पीवी नरसिम्हा राव के नाम तक से पल्ला झाड़ने वाली कांग्रेस सहित विभिन्न राजनीतिक दलों और मीडिया विश्लेषकों को अब उनकी विरासत याद करना जरूरी क्यों लगने लगा है?
यह जून, 1991 की बात है. कांग्रेस ने आम चुनाव में सबसे ज्यादा 244 सीटें जीती थीं. यह तय था कि सरकार कांग्रेस के नेतृत्व में बनेगी. लेकिन सवाल था कि इस अल्पमत सरकार का नेतृत्व कौन करेगा. वैसे तो पार्टी में कई दिग्गज नेता थे लेकिन राजीव गांधी की त्रासद हत्या के बाद से यह सुगबुगाहट तेज थी कि यदि पार्टी जीती तो शरद पवार और अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार होंगे. तीसरा नाम जाहिर तौर पर पीवी नरसिम्हा राव का था क्योंकि वे तब कांग्रेस के अध्यक्ष थे. जब कांग्रेस की तरफ से संसदीय दल का नेता चुनने की बारी आई तब इन तीनों ने अपनी दावेदारी पेश की और यह 20 जून की बात है जिस दिन नरसिम्हा राव संसदीय दल के नेता यानी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार चुन लिए गए.
20 जून को ही नरसिम्हा राव ने तय किया था कि मनमोहन सिंह उनके वित्तमंत्री होंगे. उस समय प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर अपनी आत्मकथा ‘थ्रू कॉरीडोर्स ऑफ पावर : एन इनसाइडर्स स्टोरी’ में बताते हैं कि राव पहले ही उन्हें इशारा दे चुके थे कि वे डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाना चाहते हैं. संसदीय दल का नेता बनने के तुरंत बात उन्होंने अलेक्जेंडर को यह संदेश डॉ मनमोहन सिंह तक पहुंचाने को कहा था.
केंद्र सरकार ने एफडीआई के मुद्दे पर जो बड़ा फैसला किया है वह नरसिम्हा राव की विरासत आगे बढ़ाने जैसा है लेकिन इस फैसले का पूरा श्रेय नरेंद्र मोदी को ही दिया जा रहा है
एक तरह से हम कह सकते हैं कि भारत में आर्थिक उदारीकरण की बुनियाद रखने वाली यह जोड़ी 20 जून को ही बनी थी. इस जोड़ी ने भारत में विदेशी निवेश की खिड़की खोलने की शुरुआत की. यह बड़ा ही विचित्र संयोग है कि इस साल 20 जून को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई निवेश नीति की घोषणा की है. विशेषज्ञों ने इस नई नीति को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम बदलाव बताया है और इसके बाद प्रधानमंत्री ने बयान भी दिया था कि इसके बाद भारत दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था बन गया है. इस पूरे घटनाक्रम को हम इस तरह भी कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने आर्थिक मोर्चे पर जो बड़ा बदलाव किया वह नरसिम्हा राव की विरासत को आगे बढ़ाने जैसा है. लेकिन बात सिर्फ आर्थिक विरासत की नहीं है, मोदी 2014 के लोकसभा चुनाव के समय से राव की विरासत को भुनाने और उन्हें कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश करते रहे हैं. चुनाव के दौरान आंध्र प्रदेश-तेलंगाना की रैलियों में वे यह दोहराना नहीं भूलते थे कि कांग्रेस ने तेलुगू मूल के इसे 'महान नेता' का अपमान किया था और पार्टी उन्हें वाजिब सम्मान नहीं देती.
पिछले कुछ समय से यह कहा जा सकता है कि मृत्यु (दिसंबर, 2004) के बाद पूरे एक दशक में पीवी नरसिम्हा राव इतनी चर्चा में कभी नहीं रहे जितने अब हैं. कुछ समय पहले तक हर साल उनकी छिटपुट चर्चा 28 जून यानी उनके जन्म के दिन ही हुआ करती थी. लेकिन अब वक्त बदल गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज उन्हें श्रद्धांजलि देने के साथ एक ट्वीट करके यह भी कहा कि उन्होंने देश को बेहद मुश्किल परिस्थितियों में नेतृत्व दिया था.
इस महीने पीवी नरसिम्हा राव दो किताबों के कारण लगातार चर्चा में है. पहली किताब पत्रकार और वकील विनय सीतापति ने उनके ऊपर ही लिखी है. 'हाफ लॉयन : हाउ पीवी नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया' शीर्षक से यह किताब कल बाजार में आई है. इसमें दावा किया गया है कि राव ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आईबी के मार्फत सोनिया गांधी की जासूसी करवाई थी और 1995 में भी खुफिया सूत्रों के माध्यम से यह पता लगाने की कोशिश की थी कि पार्टी के कितने नेता उनके साथ हैं और कितने सोनिया के. दूसरी किताब, 1991- द ईयर दैट चेंज्ड इंडिया, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू ने लिखी है. यह किताब कुछ दिनों के बाद बाजार में आएगी. इस किताब पर चर्चा करते हुए बारू कह चुके हैं कि राव का भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में अमूल्य योगदान रहा है और वे भारत रत्न के हकदार हैं.
नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव रहे पीसी एलेक्जेंडर अपनी आत्मकथा ‘थ्रू कॉरीडोर्स ऑफ पावर : एन इनसाइडर्स स्टोरी’ में बताते हैं कि कांग्रेस संसदीय दल का नेता बनने के साथ ही राव ने उन्हें संकेत दे दिया था कि वे डॉ मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाना चाहते हैं
राजनीति में निर्वासित जीवन जी रहे किसी व्यक्ति के अचानक महत्वपूर्ण हो जाने के देश में बहुत उदाहरण हैं. लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव शायद अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी मृत्यु के एक दशक बाद अब सिर्फ मीडिया में ही नहीं अचानक मुख्यधारा की राजनीति में भी सम्मान के साथ याद किए जा रहे हैं.
इसमें भी खास बात है कि खुद उनकी पार्टी, जिसने कभी उनसे किनारा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, पिछले साल 28 जून को उनके जन्मदिन पर उन्हें सार्वजनिक रूप से याद कर रही थी. कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह तेलंगाना में इस मौके पर पार्टी द्वारा आयोजित समारोह में पहुंचे थे और कहा कि राव बुद्धिजीवी राजनेता थे जिनमें अपनी विचारधारा के प्रति गजब का समर्पण था. हालांकि इसबार पार्टी के किसी बड़े नेता के तेलंगाना पहुंचने की कोई खबर नहीं है फिर भी पार्टी ने अपने आधिकारिक ट्विटर और फेसबुक अकाउंट से उन्हें श्रद्धांजलि जरूर दी है.
कांग्रेस पार्टी अब जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री को याद कर रही है वह उसके दस साल पहले के रुख से बिल्कुल उलटा है. 23 दिसंबर, 2004 को दिल्ली में नरसिम्हा राव का निधन हुआ था. वैसे तो उनकी मृत्यु से काफी पहले ही कांग्रेस उन्हें राजनीतिक रूप से निर्वासित कर चुकी थी लेकिन लोगों को उम्मीद थी कि शायद मृत्यु के बाद पार्टी उनके प्रति सम्मान दिखाएगी. लेकिन पार्टी मुख्यालय में राव के लिए कोई श्रद्धांजलि सभा तक आयोजित नहीं होने दी गई. कहा जाता है कि केंद्र की यूपीए सरकार ने तुरत-फुरत यह इंतजाम कर दिया कि राव का अंतिम संस्कार दिल्ली की बजाय हैदराबाद में किया जाए. संजय बारू ने अपनी किताब - द एक्सीडंटल प्राइममिनिस्टर - में लिखा है कि राव के बेटे और बेटी उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में ही करना चाहते थे. लेकिन सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बारू से, जो कि खुद भी आंध्र प्रदेश से ही हैं, उन्हें ऐसा न करने के लिए समझाने को कहा था. बाद में इस काम में शिवराज पाटिल और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वायएस राजशेखर रेड्डी को लगाया गया.
राव के बेटे ने उनके अंतिम संस्कार का फैसला कांग्रेस पर छोड़ दिया था और लेकिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने संजय बारू को फोन करके कहा कि नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में संभव नहीं है
कांग्रेस और एक तरह से देश को ही मुश्किल घड़ी में संभालने वाले राव के बारे में यह प्रचारित है कि पार्टी उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले को ठीक से न संभाल पाने का जिम्मेदार मानती थी और इसी कथित दागदार विरासत के चलते उनको हाशिये पर धकेला गया. हालांकि सत्ता के गलियारों से जुड़े जानकार यह भी मानते हैं कि इसकी एक वजह सोनिया गांधी की उनके प्रति नापसंदगी भी रही है. राव ने ही 1991 के चुनाव में कांग्रेस का घोषणा पत्र तैयार किया था. उस समय उनकी तबीयत इतनी खराब थी कि उनके सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की अटकले लगने लगी थीं. लेकिन राजीव गांधी की हत्या के बाद ऐसी परिस्थितियां बनीं कि वे प्रधानमंत्री बन गए. प्रधानमंत्री बनने के बाद वे सोनिया गांधी से नियमित अंतराल पर मिलते रहते थे लेकिन उन्होंने श्रीमती गांधी को कभी-भी सत्ता केंद्र के रूप में उभरने नहीं दिया.
पीवी नरसिम्हा राव उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे लेकिन पार्टी का एक धड़ा लगातार इस कोशिश में था कि सोनिया गांधी को पार्टी की कमान सौंप दी जाए. राव ने हमेशा इसका विरोध किया. पार्टी मंच पर दिया उनका एक बयान उस समय काफी चर्चा में भी रहा. राव का कहना था, ‘जैसे इंजन ट्रेन की बोगियों को खींचता है वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के पीछे-पीछे ही चले?’
1996 के चुनाव में कांग्रेस हार गई थी लेकिन राव के लिए यह बड़ा झटका नहीं था. उनकी प्रतिष्ठा को असली धक्का तब लगा जब 1998 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने उन्हें टिकट देने से ही मना कर दिया. यह अपने आप में ऐतिहासिक घटना थी. बाद में जब सोनिया गांधी अध्यक्ष बनीं तो राव अनौपचारिक रूप से कांग्रेस से बहिष्कृत ही कर दिए गए. इस बहिष्कार की पराकाष्ठा 2004 में उनके निधन के बाद देखने को मिली. इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र हमने शुरू में किया है. पूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते राव का समाधि स्थल दिल्ली में होना चाहिए था. लेकिन यूपीए सरकार ने फैसला किया कि राजधानी में जगह की कमी है और अब यहां समाधिस्थल नहीं बनाए जा सकते. इस फैसले से साफ था कि कांग्रेस अपने ही पूर्व अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के साथ कोई जुड़ाव नहीं रखना चाहती थी.
नरसिम्हा राव का कहना था, ‘जैसे इंजन ट्रेन की बोगियों को खींचता है वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के पीछे-पीछे ही चले?’
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक पार्टी को पीवी नरसिम्हा राव याद आने लगे? राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे कांग्रेस की मजबूरी बता रहे हैं. दरअसल अक्टूबर, 2014 में केंद्र सरकार में सहयोगी दल तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) ने एक प्रस्ताव पारित कर सरकार से मांग की थी कि नई दिल्ली में पीवी नरसिम्हा राव का समाधि स्थल बनाया जाए. इसके बाद पिछले साल मार्च में केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इससे संबंधित प्रस्ताव मंत्रिपरिषद के सामने रखा जिसके बाद राष्ट्रीय राजधानी में पूर्व प्रधानमंत्री के नाम पर भी एक स्मृतिस्थल बन गया है.
कहा जा रहा है कि कांग्रेस केंद्र सरकार के इस कदम को राव की विरासत हथियाने की कोशिश मान रही है. दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर भले ही इस बात से कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन तेलंगाना (वारंगल जिला यहीं हैं जहां राव का जन्म हुआ था) और आंध्र प्रदेश में राव के प्रति काफी सम्मान और सहानुभूति है. तेलंगाना की टीआरएस सरकार ने तो बाकायदा स्कूली पाठ्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री की जीवनी भी शामिल की है. वह उनके जन्मदिन पर हर साल राजकीय कार्यक्रम भी आयोजित करती है. वहीं चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी पहले ही राव के समाधिस्थल का मामला उठाकर इस भावनात्मक मुद्दे पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर चुकी है. पार्टी उन्हें भारत रत्न देने की मांग भी करती रही है. भाजपा भी नरसिम्हा राव के मामले में इसी नाव पर सवार है.
कांग्रेस को पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भले ही पीवी नरसिम्हा राव को हाशिये पर करने का उसे सीधा नुकसान इन राज्यों में न उठाना पड़ा हो लेकिन आज की परिस्थितियों में टीआरएस, टीडीपी और भाजपा के सामने यहां वह बिल्कुल विरोधी खेमे में खड़ी दिखाई पड़ रही थी. कांग्रेस द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री को अचानक अपनाने और याद करने की यही सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है और उसकी कोशिश बस यही है कि इन राज्यों में उसके नेता की विरासत विरोधी पार्टियां न हथिया लें. वैसे ही जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी, सरदार वल्लभ भाई पटेल के मामले में कर चुके हैं.
6/28/2016
अब नरसिम्हा राव की विरासत सबको जरूरी क्यों लगने लगी है?
दिल को छु लेने वाली बात
सुबह-सुबह नरसीपट्नम से लंबासिंघी जाते समय मैं , एक गांव में नाश्ते के लिए रुका. गांव की सड़क के किनारे बनी एक झोपड़ी के बाहर लगी टेबल पर एक वृद्ध व्यक्ति चाय बना रहा था. मैंने उससे एक कप चाय के साथ कुछ खाने के लिए मांगा. वृद्ध ने मुझे चाय बनाकर दी और अपनी भाषा में कुछ कहा जो मैं समझ न सका. तब मैंने उसे इशारे से कुछ खाने के लिए मांगा. वृद्ध ने पास ही खड़ी अपनी पत्नी की ओर मुड़कर कुछ कहा.
वृद्ध पत्नी मे मुझे बाहर पड़ी एक बेंच पर बैठने का इशारा किया और झोपड़ी के भीतर चली गई. कुछ ही समय में वह एक प्लेट में इडली और चटनी लेकर आई, जिसे मैंने चाय के साथ अच्छे से खाया.
खाने के बाद मैंने वृद्ध से पूछा कि मुझे उसे कितने रुपए देने थे और उसने कहा, “5 रुपए”.
मुझे पता था कि मैं भारत के एक बहुत पिछड़े भूभाग में था फिर भी वहां एक प्लेट इडली और चाय का मूल्य 5 रुपए ....नहीं हो सकता था. मैंने इशारे से उन्हें अपनी हैरत जताई जिसपर वृद्ध ने केवल चाय के कप की ओर इशारा किया.
जब मैंने इडली की खाली प्लेट की ओर इशारा किया तो उसकी पत्नी ने कुछ कहा जो मैं फिर से नहीं समझ सका. शायद वे मुझसे सिर्फ चाय का ही पैसा ले रहे थे.
मैंने विरोधस्वरूप फिर से खाली प्लेट की ओर इशारा किया और वे दोनों मुस्कुराने लगे. मुझे उसी क्षण यह समझ में आया कि वे केवल चाय बेचते थे और मेरे कुछ खाने का मांगने पर उन्होंने अपने नाश्ते में से मुझे खाने के लिए दिया, अर्थात उस दिन मेरी वजह से उनका खाना कम पड़ गया.
मैं वहां चुपचाप खड़ा कुछ मिनटों के भीतर घटी बातों को अपने मष्तिष्क में उमड़ता-घुमड़ता देखता रहा. फिर मैंने अपने वालेट से कुछ रुपए निकलकर वृद्ध को देना चाहा जो उसने स्वीकार नहीं किए. बहुत अनुनय-विनय और ज़िद करने पर ही मैं उसे कुछ रूपए दे पाया.
लंबासिंघी के घाट से गुज़रते समय मेरे मन में बार-बार उन वृद्ध दंपत्ति और उनके दयालुतापूर्ण व्यवहार की स्मृति तैरती रही. मैंने यकीनन उस दिन जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ ग्रहण किया. स्वयं अभावग्रस्त होने पर भी दूसरों की इस सीमा तक सहायता करने का गुण विरलों में ही होता है.
स्पेक्ट्रम को फिर से व्यवस्थित करके सरकार ने एक तीर से दो शिकार किए हैं
इससे न सिर्फ लंबे समय से बेकार पड़ा देश का एक अहम संसाधन इस्तेमाल होगा बल्कि दूरसंचार क्षेत्र को राहत की सांस भी मिलेगी. द इकॉनॉमिक टाइम्स की संपादकीय टिप्पणी.
रक्षा और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल होने वाले स्पेक्ट्रम को फिर से व्यवस्थित करके सरकार ने लंबे समय से अटका पड़ा एक जरूरी काम किया है. इससे 1800 मेगाहर्ट्ज के बैंड में 200 मेगाहर्ट्ज का अतिरिक्त स्पेक्ट्रम उपलब्ध होगा.
अतीत में स्पेक्ट्रम का आवंटन जिस तरह से हुआ उसका नतीजा यह रहा कि रक्षा विभाग और व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए इस्तेमाल होने वाले स्पेक्ट्रम के बैंड या कहें कि पट्टी में कई छोटे-छोटे हिस्से खाली रह गए. इनका इस्तेमाल न तो रक्षा विभाग कर पा रहा था और न ही कारोबारी कंपनियां. इससे एक तरफ देश का एक अहम संसाधन बेकार हो रहा था तो दूसरी ओर स्पेक्ट्रम की कमी से जूझ रहा दूरसंचार क्षेत्र भी प्रभावित हो रहा था.
स्पेक्ट्रम के इस पुनर्संयोजन के परिणाम दूरगामी होंगे. तरंगों की गतिशीलता के लिहाज से देखें तो 1800 मेगाहर्ट्ज बैंड की ठीक-ठाक उपयोगिता बनती है. हालांकि इस मामले में कम फ्रीक्वेंसी के बैंड बेहतर साबित होते हैं. ऊंची फ्रीक्वेंसी वाले बैंड्स की तुलना में 700 या 800 मेगाहर्ट्ज बैंड पर भेजे गए सिग्नल दीवारों और दूसरी बाधाओं को ज्यादा अच्छी तरह भेदते हैं और साथ ही कम बिजली भी खाते हैं. डिजिटल इंडिया और उसके साथ होने वाले डेटा के विस्फोट को देखते हुए यह तथ्य बहुत अहम है. दूसरे शब्दों में कहें तो हम कौन सी फ्रीक्वेंसी का बैंड चुनते हैं इसका सीधा असर भारत की ऊर्जा खपत और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उसके द्वारा किए गए वादों पर पड़ेगा.
इसलिए सरकार का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह जितना हो सके कम फ्रीक्वेंसी के बैंड्स को उपलब्ध करवाए. यह काम कई तरीकों से हो सकता है. उदाहरण के लिए क्षेत्रीय प्रसारण के लिए एनॉलॉग सिग्नल की जो व्यवस्था इस्तेमाल होती है वह अब पुरानी पड़ चुकी है. इसे खत्म करके काफी स्पेक्ट्रम हासिल किया जा सकता है. कोशिश यह भी होनी चाहिए कि इस तरह मिले स्पेक्ट्रम को दूरसंचार कंपनियों को ऐसे मूल्य पर उपलब्ध करवाया जाए जिसे देश की जनता वहन कर सके. कम फ्रीक्वेंसी के बैंड्स के लिए सरकार जो ऊंची कीमत वसूलती है उसका जेब दूरसंचार कंपनियों के बजाय आखिर में उपभोक्ता की जेब पर ही पड़ता है.
सौजन्य से
सत्याग्रह.कॉम