12/27/2016

2016: भारत मूर्खता का इतिहास वर्ष!

2016: भारत मूर्खता का इतिहास वर्ष!

इसलिए कि दौड़ती-फुदकती आर्थिकी को झटके में बैठा देना विश्व इतिहास के पैमाने में एक राष्ट्र-राज्य का अपने पांव कुल्हाड़ी मारना है। दुनिया हैरान है। बौद्धिकता और आर्थिकी के वैश्विक थिंक टैंक के पैमाने पर एक राष्ट्र-राज्य के इस तरह अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने को न तो तर्कसंगत समझा जा रहा है और न इससे भारत निर्माण बूझा जा रहा है। बिजनेस की वैश्विक पत्रिका फॉर्ब्स के प्रधान संपादक स्टीव फॉर्ब्स ने इस शीषर्क से लेख लिखा – What India Has Done To Its Money Is Sickening And Immoral, यानी ‘भारत ने अपनी मुद्रा के साथ जो किया वह बीमार बनाने वाला और अनैतिक’ है।

स्टीव का तर्क है कि लोग अपनी मेहनत से उत्पादन करते है। उसका प्रतिनिधि उसका पैसा है। व्यक्ति का अर्जन उसकी मुद्रा, करेंसी है। सरकार अर्जन नहीं करती है, जनता करती है। सो, पैसा उसकी अर्जित प्रोपर्टी है। तभी भारत में जो हुआ है वह जनता की ंंंप्रोपर्टी पर डाका है, और ऐसा बेशर्मी से, बिना किसी प्रोसेस की आड़ रख कर हुआ है। यह वैसे ही है जैसे 1970 के दशक में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में जोर जबरदस्ती नसबंदी और नाजियों ने ‘जनसंख्या आधिक्य’ के हवाले अनैतिक कुकर्म किया था। भारत आज विध्वंसक-चरम स्थिति का वह उदाहरण है, जहां नकदी विरोधी पागलपन अर्थशास्त्र और सरकार को बहा दे रहा है!

सोचें, ये वाक्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आज के भारत की क्या इमेज लिए हुए है? अपने को गूढ़, बतौर निष्कर्ष वाली टिप्पणी लंदन की वैश्विक पत्रिका ‘द इकोनोमिस्ट’ की लगी। उसने लिखा कि आर्थिकी के मुद्रा का प्रबंधन किसी भी सरकार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम होता है। मौद्रिक (करेंसी) औजार का क्लमजी याकि लचर उपयोग अत्यधिक जोखिमपूर्ण होता है। अर्थशास्त्री जॉन एम किन्स ने भी 1919 में लेनिन की लिखी इस बात की ताकीद की थी कि समाज के विद्यमान आधार को ध्वस्त करने का निश्चित, तयशुदा तरीका यदि कोई है तो वह करेंसी को डिबॉच (हराम) बनाने का है! विश्वास बहुत अमूल्य और नाजुक होता है।
क्या यहीं 2016 में भारत राष्ट्र-राज्य की मूर्खता की आधार थीसिस नहीं है? आठ नवंबर 2016 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट रद्द कर भारत की आर्थिकी, सवा सौ करोड़ लोगों के उसके अर्जन, उसके पैसे में जो अमूल्य-नाजुक विश्वास था, उसे क्या खत्म नहीं किया? भारत ने दुनिया को जताया है कि मौद्रिक औजार का सरकार का उपयोग लचर ही नहीं है, बल्कि हर मायने में मूर्खतापूर्ण, अनैतिक, जी मितला कर उलटी करा देने वाला है। न अमल का रोडमैप, न अमल का प्रबंधन, न उद्देश्य की प्राप्ति और न भविष्य की दृष्टि का कोई प्रमाण! भारत सरकार, रिजर्व बैंक, बैंकिंग व्यवस्था सब की जग हंसाई और परिणाम कुल मिला कर यह कि सात-सवा सात फीसदी की फुदकती आर्थिकी जमीन पर ठहरी, ठिठकी हुई!
इस बात के वैश्विक पैमाने पर जितने अर्थ हैं उससे अधिक गहरे अर्थ हमारे लिए, हमारे संदर्भ में हैं। आखिर सवा सौ करोड़ लोग आज भले न सोचें, साल बाद, पांच साल बाद, बीस साल या सौ साल बाद इतिहास क्या सोचेगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के इतिहास में अपना नाम निश्चित ही दर्ज करा लिया है। इतिहास में यहीं लिखा जाएगा कि भारत दुनिया का वह अनहोना देश है, जहां मध्यकाल में तुगलक नाम का राजा था तो आधुनिक काल में नरेंद्र मोदी नाम का प्रधानमंत्री बना और दोनों ने देश की करेंसी खत्म कर, जनता के अर्जित पैसे को लूटा। बरबादी कराई। दौड़ रहे देश को बैठा दिया। करेंसी में अमूल्य-नाजुक विश्वास को तोड़ कर!
हां, अमूल्य और नाजुक विश्वास का जुमला बहुत अहम है। भारत का समाज परंपरा और वर्तमान की जिन धाराओं की जमीन पर बना है उसमें पैसे को ले कर जनमानस का विश्वास गहरे पैठा रहा है। इसके मनोविज्ञान में दस तरह की बाते हैं। महिलाओं ने पेट काट, सबसे बचा कर अपनी बचत बनाई तो ऐसा इस विश्वास के चलते था कि यहीं तो उसकी सुरक्षा है। उसका कमाया, बचाया पैसा है। उसका है इसलिए हमेशा उसका रहेगा। मतलब कभी अमान्य नहीं हो सकता।
तभी, दुनिया सोच रही होगी कि जो देश, जिस देश की सरकार अपने लोगों के साथ ऐसा अनैतिक, डाके मारने वाला व्यवहार कर सकती है तो उस देश में जा कर काम धंधा करना क्या सुरक्षित होगा? दुनिया का विश्वास भारत से, उसकी सरकार की मूर्खता से टूटा है। इकोनोमिस्ट ने जो लिखा है उसका अर्थ यहीं है कि किसी देश के होने, चलने और उसके बनने में विश्वास की पूंजी अमूल्य और नाजुक होती है। उसे आठ नवंबर के दिन नरेंद्र मोदी ने अपनी सनक में, बिना सोचे-समझे जैसे खत्म किया है उससे इस देश का आम मानस सालों-साल उबर नहीं पाएगा। वक्त गुजरने के साथ लगातार धारणा बनेगी, पैठेगी, इतिहास में दर्ज होगी कि वह कैसा 2016 का वर्ष था, जिसमें भारत ने, उसकी सरकार ने मूर्खता का अकल्पनीय, अनैतिक फैसला किया।

बहरहाल, इतिहास की कसौटी पर 2016 के नोटबंदी फैसले पर विचार हो। भारत की जिंदा आर्थिकी में से 86 प्रतिशत नोटों वाला खून सोख लेने जैसा काम क्या इतिहास में किसी और देश में हुआ है? नहीं हुआ है। रूस, जिंबाब्वे जैसे जो उदाहरण हैं वे दिवालिया दशा, या सोवियत संघ के बिखरने जैसी दशा में नई करेंसी, आर्थिकी को रीबूट करने के लिए थे। वैसी स्थितियों में भारत आठ नवंबर को नहीं था। हां, उसकी आर्थिकी में काले धन वाले मगरमच्छ थे पर मगरमच्छों का रूप रियल एस्टेट, सोने-चांदी-जेवरात-विदेशी बैंकों में डॉलर या एफआईआई निवेश आदि का था। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन-जन के तालाब में छुपे काले धन के मगरमच्छों पर वार करके यह सनक पाली कि इससे लोगों के बीच के मोटे सेठ पकड़े जाएंगे। लोग वाह करेंगें। तभी एक झटके में नकद करेंसी वाली आर्थिकी के भाखड़ा नांगल बांध से 86 फीसदी पानी सोख उसे खाली करा दिया, इस उम्मीद में कि मगरमच्छ एक्सपोज होंगे, पकड़े जाएंगे।

वह हुआ नहीं। सो, आज भारत का भाखड़ा बांध सूखा पड़ा है। तालाब, सागर सूखा है और मगरमच्छ जैसे पहले गायब थे वैसे आज भी ओझल हैं। ये बैंक मैनेजरों, सिस्टम के जरिए पानी से निकल जमीन रास्ते जंगलों में लुप्त हो गए है। बेचारी जनता याकि मछलियां लाचार, बेबस तड़प रही हैं, मर रही हैं। न जनता को जीने का पानी मिल रहा है और न बिजली बन रही है। आर्थिकी के चक्के जाम हैं।

क्या ऐसा प्रयोग अमेरिका सोच सकता है? जान लें वहां भी आर्थिकी में काले धन का हिस्सा है। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इटली, स्वीडन सब काला धन लिए हुए हैं तभी तो बोफोर्स से ले कर तमाम हथियार सौदों की यहीं से रिश्वत विदेशी बैंकों में जाती है।

पर ये देश अर्थशास्त्र के कायदे में, याकि करेंसी के प्रति विश्वास को अमूल्य बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। इन्हें पता है कि विश्वास टूटा तो देश का नागरिक हो या विदेशी निवेशक सभी का व्यवहार बदलेगा। मूल बात विश्वास की है। इसका आम नागरिक के, इंसान के जीवन में जैसा महत्व होता है वैसे ही राष्ट्र-राज्य भी विश्वास पर बनते-बिगड़ते हैं। इसमें नंबर एक पैरामीटर, प्रतीक करेंसी होती है। उसके प्रबंधन में खेल या मूर्खता वैसी हो ही नहीं सकती जैसी 2016 के भारत में हुई है।

इसलिए कोई माने या न माने, अपना मानना है कि इतिहास में 2016 का वर्ष भारत की मूर्खता के इतिहास वर्ष के रूप में सदैव उल्लेखित रहेगा। इसलिए भी कि 2016 का असर 2017 में होगा तो 2018 में भी। एक बार जब विश्वास टूटा है तो लोगों के घायल हो कर बैठने से ले कर देशी-विदेशी निवेशकों की अनास्था में क्या कुछ होगा, यह आने वाले साल बताएंगे। लोगों की बदहाली और आर्थिकी की बरबादी का प्रारंभ तो 2017 से होना है!
आप नहीं मानते? वक्त अपने को सही साबित करेगा।

संकलन
न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र
पं. एल.के.शर्मा