उम्र में ही हीरे का ब्रोकरेज आउटफिट खोलकर बैठ गए। किस्मत ने साथ दिया और पहले ही साल कंपनी ने लाखों का टर्नओवर किया। फिर भाई मनसुखलाल के कहने पर अडानी मुंबई से अहमदाबाद आकर भाई की प्लास्टिक फैक्ट्री में काम करने लगे। पीवीसी इंपोर्ट का सफल बिजनेस शुरू हुआ। डेंटिस्ट प्रीति से उन्होंने शादी रचा ली। दोस्त मलय महादेविया को अपने साथ साये की तरह इसलिए अडानी रखते थे क्योंकि कम पढ़ाई के कारण उनकी अंग्रेजी खराब थी। अफसर व कारोबारियों से धारा प्रवाह अंग्रेजी में बिजनेस डील करने में परेशानी होती थी। अडानी की यह खूबी कही जाएगी कि उन्होंने अपनी कंपनियों में आज भी मलय को बड़े पद दे रखे हैं।
1988 में गौतम ने डाली अपने अडानी ग्रुप की नींव
जब प्लास्टिक कारोबार से पूंजी इकट्ठा हुई तो 1988 में गौतम ने अडानी एक्सपोर्ट लिमिटेड की नींव शुरू की। यह कंपनी पॉवर व एग्रीकल्चर कमोडिटीज के सेक्टर में काम करने लगी। गौतम अडानी के पेशेवर हुनर ने तीन साल में ही कंपनी के पैर जमा दिए। इस बीच धीरे-धीरे एक्सपोर्ट का कारोबार गति पकड़ता रहा। अडानी के बारे में बताया जाता है कि एक बार उनकी कंपनी के एकाउंटेंट ने कोई बड़ी गलती कर दी, जिससे लाखों का नुकसान होने पर उसने बिना कुछ कहे-सुने अडानी के सामने इस्तीफा रख दिया। इस्तीफा हाथ में लेकर अडानी ने फाड़ दिया। कहा कि तुम्हें  गलती का अहसास हो गया, यही बहुत है। अब तुम दोबारा गलती नहीं करोगे। अगर तुम्हें रिलीव कर दूंगा तो नुकसान मेरा हुआ और यहां से गलती से जो सीखे हो उसका फायदा दूसरे कंपनी को मिलेगा। इससे पता चलता है कि अडानी किस तरह बिजनेस कार्यकुशलता रखते हैं।
गुजरात दंगे से मोदी के करीबी हुए अडानी
हर किसी के मन में हमेशा उत्सुकता रही कि किसी को भी आमतौर पर भाव नहीं देने वाले मोदी अडानी के मामले में पिघल क्यों जाते हैं। दरअसल जब 2002 में गुजरात का दंगा हुआ तो कारोबार को भारी नुकसान पहुंचने से उद्योगपतियों ने मोदी की आलोचना शुरू की। इस काम में सबसे आगे रहाऔद्यौगिक संगठन कन्फडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज(सीआईआई)। तब गौतम अडानी इकलौते उद्योगपति थे, जो मोदी के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे। यही नहीं अडानी ने तब गुजरात व देश के अन्य कारोबारियों के साथ लाबिंग कर गुजरात में मुश्किल हालात के बीज भी निवेश करने के लिए राजी किया। क्योंकि मोदी आलोचकों को दिखाना चाहते थे कि वे दंगे के बाद भी राज्य में कारोबार को फिर से खड़ा करने का माद्दा रखते हैं। जब सीआईआई ने इस पर अडंगा डालने की कोशिश की तो अडानी ने उसके समानांतर नयासंगठन खड़ा करने की चेतावनी दे डाली। तब से मोदी अडानी के मुरीद हो गए। गुजरात सरकार पर अडानी को कौड़ियों के भाव महंगी जमीनें व बंदरगाह देने के आरोप लगे। मोदी से अडानी की नजदीकियां इतनी हैं कि  जब व्हॉटर्न स्कूल आफ बिजनेस ने मोदी का नाम एक बार मुख्य वक्ता के रूप में हटा दिया तो इस आयोजन के सबसे बड़े स्पांसर के रूप में रहे अडानी ने तत्काल आयोजन से हाथ खींच लिए। यानी मोदी के संकट के समय हमेशा अडानी खड़े रहे।
मोदी सीएम रहे तो खूब विदेशी मुद्रा बटोरी, पीएम बने तो पूंजी बढ़ी
जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया था तभी से गौतम अडानी की अडानी इंटरप्राइजेज, अडानी पोर्ट और अडानी पावर का कुल बाजार पूंजी में चौंकाने वाले रूप से 85.35 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। जबकि उस समय सेंसेक्स में बमुश्किल से 14.76 प्रतिशत ही बढ़ोत्तरी हुई थी। इससे पहले 2003-04 में जब मोदी गुजरात में सीएम रहे तो अडानी ने विदेशी पूंजी मुद्रा कमाने में रिकार्ड तोड़ दिया। दो सौ प्रतिशत से  ज्यादा मुनाफा कमाया। अहम बात रही कि तब उनका 76.50 करोड़ डॉलर का कारोबार रहा जो मोदी के पीएम बनने पर दस अरब डॉलर तक पहुंच गया। हर साल करीब तीस हजार करोड़ रुपये का अडानी ग्रुप का टर्नओवर है।
आस्ट्रेलिया से लेकर दुनिया के 28 देशों में कारोबार
करीब 30 चीजों में अडानी का कारोबार आज आस्ट्रेलिया सहित दुनिया के 28 देशों तक फैल गया है। कोयला खनन, बिजली, पोर्ट, अनाज, तेल मुख्य बिजनेस हैं। आस्ट्रेलिया से अडानी ने 15.5 अरब डॉलर का कोयला खनन का प्रोजेक्ट भी रसूख के दम में हाल में हथियाने में सफलता हासिल की। उन्हें आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में बंदरगाह भी आवंटित हो चुका है। यही नहीं कोयला उतारने का दुनिया का सबसे बड़ा बंदरगाह मुंरदा भी अडानी के कब्जे में है। जिसमें निजी रेल लाइन व निजी हवाई जहाज पट्टी का अडानी विस्तार कर रहे हैं। 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक झूठा देशभक्त

RSS/BJP ने फ़िलहाल अपने अव्वल नंबर के देशभक्त 'वीर' सावरकर की स्तुति काफ़ी हद तक कम करदी है। इस की सब से बड़ी वजह यह है की इस 'वीर' की असली कहानी दुनिया के सामने आगई है ।  हिंदुत्व के इस 'वीर' ने अंग्रेज़ हुक्मरानों से एक बार नहीं बल्कि पांच बार (1911, 1913, 1914, 1918 और 1 920 में) रिहाई पाने के लिए माफ़ी-नामे लिखे जिन में अपने क्रांतिकारी इतिहास के लिए माफ़ी मांगी और आगे अंग्रेज़ी राज का वफ़ादार बने रहने का आश्वासन दिया। अंग्रेज़ हकूमत ने इस 'वीर' के माफ़ी-नामों को स्वीकारते हुवे 50 साल की क़ैद में से 37 साल की कटौती कर दी।

हिंदुत्व टोली के नए 'देश-भक्त'  डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901-1953) हैं। वे स्वतंत्रता-पूर्व हिन्दू-महासभा में सावरकर के बाद सब से अहम नेता थे और यह मानते थे की हिन्दुस्तान केवल हिन्दुओं के लिए है। वे 1944 में हिन्दू-महासभा के मुखिया भी रहे। आज़ादी के बादवे देश के पहले अंतरिम मंत्री मंडल, जिस के मुखिया जवाहरलाल नेहरू थे, में उद्योग और रसद मंत्री थे। उन्हों ने अप्रैल 1950 में नेहरू से पाकिस्तान से किस तरह के सम्बन्ध हैं पर विरोध होने की वजह से इस्तीफ़ा दे दिया था। इस्तीफ़े के बाद उन्होंने आरएसअस का हाथ थाम लिया और उस के आदेश पर आरएसअस के एक राजनैतिक अंग, भारतीय जन संघ की स्थापना की और इस के पहले अध्य्क्ष भी बने। उनकी  मृत्यु 23 जून 1953 को श्रीनगर, जम्मू व कश्मीर के एक जेल में हुई जहां उन्हें उस क्षेत्र में प्रवेश निषेध आदेश के बावजूद दाख़िल होने के लिए गिरफ़्तार करके रख्खा गया था।

2015 तक इन की मृत्यु  के दिन को "द धारा 370 समाप्त करो दिवस' और 'कश्मीर बचाओ दिवस " के रूप में मनाया जाता था लेकिन इस साल (2016 में) इन का दर्जा बढ़ा कर इन्हें देश का 'एक निस्स्वार्थ देशभक्त' (A Selfless Patriot of India) घोषित कर दिया गया। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कितने महान 'निस्स्वार्थ देशभक्त' थे इसे पर्खने के लिए हमें निम्नलिखित सच्चाइयों पर ग़ौर करना होगा।

(1) डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सेदारी का कोई प्रमाण नहीं है।

अगर देश-भक्त होने का  मतलब है की किसी ने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लड़ाई में हिस्सा लिया हो, दमन सहा हो और किसी भी तरह का त्याग किया हो तो यह जानकर ताजुब्ब नहीं होना चाहिए कि मुखर्जी ने आज़ादी की लड़ाई में कभी भी और किसी भी तरह से भाग नहीं लिया। ना ही तो स्वयं मुखर्जी की लेखनी में ना ही उस समय के सरकारी या ग़ैर-सरकारी दस्तावेज़ों और ना ही हिन्दुत्वादी संगठनों के समकालीन अभिलेखागार में उन की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का कोई ज़िक्र मिलता है। इस के विपरीत आज़ादी की लड़ाई के विरुद्ध किए गए उन के अनगिनित कारनामों का वर्णन ज़रूर मिलता है। आज़ादी से पहले के दस्तावेज़ इस सच्चाई को बार-बार रेखांकित करते हैं कि कैसे इस 'निस्स्वार्थ देशभक्त' ने अंग्रेज़ों की सेवा की और सांझी आज़ादी की लड़ाई को धार्मिक आधार पर विभाजित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। वे जीवन भर सावरकर के मुरीद रहे जो मुस्लिम लीग की तरह हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र मानते थे।

(2 ) भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली-जुली सरकार में उप-मुख्य मंत्री थे।

जब जुलाई 1942 में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अगस्त 8 से अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया तब मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार , जिस में हिन्दू महासभा भी शामिल थी , के वित्त मंत्री थे और साथ में उप-मुख्य मंत्री भी। इस आंदोलन की घोषणा के साथ ही कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, कांग्रेस के तमाम बड़े नेता जिन में गांधीजी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल शामिल थे बन्दी बना लिए गए, पूरा देश एक जेल में बदल गया और हज़ारों लोग इस जुर्म में पुलिस और सेना की गोलियों से भून दिए गए की वे तिरंगे झंडे को लहराते हुवे सार्वजनिक स्थानों से गुज़रना चाह रहे थे। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों जैसे की हिन्दू महासभा व आरएसएस और मुस्लिम  राष्ट्रवादी संगठन, मुस्लिम लीग कांग्रेस दुवारा छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध नहीं किया बल्कि इस को कुचलने के लिए अंग्रेज़ शासकों को हर प्रकार से मदद करने का फैसला लिया। जब देश में किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतविधि पर पाबंदी थी उस समय हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को एक साथ मिलकर बंगाल, सिँध और NWFP में साझा सरकारें चलाने की अनुमति दी गई। अंग्रेज़ों के दमनकारी विदेशी राज को बनाए रखने  में सहायता हेतु इस शर्मनाक गठबंधन को महामंडित करते हुवे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सावरकर ने 1942 के हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन को सम्बोधित करते हुवे बताया कि

"वेवहारिक राजनीति में भी हिन्दू महासभा जानती है कि हमें बुद्धिसम्मत समझौतों के ज़रिये आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही में सिंध की सच्चाई को देखें, यहां सिंध हिन्दू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकार चलने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदहारण भी सब को पता है। उदंड लीगी (अर्थात मुस्लिम लीग) जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद  रख सकी, हिन्दू महासभा के साथ संपर्क में आने पर तर्क संगत समझौतों और सामाजिक सम्बन्धों के लिए तैयार हो गए और वहां की मिली-जुली मिस्टर फजलुल हक़ के प्रधानमंत्रित्व और महासभा के क़ाबिल और मान्य नेता श्यामाप्रसाद मुकर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के फ़ायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।"

(3) बंगाल के उप-मुख्यमंत्री रहते हुवे मुखर्जी ने अंग्रेज़ गवर्नर को चिट्ठी दुवारा भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए हर संभव मदद का आश्वासन दिया।

मुखर्जी ने एक शर्मनाक काम करते हुवे बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर को जुलाई 26, 1 942 में एक सरकारी पत्र के दुवारा इस देश भर में चल रहे आंदोलन को शुरू होने से पहले ही कुचलने का आह्वान करते हुवे लिखा:
"अब मुझे उस स्तिथि के बारे में  बात करनी है जो कांग्रेस दुवारा छेड़े गए व्यापक आंदोलन के मद्देनज़र पैदा होगी।युद्ध [दूसरा विश्व युद्ध] के दिनों में जो भी  आम लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश करेगाजिस से बड़े पैमाने पर दंगे या असुरक्षा फैले उसका हर हाल में सत्ताधारी सरकार दुवारा प्रतिरोध करना ही होगा।"

(4) मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन के कुचलने को सही ठहरया और अंग्रेज़ शासकों को देश का मुक्तिदाता बताया।

मुखर्जी ने बंगाल की मुस्लिम लीग-हिन्दू महासभा साझी सरकार की ओर से बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर को लिखी चिट्ठी में अंग्रेज़ हकूमत को प्रांत का मुक्तिदाता बताते हुवे उसे भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए कई क़दम भी सुझाए:

"प्रशन यह है की बंगाल में भारतछोड़ोआंदोलन से कैसे निपटा जाए? राज्य का शासन इस तरह चलाया जाए की कोंग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन बंगाल में क़दम जमाने में कामयाब न हो सके। हमारे लिए विशेषकर उत्तरदायी मंत्रिओं के लिए जनता को यह समझाना संभव होना चाहिए की आज़ादी जिस के लिए कांग्रेस ने आंदोलन शुरू किया है वह पहले से ही जन-प्रतिनिधिओं  को प्राप्त है। कुछ मामलों में आपातकालीन हालात की वजह से यह सीमित हो सकती है। भारतीयों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए, ब्रिटेन के वास्ते नहीं,
इस लिए नहीं के इस से ब्रिटेन को कुछ फायदा होग, बल्कि प्रांत की आज़ादी और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए।"

(5) हिन्दू महासभा के प्रमुख नेता के तौर पर मुखर्जी ने उस समय अंग्रेज़ी सेना के लिए देश भर में 'भर्ती कैंप' लगाए जब सुभाष चन्दर बोस 'आज़ाद हिंद सेना' दुवारा देश को आज़ाद कराना चाहते थे।

एक और शर्मनाक घटनाक्रम में 'वीर' सावरकर और मुखर्जी के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार को पूर्ण समर्थन देने का फ़ैसला किया। याद रहे की कांग्रेस ने इस युद्ध को साम्राजयवादी युद्ध की संज्ञा दी थी और यही समय था जब नेताजी 'आज़ाद हिंद सेना' खड़ी करके एक सैनिक अभियान दुवारा देश को अंग्रेज़ी चुंगल से मुक्त कारण चाहते थे। हिन्दू महासभा लुटेरे अंग्रेज़ शासकों की किस  हद तक मदद करना चाहती थी इस का अंदाज़ा 'वीर' सावरकर के निम्नलिखित आदेश से लगाया जा सकता है जो उनहूँ ने देश के हिन्दुओं के लिए जारी किया था:

"जहां भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिन्दू समाज को भारत सरकार [अंग्रेज़ सरकार] के युद्ध सम्बन्धी प्रयासों में सहानभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिन्दू हित के फायदे में हो।  हिन्दुओं को बड़ी संखिया में  थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरा में प्रवेश करना चाहिए...ग़ौरतलब है की युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के सीधे निशाने पर आ गये हैं। इस लिए हम चाहें या ना चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचना है, और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचाकर ही किया जा सकता है। इस लिए हिन्दू महासभायों को खास कर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिन्दुओं को अविलम्ब सेनाओं  में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।"

(6) मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की वकालत की थी।

हिंदुत्व टोली के दावों के बरक्स मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर की विशेष हैसियत को स्वीकारा था। इस सिलसिले में प्रधान मंत्री नेहरू और उनके बीच चिट्ठी-पत्री का एक लम्बा दौर चला था। उन्हों ने नेहरू को 17 फ़रवरी 1953 के दिन लिखे ख़त में निम्नलिखित मांग की थी:
"दोनों पक्ष इस पर सहमत हों कि राज्य की एकता बनी रहेगी और स्वयत्तता का सिद्धांत जम्मू लद्दाख़ और कश्मीर पर लागू होगा।"