2/25/2017

क्या आप Overthinking के शिकार तो नहीं हैं


Health Article#113

क्या आप Overthinking के शिकार तो नहीं हैं?

आजकल कुछ लोग बहुत अधिक सोचने (Overthinking) लगे हैं। सोहन को ही देख लीजिए।

सोहन अपने घर से ऑफिस के लिए कुछ सोचता हुआ बाहर निकला। लगातार कुछ सोचते हुए वह अपने ऑफिसपहुंचा। ऑफिस पहुंचकर उसे ध्यान आया कि जिस बस से वह आया, उस बस में वह अपना लंच बॉक्स भूल गया है।ऑफिस में भी वह कुछ सोच रहा था कि तभी एक चपरासी उसके पास आया और उसने बताया कि अभी थोड़ी देर पहले उसने एक फाइल में गलत जगह साइन कर दिए हैं, बॉस बहुत गुस्सा होकर उसके पास ही आ रहा है।Stop

Overthinkingऑफिस से लौटते समय अधिक सोचने के कारण उसके सिर में दर्द होने लगा। घर पहुंचा तो सिर के दर्द के बारे में इतना सोचने लगा कि अपने परिवार से एक भी बात शेयर नहीं कर पाया।डिनर के टाइम सिर में दर्द बहुत बढ़ने के कारण वह खाना भी नहीं खा पाया। फिर कुछ ही समय बाद जब वह कुछ सोच रहा था तो उसके छोटे से बेटे ने अपना होम वर्क कराने को कहा तो केवल इसी बात पर उसने अपने बेटे को डांट दिया।परिवार में किसी ने कुछ कहा तो उससे लड़ बैठा और कुछ सोचते हुए देर रात में उसे नींद आ गई।

दोस्तों! सोहन जैसी लाइफ आजकल बहुत से लोग जिये जा रहे हैं। ऐसी अस्त-व्यस्त लाइफ का केवल एक ही कारण है और वह है– अत्यधिक सोचना (Over Thinking)

आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी (Busy life) में प्रत्येक व्यक्ति बहुत व्यस्त होता जा रहा है। अधिक काम होने की वजह से वह अधिक सोचने लगा है। और यही अधिक सोचना (Overthink) उसके लिए घातक बनता जा रहा है।सोचना बुरा नहीं होता बल्कि सोचना तो मानव का एक जरुरी स्वभाव है लेकिन जरुरत से अधिक सोचना बिलकुल गलत है। जरुरत से अधिक सोचने पर हमारा अपने ही मन और शरीर पर कंट्रोल नहीं रहता है और तरह-तरह के हमें नुकसान उठाने पड़ते हैं।कोई व्यक्ति अधिक क्यों सोचने लगता है?

अब मैं आपको बताता हूँ कि ऐसे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से लोग overthinking करने लगते हैं–

1-आजकल लोगों के ऊपर वर्कलोड बहुत अधिक हो गया है। किसी एक जॉब से जीवन को सही से चलाना कठिन होता जा रहा है। इसी वजह से व्यक्ति अधिक काम करने के साथ-साथ अधिक सोचने भी लगा है।

2-एक कार्य पूरा होता नहीं कि चार कार्य pending में लगजाते हैं। अतः आजकल व्यक्ति एक कार्य करते हुए किसी दूसरेकार्य के बारे में सोचता रहता है।

3-ऑफिस से मनचाहा payment न मिल पाना, society में मनचाही इज्जत न मिल पाने के कारण भी बहुत से लोग overthinking करने लगते हैं और इसी वजह से जो वह चाहते हैं वह उन्हें नहीं मिल पाता है।

4-आजकल एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी हुई है। कैसे भी हो, दूसरों से आगे निकलना बहुत जरुरी है। प्रतियोगिता की ऐसी भावना किसी भी व्यक्ति को overthinking को मजबूर करती है।

5-घर से और बाहर कहीं से मिलने वाला pressure, अधिक कमाने की इच्छा, समय से पहले बड़ी सफलता (Big success)प्राप्त करने की चाहत आदि ऐसे बहुत से कारण है जिसकी वजह से व्यक्ति जरुरत से अधिक सोचने पर मजबूर हो जाता है।

जिस तरह लोगों में overthinking बढ़ती जा रही है, यह एक बहुत चिंता का विषय है। हर समय सोचते रहना और उससे कोई भी लाभ न होकर केवल नुकसान होने को ही चिंता (worry) कहते हैं।किसी ने सही कहा है कि चिंता (Worry) और चिता (Pyre) में कोई अंतर नहीं होता। और अगर कोई अंतर है भी, तो केवल एक बिंदु (.) का अंतर होता है।

लगातार और अधिक सोचते रहने से हमारा दिमाग एक जलती हुई भट्टी की तरह बन जाता है। यह जलती हुई भट्टी खुद भी जलती है और उसको भी जलाती है जो इसके पास आता है। अर्थात एक overthink करने वाला व्यक्ति खुद तो इसका नुकसान उठाता ही है बल्कि उस व्यक्ति के आसपास रहने वाले लोगों को भी नुकसान उठाना पड़ता है।

अधिक सोचने से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं?

Losses Of Overthinkingoverthinking से होने वाले नुकसान बहुत अधिक हैं। उनमे से कुछ, मैं यहाँ आपको बताने जा रहा हूँ–

1-Overthinking से हमारे मन में नकारात्मकता (Negativity) आने लगती है और हम Negative thinking के शिकार हो जाते हैं।

2-Overthinking से हम फालतू की बातें बहुत सोचने लगते हैं। इन फालतू की बातों का न तो कोई कारण होता है और न ही इनका कोई वजूद होता है।

3-Overthinking से हमें भूलने (Forget) की बीमारी हो जाती है। हम छोटी-छोटी बातों को भी भूलने लगते हैं जिससे हमारी दिनचर्या बहुत गड़बड़ा जाती है।

4-Overthinking से अनेक तरह के रोग (Disease) लग जाते है। भूख कम लगना, सिर में हर समय दर्द रहना, चिड़चिड़ाहट हो जाना आदि बहुत सी समस्याएं हमारे शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं।

5-Overthinking से व्यक्ति न तो समाज से अच्छे रिलेशन रख पाता है और न ही घर के लोगों से अच्छे संबंध बना पाता है।

अब एक काम की बात आपको बताना चाहता हूँ। दोस्तों!हर समस्या का एक समाधान जरूर होता है।Problem जब भी आती हैतो अपने साथ Solution भी साथ में ही लेकर आती है।जब overthinking एक समस्या है तो इसके समाधान भी जरूर होंगे।

अधिक सोचने से कैसे बचा जा सकता है?

अब मैं आपको overthinking से कैसे बचा जाये या overthinking से होने वाली problems से कैसे बचा जाये, इस बारे में आपको बताता हूँ–

1- वर्तमान में रहने की आदत डालें (Living in the present moment)-अधिक सोचने वाला व्यक्ति कभी अपने अतीत (past) बारे में सोचता रहता है तो कभी अपने भविष्य (future) बारे में सोचता रहता है। इससे बचने के लिए वर्तमान में रहने की आदत डालें। अपने आसपास की घटनाओं पर ध्यान दें और जो कार्य आप कर रहें हैं उस पर अपना ध्यान केंद्रित करें।

2- अपना मनपसंद काम करें (Do what you like)-जब भी आपको free time मिले तो उस समय आप अपने पसंद के कार्य करो। इसके लिए आप writing कर सकते है, कोई game खेल सकते हैं, swimming कर सकते हैं। आप हर वह अच्छा काम कर सकते हैं जो आपको पसंद हों।

3- सोचना थोड़ा कम करें (Think less)-आप कोशिश करें कि थोड़ा कम सोचा जाए अर्थात उतना सोचें जितना जरुरी है। सोचना व्यक्ति की habit होती है लेकिन यदि सही समय पर सहीबात सोची जाये तो वह फायदा देती है। अतः अधिक सोचने की जगह कम तथा अच्छा सोचें।

4- फालतू की बातों को भूलना सीख लें (Forget to useless thinking)-जब भी फालतू की बातें आपके दिमाग में आएं तो तुरंत अलर्ट हो जाएं और उन बातों को अपने mind से तुरंत निकाल दें। ऐसा करने में शुरू में आपको कुछ परेशानी होगी लेकिन यदि आप मन में ठान लेंगे तो बाद में ऐसा करना आपके लिए बहुत आसान हो जायेगा।

5- अच्छा सोचने की आदत डालें (Develop the habit of good thinking)-आपको अच्छा सोचने की आदत डालनी चाहिए। अच्छा सोचने से negative thinking के लिए हमारे mind जगह नहीं रहती। अच्छा सोचने से मन प्रसन्न भी रहता है और कार्य में मन भी लगता है। अतः अच्छा सोचें और अच्छा करें।

6- संगीत सुने और मैडिटेशन करें (Listen to music and take meditation)-overthinking से बचने के लिए आप अपनामनपसंद Music सुन सकते हैं। अच्छा संगीत मन को टेंशन फ्री रखता है। आप meditation का प्रयोग भी कर सकते हैं। इससे आप अपने मन को अच्छा और कम सोचने के लिए motivate करपाओगे।

7- खाली (फ्री) न बैठें (Don’t sit free )-कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जब भी आप free बैठें होंगे तो आपके दिमाग में फालतू की बातें आती रहेंगी और आप बहुत अधिक सोचने लगेंगे। इससे बचने के लिए आप हमेशा कुछ न कुछ जरूर करते रहें। busy रहने से फालतू की बातें mind में कम आती हैं।



आर्टिकल पढ़ने के लिए आपका धन्यावाद।

2/22/2017

जार्ज वाशिंगटन,सबसे ज्यादा सैलरी लेता था ये राष्ट्रपति, और उसे शराब और जुए में उड़ा देता था.


सबसे ज्यादा सैलरी लेता था ये राष्ट्रपति,
और उसे शराब और जुए में उड़ा देता था.

जॉर्ज वॉशिंगटन अमेरिका के पहले राष्ट्रपति हैं. इनकी फोटो डॉलर पर छपती है. जॉर्ज को अमेरिका में सर्वोच्च आर्मी जनरल (जनरल ऑफ द आर्मीज़ ऑफ अमेरिका) का दर्जा मिला हुआ है. मतलब इनकी पोस्ट तक कोई और कभी नहीं पहुंचेगा. वॉशिंगटन ने देश को आज़ाद करवाया और पहले राष्ट्रपति बन गए मगर जॉर्ज का जीवन कई विवादों और अजीबो-गरीब संयोगों से भरा रहा. 22 फरवरी को पैदा हुए जॉर्ज वॉशिंगटन के बारे में कुछ रोचक किस्से पढ़िए.

सबसे ज़्यादा सैलरी पर सब उड़ा दी

1789 में वॉशिंगटन तनख्वाह के तौर पर अमेरिका के बजट का 2 प्रतिशत लेते थे. मतलब अगर आज की तारीख में वॉशिंगटन राष्ट्रपति होते तो साल में करीब 12,000 करोड़ रुपए की सैलरी उठा रहे होते. इस सैलरी से भी बड़ी बात ये है कि वॉशिंगटन बाबू ने इसमें से ज़्यादातर शराब और जुएं में खो दी थी. हालत यहां तक पहुंची की अपने पहले इनॉग्रेशन में जॉर्ज पैसा उधार लेकर पहुंचे. (और आप हर बात में ट्रंप को दोषी ठहरा देते हैं.)

सबसे बीमार राष्ट्रपति

जब वॉशिंगटन ने शपथ ली थी तो उनका एक दांत बाकी बचा था. खूब तंबाकू खाते थे (क्या पता पिछले जनम में कान्हेपुर के हों ). इसके अलावा वो डिप्थीरिया, टीबी, चेचक, कब्ज़, निमोनिया, कार्बंकल, टॉन्सिल, मलेरिया, एपिग्लॉटिटिस जैसी और कई बीमारियों से ग्रस्त थे. वॉशिंगटन को अमेरिका का सबसे बीमार राष्ट्रपति माना जाता है.

दवा के चलते नपुंसक और दोस्त की बीवी से प्यार

बताया जाता है कि वॉशिंगटन दवाओं की ओवर डोज़ के चलते नपुंसक हो गए थे. उनकी कोई संतान भी नहीं हुई. वॉशिंगटन अपनी एक नौकरानी के लड़के को अपना बताते थे. मगर उसके बच्चा होने से दो साल पहले तक वॉशिंगटन युद्ध के मैदान में थे और कभी घर नहीं आए थे. जॉर्ज को अपने दोस्त की बीवी से प्रेम हो गया था. उन्होंने ‘वोटरी ऑफ लव’ नाम से पत्र लिखा जो आज भी मौजूद है. वैसे ज़्यादातर अमेरिकी इतिहासकार कहते हैं कि जॉर्ज की संतान न होना अमेरिका के लिए अच्छा रहा. अमेरिका वंशवाद से बच गया.

अपनी शराब की फैक्ट्री

वॉशिंगटन की अपनी व्हिस्की की फैक्ट्री थी. उनके यहां साल में 45,000 लीटर शराब बनती थी. (सारी पीते नहीं थे, बेचते भी थे). इसके साथ ही एक बात और वॉशिंगटन की वो चेरी के पेड़ वाली कहानी भी झूठी है. नेताओं की इमेज अच्छी करने के लिए उनके बाल जीवन के किस्से लिखवाना एक पुरानी परंपरा है, समझ गए न.

किस्मत सबसे तेज़ थी

वॉशिंगटन अपने कार्यकाल में जितने युद्ध जीते उससे ज़्यादा हारे. युद्ध में उनके कोट को फाड़ती हुई दो गोलियां पीछे खड़े घोड़ों को लगीं. अब घोड़े मर गए या बच गए ये कन्फर्म नहीं है. पाठक स्वयं प्रयास करें और पता करके बताएं. जॉर्ज को खरोंच भी नहीं आई. इसके अलावा वॉशिंगटन पहले ब्रिटिश फौज की तरफ से लड़े. इन सब के बावजूद उन्हें अमेरिका का पहला राष्ट्रपति बनने का मौका मिला और दुनिया के सबसे ताकतवर देश की करेंसी पर छपने का भी.

कन्फ्यूजन में जान चली गई

वॉशिंगटन बीमार थे एल्बिन रॉलिंस नाम के सज्जन उनका खून लेने के लिए लेने आए. वॉशिंगटन ने अपनी बांह सामने करके कहा कि ‘डरो मत जितना चाहो ले लो.’ एल्बिन ने चार राउंड में शरीर से पांच बोतल (80 आउंस) खून निकाल लिया. (सच है भाई). महामहिम बेहोश हो गए. उनके सेक्रेटरी कर्नल टॉबियस लियर को बुलाया गया. वॉशिंगटन बीच में होश में आए और अपने अंतिम संस्कार के निर्देश दिए. इसके कुछ ही देर बाद वॉशिंगटन की मृत्यु हो गई.

संकलन
न्यूज़,मिडिया
प्रस्तुति
पं. एल.के.शर्मा
लेखक,प्राध्यापक,अधिवक्ता.

2/19/2017

'त्याग का गुणगान कर आप अपनी मां को बेवकूफ बनाते हैं'

आटा सानते वक़्त मां जिस तरह सूखे आटे का पहाड़ बना, उसमें गड्ढा कर, धीरे से पानी गिराती थीं, वो जादुई होता था. फिर कुछ ही समय में वो आटा रोटी में तब्दील हो जाता. सूखे आटे का रोटी बन जाना जैसे एक असंभव काम था. जिसे सिर्फ मां ही कर सकती थी. बेतरतीबी से बंधे हुए मां के जूड़े से हमेशा बाल की एक पतली से लट छूट जाया करती जो पसीने से गर्दन में चिपकी रहती. हमारे नीची छत वाले किचन में रोटियां सकते हुए गर्मी बढ़ जाती और मां पसीने से नहा उठती. सब काम निपटा कर मां सुलाने आती. उनके ठंडे, गुलगुले पेट को छूना भी जादुई था.

पर कोई मां से पूछता, उनके लिए इसमें कुछ भी जादुई नहीं था. पेट के मुलायम होने के पीछे एक कहानी थी, बच्चा पैदा करने वाले दर्द, और उसके बाद की गई सर्जरी की. पेट की ठंडक में उनका सूखा हुआ पसीना था जो उन्होंने काम करते हुए बहाया था.
ये सिर्फ एक मां की कहानी नहीं है. मांएं हर घर में होती हैं. हमारे ‘संस्कारी’ परिवारों के अंदर, रोटियां बेलतीं, बच्चे पैदा करतीं. बहू बनतीं, पत्नियां बनतीं. और अपनी मां की सिखाई हुई बातों से अपने पति के घर को जोड़तीं.

जब आप छोटे थे, आप उनकी कद्र नहीं करते. फिर आप बड़े होते हैं. तो पाते हैं आप कितने गलत थे. मां ने आपके लिए कितने त्याग किए. फिर आप कृतज्ञ महसूस करते हैं. मां को गिफ्ट भेजते हैं. उनके लिए पिता से लड़ जाते हैं. उनको साथ तस्वीरें खींचते हैं. मदर्स डे मनाते हैं. तमाम बड़े-बड़े कवियों की मां पर लिखी कविताएं अपनी मां को भेजते हैं. उनके हर त्याग को सलाम करते हुए. और इस तरह आप उनके त्याग को सही ठहरा देते हैं. आपकी मां खुश होती हैं कि उनके त्याग का फल उन्हें मिल गया.

कुछ ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं, मां के लिए एक दिन क्यों, सारे दिन मां के होते हैं. और इस तरह तमाम माओं के त्याग जस्टिफाई हो जाते हैं. पुरानी मांएं नई माओं के लिए मिसाल बन जाती हैं.
मां की बड़ाई करना मानो एक फेटिश है. ये आपको खुशी देता है. अगर आप पुरुष हैं, तो समाज में इज्जत कमाने का श्योरशॉट तरीका है मां की इज्जत करना. क्योंकि आप मर्द होते हुए भी मां को समझते हैं, इसे एक बड़ी बात की तरह देखा जाता है.

सोशल मीडिया पर मां के साथ तस्वीर लगा कर आपका मॉरल लेवल ऊंचा हो जाता है. मां जितनी बूढ़ी, मॉरल लेवल उतना ज्यादा. फिर अगर आप नेता या देश के प्रधानमंत्री हैं, तो बात ही क्या हो. लोग कहेंगे, देखो इतना बिजी होते हुए भी मां के लिए समय निकाल लेता है.
मां से थोड़ा कम मॉरल लेवल बहन का होता है. इसीलिए ‘घर में मां बहन नहीं हैं क्या’ कह किसी भी मर्द को आसानी से शर्मिंदा किया जा सकता है. या उसको ‘मां की गाली’ दे कर गुस्सा निकाला जा सकता है. वहीं अपने भाषण में ‘औरतों’ की जगह ‘माताओं और बहनों’ का प्रयोग कर एक ‘ज्यादा’ इज्जतदार आदमी बना जा सकता है. ये शब्द आपको लोगों का फेवरेट बनाते हैं.

मां आपके लिए एक मॉरल शब्द है, क्योंकि आप उसके साथ मॉरल जोड़ देते हैं. जिस मां के बारे में आप फेसबुक पर लिख रहे होते हैं, वो आपको पैदा करने वाली, आपसे प्रेम करने वाली, आपके लिए त्याग करने वाली मां होती है. क्या आप उस मां के बारे में बाखुशी लिख सकते हैं जो अपनी मर्ज़ी से मां नहीं बनी? या जो शादी के पहले प्रेगनेंट हुई? जिसने अबॉर्शन कराया? जो रेप की वजह से मां बनी? क्या आप उस मां की तारीफ़ करते हैं जिसके बच्चे के बाप का पता नहीं होता? जो सेक्स वर्क करने के कारण मां बनी? या जिसने बच्चा पैदा कर अनाथालय में छोड़ दिया? या जिसे दो देशों में युद्ध के समय दुश्मनों ने गैंगरेप कर मां बना दिया? क्या आप सोचते हैं कि जिस वक़्त आपकी मां प्रेगनेंट हुई, उसने प्रेगनेंट होना प्लान भी किया था या नहीं?
आप नहीं सोचते. क्योंकि आप मां होने को सेक्स से जोड़कर नहीं देख पाते. क्योंकि मां का मॉरल लेवल जितना बड़ा होता है, सेक्स का उतना ही कम. बल्कि सेक्स का कोई मॉरल लेवल होता ही नहीं है. जबकि आपकी पैदाइश ही सेक्स के कारण होती है.

आपके दिमाग में मातृत्व की एक छवि है. कि मां दर्द सहन कर आपको दुनिया में लाई. उसने आपको पाल-पोसकर बड़ा किया. क्या आप उस मातृत्व को समझते हैं, जब घर छोड़ कर बाहर पढ़ने आई एक लड़की अपनी सहेली के सीने पर फूट-फूटकर रोती है. और उसकी सहेली उसे चिपका लेती है. जब किसी सस्ते होटल या किसी सीले हुए किराए के कमरे में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलता है और अपना सारा पुरुषत्व गला कर खुद को अपनी प्रेमिका के सीने पर छोड़ देता है. उसकी प्रेमिका उसके सर पर हाथ फेरते हुए जिस मातृत्व को महसूस करती है, उसे समझते हैं आप? नहीं, क्योंकि वो आपके मॉरल खांचे में फिट नहीं होता. उन मूल्यों पर खरा नहीं उतरता जिसकी नींव पर मदर्स डे खड़ा होता है.

जब आप औरतों को पढ़ाने की बात करते हैं, तो ये तर्क देते हैं कि पढ़ी-लिखी लड़की, एक बेहतर मां बनेगी. अपने बच्चों को पढ़ाएगी. और देश की सेवा के लिए बेहतर बच्चे जनेगी. जब आप एक लड़के की पढ़ने की बात करते हैं, तो क्या आप कहते हैं कि वो बेहतर बाप बनेगा?
आज जब मैं आटा सानने बैठती हूं, मुझे मां की याद आती है. लहसुन छीलते हुए मां की उंगलियों से आने वाली महक याद आती है. पार्टी करते वक़्त मां की याद नहीं आती. क्योंकि मां को कभी पार्टियों में झूमते नहीं देखा.

मां, तुम ‘त्याग की मूर्ति’ नहीं, भोली थीं, डरपोक थीं

आपने जब भी मां को याद किया, उसके त्याग को याद किया. लेकिन कभी सवाल किया कि वो ये सारे त्याग क्यों करती रही? क्यों उसने अपनी मर्ज़ी का खाना नहीं बनाया? क्यों उसने कभी नहीं कहा मैं सिर्फ तब खाना बनाउंगी, जब जी करेगा. क्यों उसने सर पर पल्लू रखने पर सवाल नहीं उठाया? क्यों अपनी सास की हर बात मानती रही? क्यों नौकरों की तरह अपने पति की सेवा करती रही? क्यों सबको खिलाकर ही खाया? क्यों कभी नहीं कहा, बहुत भूख लगी है, ज़रा चाट खा कर आती हूं? उसने क्यों अपने जीवन को वैसे नहीं जिया, जैसे आप जी रहे हैं?

क्यों आप अपनी मां से नहीं कहते, मां, तुम भोली थीं. तुम दूसरी मांओं की तरह डरपोक थीं. जो तुमने जिया नहीं.
जितनी बार आप उसके त्याग का गुणगान करते हैं, आप अपनी मां को बेवकूफ बनाते हैं. और सिर्फ आपने ही नहीं, दुनिया की तमाम होने वाली मांओं को भी. उन मांओं की बेइज्जती करते हैं, जो आपके मॉरल खांचे में फिट नहीं होतीं. उन औरतों की बेइज्जती करते हैं जो मां नहीं बनना चाहतीं.

संकलन 

न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र

आपका
पं. एल.के.शर्मा
अधिवक्ता,लेखक,प्रद्यापक,समाजसेवी।

2/17/2017

'मैं धारक को मूर्ख बनाने का वचन देता हूं'


'मैं धारक को मूर्ख बनाने का वचन देता हूं'

नोटबंदी हुए 100 से कुछ ज़्यादा दिन हो गए हैं. हालांकि प्रधानमंत्री ने 50 दिन मांगे थे. लेकिन हालात हैं कि सामान्य होने का नाम नहीं ले रहे हैं. न लोगों के लिए, न रिजर्व बैंक और सरकार के लिए. नोटबंदी के फैसले और उसे लागू करने के तरीके पर लगातार सवाल उठाए गए. नोटबंदी का एजेंडा जिस तरह कालेधन से ई-पेमेंट पर आया, उससे लोगों को ये भी लगा कि उन्हें मूर्ख बनाने की कोशिश हुई. अब एक मीडिया रिपोर्ट आई है जिसके मुताबिक इस बात की संभावना है कि रिजर्व बैंक ने रघुराम राजन के गवर्नर रहते उर्जित पटेल के दस्तखत वाले नोट छाप दिए हों.

हर नोट एक कागज़ का टुकड़ा बस होता है. इसकी कीमत उस गारंटी से होती है जो केंद्र सरकार देती है. ‘ मैं धारक को…’ वाली लाइन के नीचे रिजर्व बैंक गवर्नर का दस्तखत इस बात की तस्दीक करता है. एक गवर्नर के कार्यकाल में छपने वाले नोटों पर उसके दस्तखत होते हैं.

गवर्नर पद के लिए उर्जित का नाम 21 अगस्त को सामने आया था. उन्होंने गवर्नर पद का चार्ज 4 सितंबर को लिया. लेकिन ‘हिंदुस्तान टाइम्स’  के हवाले से खबर है कि रिज़र्व बैंक के दो प्रेस में 2000 के नोट छापने के ‘प्रारंभिक कदम’ 22 अगस्त 2016 को ही उठाए लिए गए थे. इस तरह कम से कम कुछ नोटों पर रघुराम राजन के दस्तखत होने चाहिए थे.

एक बात ये भी है कि रिजर्व बैंक को 2000 के नए नोटों को छापने की अनुमति केंद्र सरकार ने 7 जून 2016 को ही दे दी थी. इसके बाद नई सीरीज़ छापने की तैयारी शुरू कर दी थी. आमतौर पर नए नोट छापने का आदेश मिलते ही प्रेस में छपाई शुरू हो जाती है. ये सब खुद रिजर्व बैंक ने दिसंबर में एक संसद समीति को बताया था.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में एक बात और सामने आई है. 500 के नए नोटों की छपाई 23 नवंबर को ही शुरू हुई. साफ है कि नोटबंदी की घोषणा के वक्त सरकार (और रिज़र्व बैंक का भी) ध्यान केवल 2000 के नोट छापने पर था. इस से बाज़ार में चिल्लर की जो कमी हुई, उस पर पर्याप्त लिखा जा चुका है.

इस बात से दो महत्वपू्र्ण सवाल खड़े होते हैंः

पहला ये कि क्या नोटों पर पटेल के दस्तखत होने से किसी नियम की अनदेखी हुई?

दूसरा ये कि रघुराम राजन का जाना तय होने के बाद बड़े लंबे समय तक इस बात पर संशय था कि उनकी जगह कौन लेगा. राजन के रिटायर होने की तारीख के बहुत नज़दीक आने पर ही उर्जित का नाम सामने आया. यदि मीडिया रिपोर्ट में जताई संभावना वाकई में सच है तो क्या सरकार ने गवर्नर पद की अपनी पसंद जानबूझ कर लोगों से छुपाई? ऐसा क्यों हुआ?

रिज़र्व बैंक एक महत्वपूर्ण संस्था है जिसके काम करने के तरीके पर पिछले दिनों कई प्रश्न उठे हैं. खासकर इस बात पर कि कहीं बैंक सरकार के प्रभाव में तो काम नहीं कर रहा, जिसका डर जताया जा रहा है.

ग्रीन कार्ड के लिए हर सप्ताह 3 भारतीय खर्च कर रहे 5 लाख डॉलर

ग्रीन कार्ड के लिए हर सप्ताह 3 भारतीय खर्च कर रहे 5 लाख डॉलर

अमेरिका में रहने और वहां की जिंदगी जीने के सपने को पूरा करने के लिए औसतन हर सप्ताह 3 भारतीय 5 डॉलर खर्च कर रहे हैं। यह पैसा ईबी-5 इन्वेस्टर वीजा प्रोग्राम के तहत ग्रीन कार्ड पाने के लिए खर्च किया जा रहा है। ईबी-5 विदेशी नागरिकों और उनके परिवार (उनके 21 साल तक के बच्चे) को ग्रीन कार्ड और स्थायी रेजिडेंसी उपलब्ध कराता है।

ग्रीन कार्ड और स्थायी रेजिडेंसी पाने के दो तरीके हैं। पहला, 10 लाख डॉलर के निवेश के साथ बिजनस शुरू करना और कम से कम 10 लोगों के लिए फुल टाइम रोजगार पैदा करना। दूसरा तरीका सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त ईबी-5 बिजनस में 5 लाख डॉलर यानी 3.4 करोड़ रुपये का निवेश करना और ग्रामीण क्षेत्र में 10 या उससे अधिक लोगों को फुल टाइम जॉब देना।

एलसीआर कैपिटल पार्टनर्स के सह-संस्थापक रोहेलियो कासरेस ने बताया, 'हमने छोटे से वक्त में 210 निवेशकों को जोड़ा है और इसमें 42 भारतीय हैं। ईबी-5 प्रोग्राम के लिए बियान, रिलायंस, आदित्य बिड़ला और मैककिन्सी के टॉप एक्जक्युटिव ने भी अपनी रुचि दिखाई है। वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे अमेरिका में नौकरी के लिए अनिश्चतता का सामना करें।' एलसीआर कैपिटल पार्टनर्स इन्वेस्ट ऐंड इमिग्रेशन कंसल्टेंसी है जो निवेशकों के पैसे डंकिन डोनट्स और फोर सीजन्स में निवेश करता है।

वह बताते हैं कि मौजूदा समय में ईबी-5 के लिए यह हड़बड़ी दो वजहों से है,पहला ट्रंप प्रशासन द्वारा एच-1बी पर नई नीति को लाने के संकेत देने और अप्रैल में ईबी-5 वीजा प्रोग्राम का एक्सपायर हो जाना है। पिछले सप्ताह यूनाइटे स्टेट्स सिटिजनशिप ऐंड इमिग्रेशन सर्विसेज (यूएससीआईएस) ने ईबी-5 निवेशकों के वीजा प्रोग्राम में बदलाव का प्रस्ताव रखा है, जिसमें निवेश की राशि 5 लाख डॉलर से 13.5 लाख डॉलर बढ़ाया जाना भी शामिल है।

कासरेस ने बताया, 'कुछ सालों में यूएस वीजा के लिए अन्य विकल्प कम हुए हैं। हर साल भारतीयों के ईबी-5 के तहत मिलने वाले ग्रीन कार्ड की संख्या में करीब 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।' बता दें कि अगर निवेश के बावजूद अगर लोगों के लिए रोजगार का सृजन नहीं हो पाता तो ग्रीन कार्ड रिजेक्ट किए जाने का भी प्रावधना है। निवेश के दो साल के भीतर ही निवेशकों को वीजा अप्रूव कर दिया जाता है। 2015 में 8,156 चीनी नागरिकों को वीजा जारी किया गया था, जबकि उसी अवधि में सिर्फ 111 भारतीयों को ही वीजा मिल पाया है।
संकलन
न्यूज़ मिडिया समाचार पत्र

प्रस्तुति
पं. एल.के.शर्मा
(अधिवक्ता)

2/15/2017

चाहे दीवाली के हों या असली, रॉकेट तो दक्षिण भारत में ही बनते हैं


        भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के रॉकेट विज्ञान से संबंधित 20 सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से 14 दक्षिण भारत में हैं

चाहे दीवाली के हों या असली, रॉकेट तो दक्षिण भारत में ही बनते हैं

    हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान के राज के दौरान मैसूर की रियासत और अंग्रेजों के बीच चार युद्ध हुए थे. चौथे युद्ध के बाद मैसूर पर अंग्रेजों का शासन हो गया था. लेकिन पहले तीन युद्ध ऐसे रहे जिनमें अंग्रेजी फौज को काफी नुकसान उठाना पड़ा. इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि मैसूर की सेना के पास रॉकेट थे. इनसे वह दो किलोमीटर दूर तक दुश्मन सेना को निशाना बना सकती थी. इतिहासकारों के मुताबिक युद्ध में रॉकेट तकनीक का इस्तेमाल दुनिया में सबसे पहले (1780 में) दक्षिण भारत की इसी रियासत में हुआ.

संयोग है कि आज भी जब हम भारत में किसी रॉकेट के प्रक्षेपण की खबर सुनते हैं तो वह भी दक्षिण (केरल के थुंबा या आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा) से ही आती है. बुधवार को भी ऐसा ही हुआ जब इसरो ने श्रीहरिकोटा से एक साथ 104 उपग्रह छोड़ने का कारनामा किया और इस मामले में बाकी दुनिया को मीलों पीछे छोड़ दिया. इससे पहले यह रिकॉर्ड रूस के नाम था जिसने 2014 में एक साथ 37 उपग्रहों को प्रक्षेपित किया था

बीती जनवरी में गूगल लूनर एक्स प्राइज की घोषणा हुई तो पता चला कि इसमें से एक पुरस्कार बैंगलोर की इंडस नाम की निजी कंपनी को मिला है. यानी सरकारी संस्थानों के साथ दक्षिण भारत के निजी संस्थान भी इस मामले में पीछे नहीं हैं

रॉकेट विज्ञान में कोई शोध या नई खोज हो तब भी हमें दक्षिण भारत के ही किसी शहर का नाम सुनाई देता है. और तो और, बीती जनवरी में गूगल लूनर एक्स प्राइज (गूगल द्वारा चांद पर उतरने की तकनीक के विकास से जुड़ी एक प्रतियोगिता) की घोषणा हुई तो पता चला कि इसमें एक पुरस्कार बैंगलोर की इंडस नाम की निजी कंपनी को मिला है.

यानी सरकारी संस्थानों के साथ दक्षिण भारत के निजी संस्थान भी इस मामले में पीछे नहीं है. सरकारी संस्थानों की बात करें तो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के 20 सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से 14 दक्षिण के राज्यों में ही हैं. रॉकेट निर्माण से लेकर परीक्षण, लॉन्च और ट्रेकिंग के सबसे महत्वपूर्ण केंद्र इसी क्षेत्र में हैं. इन सब की बदौलत दक्षिण भारत पूरी दुनिया में रॉकेट विज्ञान का हब बन चुका है. वैसे एक दिलचस्प बात यह भी है कि शिवकाशी नाम का वह मशहूर शहर भी दक्षिण भारत में ही है जहां दीवाली के रॉकेट बनते हैं.

लेकिन क्या वजह रही कि उत्तर भारत इस मामले में पिछड़ गया? दरअसल दक्षिण भारत में अंतरिक्ष संस्थानों के विकास के पीछे इतिहास, विज्ञान और सहूलियत, इन तीनों का मिलाजुला योगदान है. साथ ही इसमें इसरो की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही है.

बात 1962 शुरू होती है. तब मशहूर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा की सलाह पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए एक समिति बनाई थी. इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च यानी इंकोस्पार नाम की इस समिति के प्रमुख विक्रम साराभाई का पहला काम था कि वे ऐसी जगह की खोज करें जहां से विदेशों से मिले प्रायोगिक रॉकेट छोड़े जा सकें. वैज्ञानिक नियमों के हिसाब से इस काम के लिए वे जगहें सबसे उपयुक्त होती हैं जहां से मैग्नेटिक इक्वेटर लाइन गुजरती हो. भारत में ये क्षेत्र देश के दक्षिणी हिस्से में हैं. यही वजह है कि एक अदद प्रक्षेपण केंद्र की खोज भाभा व साराभाई को केरल ले गई. इस तरह से रॉकेट विज्ञान के क्षेत्र में थुंबा के एक महत्वपूर्ण केंद्र बनने की शुरूआत हुई और इसे रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र के रूप में विकसित किया गया.

भारत को उस समय अमेरिका, सोवियत संघ और फ्रांस से प्रायोगिक रॉकेट मिले थे. थुंबा में इनके प्रायोगिक प्रक्षेपण भारतीय वैज्ञानिकों का अनुभव बढ़ाने में काफी मददगार साबित हुए. अब इन वैज्ञानिकों को स्वदेशी रॉकेटों का परीक्षण करना था. 1969 में इंकोस्पार का नाम औपचारिक रूप से इसरो कर दिया गया. स्वदेशी रॉकेटों के विकास का काम इसी की कमान में होना था.

थुंबा प्रक्षेपण केंद्र में शुरूआत में रॉकेट साइकिल से ढोकर ले जाए जाते थे
थुंबा प्रक्षेपण केंद्र में शुरूआत में रॉकेट साइकिल से ढोकर ले जाए जाते थे
ब रॉकेटों से जो सेटेलाइट छोड़े जाने थे उनके लिए इसरो को पूर्वी तट पर एक बड़े लॉन्चिंग पैड की जरूरत थी. इसके लिए चेन्नई से 100 किलोमीटर उत्तर में श्रीहरिकोटा का चयन किया गया. यह इस लिहाज से भी ठीक था कि इसके एक तरफ बंगाल की खाड़ी है तो दूसरी तरफ जंगल. यदि रॉकेट छोड़ने के बाद यहां कोई दुर्घटना हो भी जाए तो जानमाल के नुकसान की आशंका कम से कम है.

इसके बाद केरल के ही तिरुवअनंतपुरम में लिक्विड प्रॉपल्शन सेंटर की स्थापना हुई. इसका नाम बाद में विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी) कर दिया गया. अब जो रॉकेट इंजन वीएसएससी में बनने थे उनके परीक्षण के लिए पास ही कोई सेंटर बनाने की जरूरत थी तो इसके लिए तमिलनाडु का महेंद्रगिरी चुन लिया गया.

इन सभी केंद्रों से प्रशासनिक तालमेल के लिए बैंगलोर में इसरो का मुख्यालय बन गया. श्रीहरिकोटा और वीएसएससी से इसकी समान दूरी है. बाद में जैसे-जैसे इसरो का विकास हुआ उससे जुड़े दूसरे संस्थान भी बैंगलोर के आसपास ही खुलने लगे जैसे इसरो टेलिमेट्री ट्रैकिंग एंड कमांड नेटवर्क हेडक्वार्टर और इसरो सेटेलाइट सेंटर आदि.

जो भी रॉकेट इंजन वीएसएससी में बनने थे उनके परीक्षण के लिए पास ही कोई सेंटर बनाने की जरूरत थी. इसके लिए तमिलनाडु का महेंद्रगिरी चुना गया

इसरो से संबद्ध बड़े संस्थानों में डीप स्पेस ट्रेकिंग सेंटर सबसे नया है. इसकी स्थापना 2008 में हुई थी. यह भी दक्षिण भारत यानी कर्नाटक के ब्याललु में बनाया गया है. इस जगह बहुत कम आबादी है और यहां इलेक्ट्रो मैग्नेटिक डिस्टरबेंस भी न्यूनतम है. हैदराबाद में रिमोट सेंसिंग का मुख्य केंद्र बनाया गया क्योंकि यह नए संस्थानों से भी समान दूरी पर स्थित है.

ऐसा नहीं कि उत्तर भारत इस लिहाज से बिल्कुल ही अछूता है. लेकिन यहां इसरो के जो भी संस्थान हैं वे मुख्य रूप से बुनियादी अनुसंधान और पेलोड के निर्माण का काम करते है. अहमदाबाद की फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी में एस्ट्रो फिजिक्स के उच्च अनुसंधान होते हैं. शहर के ही दूसरे संस्थान- स्पेस एप्लीकेशन सेंटर में सेटेलाइट और दूसरे पेलोड का निर्माण किया जाता है. भोपाल में इसरो ने एक ट्रेकिंग सेंटर स्थापित किया है.

दक्षिण भारत में इन संस्थानों के विकास को इस बात से भी जोड़ा जाता है कि ये पाकिस्तान और चीन से काफी दूर हैं. हालांकि बैलेस्टिक मिसाइलों के इस दौर में अब यह दूरी मायने नहीं रखती लेकिन, 1970 के दशक में यह एक महत्वपूर्ण वजह जरूर रही होगी.

इसरो ने अपनी विकास यात्रा विदेशों से आयातित ऐसे रॉकेटों के प्रेक्षेपण से शुरू की थी जो 60 किमी से ऊपर नहीं जा पाते थे. लेकिन आज वह भूस्थैतिक कक्षा (36,000 किमी की ऊंचाई) और मंगल की कक्षा तक में सेटेलाइट भेज चुका है. ये उपलब्धियां उत्तर-दक्षिण, और पूरब-पश्चिम के सभी भारतीयों में समान रूप से गर्व की भावना पैदा करती हैं. यानी जमीन पर जो कुछ भी दिखे आखिर में हमारे रॉकेट विज्ञान ने देश को क्षेत्रीयता से ऊपर उठाने का ही काम किया है.

संकलन
न्यूज़ मिडिया,समाचार पत्र।
पं. एल.के.शर्मा
(अधिवक्ता) राज.उच्च.न्यायालय,जोधपुर।
satyagrah.com