आधुनिक विश्व के निर्माण में चीनी की अहम भूमिका रही लेकिन यह अनुपयोगी कृषि उत्पाद अब विश्वसमुदाय के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है.
दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं है जो इतनी कम उपयोगी होने के बाद भी धरती का इतना ज्यादा हिस्सा घेरे हुए हो. ताजा आंकड़ों के अनुसार इस समय तकरीबन 27 लाख हेक्टेयर जमीन घेरे गन्ना दुनिया की तीसरी सबसे कीमती फसल है. चीनी गन्ने का सबसे महत्वपूर्ण कारोबारी उत्पाद है जिसके बिना दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने रोजमर्रा के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता. लेकिन यही चीनी एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट की वजह भी बन चुकी है जो लगातार बढ़ता जा रहा है.
जिन देशों में कार्बोहाइड्रेट के स्रोत के रूप में या बस स्वाद के लिए ही खाद्य पदार्थों में चीनी का ज्यादा प्रयोग होता है वहां की आबादी में मोटापा एक महामारी की तरह फैल रहा है. साथ ही वहां इससे जुड़ी बीमारियां जैसे कैंसर, डिमेंशिया, दिल की बीमारियां भी आम होती जा रही हैं. इन देशों में भारत का स्थान काफी आगे है.
दूसरी जगह के आदिमानवों की तरह भारतीयों के लिए गन्ना चारा नहीं था. ढाई हजार साल पहले उन्होंने सबसे पहले रसायनों का प्रयोग कर चीनी बनाने की कला में महारत हासिल कर ली थी
चीनी किस तरह धरती और हमारे स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बनी, यह समझने के लिए गन्ने की फसल और चीनी निर्माण का इतिहास हमारी काफी मदद कर सकता है.गन्ना सबसे पहले चारे के रूप में उपयोगी माना गया थामानव शरीर का विकास इस तरह हुआ है कि उसे काफी कम मात्रा में चीनी की जरूरत है और जो रिफाइंड चीनी हम इस्तेमाल करते हैं उसकी जरूरत तकरीबन नहीं है. चीनी हमारे भोजन में संयोगवश शामिल हो गई. ऐसा माना जाता है कि गन्ने का इस्तेमाल पहले-पहल ‘चारे’ के रूप में हुआ. यह सुअरों का चारा था और इस दौरान आदिमानव कभी-कभार उसे चबाता भी होगा.
गन्ने के प्राचीन अवशेष और मानव डीएनए पर हुए शोध बताते हैं कि सबसे पहले यह फसल दक्षिण-पूर्व एशिया में लगाई गई. अनुसंधानकर्ता इस समय प्रशांत महासागर में स्थित देश पापुआ न्यूगिनी में गन्ने की सबसे प्राचीन फसल के अवशेष खोज रहे हैं. यहीं ईसा से 8000 साल पहले अरबी और केले जैसी फसलें लगाने की शुरुआत हुई थी. माना जाता है कि इस क्षेत्र से गन्ना पूर्वी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के देशों तक 3,500 साल पहले पहुंचा.
यहां के आदिमानवों के जरिए ही गन्ने से भारतीय प्रायद्वीप के लोग परिचित हुए. भारतीयों के लिए यह सिर्फ चारा नहीं था. ढाई हजार साल पहले उन्होंने सबसे पहले रसायनों का प्रयोग कर चीनी बनाने की कला में महारत हासिल कर ली. फिर यह तकनीकी उत्तर-पूर्व में चीन की तरफ फैली तो साथ ही अरब देशों के यात्री इसे अपने-अपने मुल्कों में ले गए. 13वीं शताब्दी में यह तकनीक भू-मध्य सागर के देशों, मोटे अर्थों में समझें तो रूस, यूरोप और अफ्रीका के कुछ देशों तक पहुंच गई. जल्दी ही साइप्रस और सिसेली (वर्तमान में इटली का एक स्वायत्तशासी प्रांत) चीनी उत्पादन के मुख्य केंद्र बन गए. मजेदार बात है कि मध्ययुग में चीनी एक दुर्लभ और बेहद कीमती मसाला मानी जाती थी. यह रोजाना के इस्तेमाल की वस्तु नहीं थी.
15वीं शताब्दी यानी आज से महज 500 साल पहले बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती और शुद्ध चीनी का निर्माण मेडीरा (पुर्तगाल) नाम के द्वीप समूह पर शुरू हुआ था
15वीं शताब्दी यानी आज से महज 500 साल पहले बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती और शुद्ध चीनी का निर्माण मेडीरा (पुर्तगाल) नाम के द्वीप समूह पर शुरू हुआ था. उस समय पुर्तगाल का ब्राजील पर कब्जा था और उन्हें लगा कि यहां गन्ना उत्पादन के लिहाज से अनुकूल जलवायु है. फिर यहां गुलाम लाकर गन्ने की खेती और इसपर आधारित अर्थव्यवस्था शुरू हुई. 1647 के कुछ समय पहले कैरेबियन द्वीप समूह पर भी गन्ने की खेती शुरू हो गई. अब चीनी का औद्योगिक उत्पादन शुरू हो गया था और इसके सबसे बड़े उपभोक्ता पश्चिमी यूरोप के देश थे.चीनी की अर्थव्यवस्था गुलामों के कारोबार पर फलीफूलीचीनी के बारे में कहा जा सकता है कि यह ऐसा खाद्य पदार्थ है जो हर किसी को पसंद है लेकिन इसकी जरूरत किसी को नहीं है. इसके बावजूद आज हम विश्व का जो स्वरूप देख रहे हैं उसके निर्माण में इसका काफी योगदान है. जैसा हमने ऊपर लिखा है कि ब्राजील और कैरेबियन द्वीप समूह में औद्योगिक उत्पादन के लिए इसकी खेती शुरू हुई थी. और तब बड़े पैमाने पर पहली बार गुलामों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया गया. एक अनुमान के मुताबिक 1501 से 1867 के बीच तकरीबन सवा करोड़ लोग अफ्रीका महाद्वीप से अमेरिका महाद्वीप भेजे गए थे. इस फसल ने लोगों को सिर्फ अपना घरबार छोड़ने पर ही मजबूर नहीं किया बल्कि लाखों लोगों की जान भी ली. माना जाता है कि गुलामों के हर जत्थे में 25 फीसदी तक लोग बीच सफर में ही मर जाया करते थे और इस दौरान 10 से 20 लाख लोगों के मारे जाने का अनुमान है.
चीनी के कारोबार का शिकार भारतीय भी हुए हैं. 19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों ने हजारों भारतीय बंधुआ मजदूरों को सूरीनाम, मॉरीशस, फिजी द्वीपों के साथ-साथ अपने कई दूसरे उपनिवेशों पर भेजा था. आज ये इन मजदूरों के वंशज इन देशों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं.
चीनी के कारोबार का शिकार भारतीय भी हुए हैं. 19वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजों ने हजारों भारतीय बंधुआ मजदूरों को सूरीनाम, मॉरीशस, फिजी द्वीपों के साथ-साथ अपने कई दूसरे उपनिवेशों पर भेजा था
इस तरह चीनी की बढ़ती खपत मानव कारोबार को बढ़ावा तो दे ही रही थी वह दूसरे उद्योगों के विस्तार में भी मददगार साबित हुई. अफ्रीका का कुलीनवर्ग गुलामों के कारोबार में लिप्त था और उसे गुलामों के बदले तांबा-कांसा जैसी धातुओं के बर्तन, शराब, कपड़े, तंबाकू और बंदूकों की जरूरत थी. इस तरह चीनी की बढ़ती मांग ने गुलामों की मांग को बढ़ावा दिया और इससे मध्य व दक्षिण पश्चिम इंग्लैंड के दूसरे उद्योगों को बढ़ावा मिला.आधुनिक युग का अभिशापचीनी और तंबाकू ऐसे दो उत्पाद हैं जिनका कई मामलों में करीबी जुड़ाव है. दोनों के उत्पादन और कारोबार के विकास में गुलाम मजदूरों की अहम भूमिका रही है. यह भी दिलचस्प है कि चीनी और तंबाकू को शुरुआत में सेहत के लिए फायदेमंद समझा जाता था. इन दोनों ही उत्पादों की जड़ें प्राचीन सभ्यताओं के विकास में खोजी जा सकती है. 17वीं शताब्दी के मध्य से इनकी विश्वव्यापी खपत तेजी से बढ़ी और ये अब वैश्विक स्वास्थ्य संकट की वजह बन गए हैं.
बीते सालों के दौरान स्वास्थ्य के संबंध में ‘औद्योगिक महामारी’ शब्द तेजी से प्रचलित हुआ है. इसका मतलब है कि वे औद्योगिक उत्पाद जो लोगों में कई तरह की खतरनाक बीमारियों के लिए जिम्मेदार हैं, मुनाफे के लिए उनको बढ़ावा देना. चीनी और तंबाकू को भी अब इस श्रेणी में शामिल किया जा सकता है. तंबाकू के बारे में तो यह माना ही जाता है कि लोगों को इसकी लत लग सकती है लेकिन आधुनिक शोध बताते हैं कि इंसानों पर चीनी का असर भी तकरीबन ऐसा ही होता है. इस नजर से देखें तो इस समय विश्व समुदाय पर चीनी की पकड़ शराब या तंबाकू की तुलना में कहीं ज्यादा है. विश्व अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विरासत का काफी अहम हिस्सा बन चुकी चीनी हमारी प्रतिदिन कैलोरी ऊर्जा का तकरीबन 20 फीसदी हिस्सा बनाती है.
तंबाकू के बारे में तो यह माना ही जाता है कि लोगों को इसकी लत लग सकती है लेकिन आधुनिक शोध बताते हैं कि इंसानों पर चीनी का असर भी तकरीबन ऐसा ही होता है
चीनी की एक तुलना पेट्रोलियम पदार्थों से भी हो सकती है. जीवाश्म से बना यह ईंधन आज पर्यावरण के लिए गंभीर संकट बनता जा रहा है लेकिन यह अब हमारे जीने के तौर-तरीके तय करता है. इसकी वजह से दुनिया की राजनीति और भूगोल में भी व्यापक बदलाव आए हैं और आ रहे हैं. इसी तरह से चीनी का कारोबार पूरे विश्व में सामाजिक-आर्थिक बदलाव की वजह बना है. इसने एक नस्ल, खासकर अफ्रीकी नस्ल की आबादी को दुनियाभर में पहुंचाया है. चीनी की उपस्थिति से हमारे रहन-सहन और सांस्कृतिक मानक भी तय हुए हैं.
2013 के आंकड़ों के मुताबिक विश्व की कुल फसल उत्पादन में 6.2 प्रतिशत हिस्सा गन्ने का था और कुल कीमत 9.4 प्रतिशत थी. यह छोटा-मोटा आंकड़ा नहीं है इसलिए चीनी की वजह से जो संकट विश्व स्वास्थ्य के लिए पैदा हो रहा है वह तब तक दूर नहीं हो सकता जबतक विभिन्न देशों की सरकारें इस संकट को स्वीकार करें और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के बूते इसे दूर करने की कोशिश करें.