7/27/2017

श्री रामनाथ कोविंद अपने पहले भाषण में नेहरू का नाम लेना कैसे भूल गए?


            27 अगस्त 2012. संसद का मानसून सत्र चल रहा था. कांग्रेस कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले में बुरी तरफ से घिरी हुई थी. भारी हंगामें के बाद दोनों सदनों की कार्यवाही को दोपहर दो बजे तक के लिए स्थगित कर दिया गया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब सदन से बाहर निकले पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया. इस मामले पर उनकी चुप्पी के बाबत सवाल दागा गया. उन्होंने एक शायरी से अपना जवाब पेश किया.

“हज़ारों जवाबों से अच्छी है खामोशी मेरी 
न जाने कितने सवालों की आबरू रखी”

          बाज दफा ऐसा होता है कि हमारी चुप्पी हमारे बयान से ज्यादा मजबूत होती है. सियासत में यह रवायत है कि जो चीज ना कही जाए उसके ज्यादा मायने निकाले जाते हैं. 25 तारीख को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद रामनाथ कोविंद का भाषण किन वजहों से याद रखा जाएगा? अगर इसके कंटेंट को देखा जाए तो इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है. ऐसा कुछ भी नहीं है , जो उम्मीद के मुताबिक नहीं हैं. देश की विविधता से स्टार्ट-अप इंडिया तक. बिलकुल वैसा ही, जैसा इसे होना चाहिए था. हालांकि भाषण के बाद लगे ‘जय श्री राम’ के नारे ने जायका थोड़ा बिगाड़ दिया. लेकिन फिलहाल इसे बेर की गुठली की तरह थूक दीजिए.

कोविंद साहब ने अपने भाषण में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, बाबा साहेब अंबेडकर, राधाकृष्णन तक  कई राष्ट्रनायकों के नाम लिए. इस बीच वो एक नाम लेना भूल गए. भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का.

ब्रिटिश जब भारत से विदा हुए तो उन्होंने जो एक तहस-नहस देश छोड़ा था. एक देश जो मानवीय इतिहास के सबसे बड़े और खूनी विस्थापन का गवाह बना हुआ था. ऐसे में अपने 17 साल के शासन काल में नेहरू ने एक ऐसे लोकतंत्र की नींव रखी जिसका चरित्र धर्मनिरपेक्ष हो, जो अभिव्यक्ति के मामले में सहिष्णु हो और वैज्ञानिक चेतना से लैस हो. राष्ट्रपति के भाषण में नेहरू के नाम का जिक्र ना होने को क्या महज एक मानवीय भूल मान लिया जाना चाहिए?

राष्ट्रपति के इस किस्म के भाषणों में सामान्य तौर राष्ट्रनायकों का जिक्र दो तरीके से होता है. पहला राष्ट्रनायकों के योगदान को बतलाते हुए उनका जिक्र करना. दूसरा उनके कद के हिसाब से एक क्रम में उनका जिक्र करना. इन दोनों तरीकों में नेहरू का नाम छूटना सामान्य तो नहीं ही कहा जा सकता. या फिर एक तरीका यह भी है कि आप एपीजे अब्दुल कलाम की तरह किसी भी राष्ट्रनायक का जिक्र किए बिना अपना भाषण पूरा कर सकते हैं.

संघ परिवार में पंडित नेहरू के प्रति शुरुआत से ही एक नापसंदगी का भाव रहा है. महात्मा गांधी की हत्या के संघ को देश में प्रतिबंधित कर दिया गया था. हालांकि उस समय सरदार पटेल देश के गृहमंत्री थे लेकिन आज संघ उन्हें महान नेता के तौर पर पूजता है. श्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद चुनावी मजबूरियों के चलते ही सही गांधी और अंबेडकर के प्रति सार्वजानिक मंचो पर संघ का रवैय्या तेजी से बदला है. इस बीच नेहरू लगातार निशाने पर बने रहे. उन्हें कश्मीर विवाद से लेकर चीन युद्ध में शर्मनाम हार तक कई चीजों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. जो लोग नेहरू को महज इन वजहों से जानते हैं, उन्हें इस देश के प्रति नेहरू के योगदान को जानना चाहिए.

9 साल की जेल

नेहरू को आम तौर पर हम उनके प्रधानमंत्री काल के लिए याद रखते हैं. हम अक्सर आजादी के आंदोलन के दौरान उनके योगदान को भूल जाते हैं. नेहरू आजादी की लड़ाई के दौरान कुल 3,262 दिन जेल में रहे. इसमें से 1,040 दिन की जेल उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भुगतनी पड़ी थी.

ऐसा नेता जो विपक्ष को मजबूत देखना चाहता था।

1975 में जब पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की. यह पहला और एक मात्र मौका था जब देश को तानाशाही का जायका चखना पड़ा. उस समय लोगों को समझ आया कि लोकतंत्र के क्या मायने हैं. जब भारत आजाद हुआ तो ये नेहरू ही जो देश के हर बालिग आदमी को मताधिकार देने के पक्ष में खड़े थे. यह वो दौर था जब तीन-चौथाई देश अनपढ़ हुआ करता था. इस बात के लिए उनकी बहुत आलोचना हुई. आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. उनके हिसाब से एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना सबसे अहम चीज है. वो कहा करते थे, “मैं नहीं चाहता कि करोड़ों लोग एक आदमी की हां में हां मिलाएं. इसके बजाए मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं.”

क्या नेहरू ने भारत को आर्थिक तौर पर कमजोर किया?

‘याददाश्त एक अहसानफरामोश दोस्त की तरह है. हम जितना याद करते हैं, उससे ज्यादा भूलते जाते हैं.’

नेहरू को अक्सर के हारा हुआ समाजवादी कहा जाता है. उन्हें योजना आयोग के लिए भी आड़े हाथ लिया जाता है. नेहरू को आर्थिक बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराना मुर्दे के मत्थे इल्ज़ाम मढ़ने जैसा है. कांग्रेस सरकार में वित्तमंत्री रहे प्रणब मुखर्जी नेहरू पर लगे इल्ज़ामों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं,

“नेहरू की अक्सर आलोचना होती है कि उन्होंने हमेशा आर्थिक मामलों में सार्वजानिक क्षेत्रों को आगे रखा. उस समय बनी आर्थिक नीतियों पर नेहरू के सामाजवाद की छाप देखी जा सकती है. आप अंदाजा लगाइए कि 190 साल तक आर्थिक शोषण का शिकार रहे देश की अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करना कितना मुश्किल था. यह काम सिर्फ निजी औद्योगिक घरानों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता था.

आर्थिक मामलों पर रेग्युलेशन को उस तौर में ठीक समझा जाता था. नेहरू के प्रयास कहीं भी निजी क्षेत्र के विकास में आड़े नहीं आते थे. कृषि और छोटे उद्योगों में निजी क्षेत्र की भूमिका को हमेशा प्रोत्साहित किया गया. असल में आजादी के बाद शुरुआती सालों में निजी क्षेत्र खुद चाहता था कि सरकार आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण रोल अदा करे.”

कुछ साल पहले प्रधानमंत्री श्री मोदी अपने एक बयान की वजह से सुर्ख़ियों में थे. उन्होंने इतिहास के उस टुकड़े को शर्मनाक बताया था जिस समय नेहरू प्रधानमंत्री थे . नए आजाद हुए देश की आर्थिक तरक्की के बारे में कुछ तथ्य जानकार आप शर्मसार तो कत्तई नहीं होंगे.

आजादी के शुरुआती 15 सालों में हमारी विकास दर 4 फीसदी थी. उस दौर में यह विकास दर इंग्लैंड, जापान,चीन जैसे कई देशों से कहीं बेहतर थी. यह वो दौर था जब फर्टिलाइजर, स्टील, हाईवे, बांध परियोजनाओं में सरकार की तरफ से खूब इंवेस्टमेंट किया गया. इन सब कामों ने देश के आर्थिक विकास के लिए बुनियादी ढांचा उपलब्ध करवाया.

पश्चिम से शिक्षा लेकर आए नेहरू वहां की आर्थिक तरक्की से काफी प्रभावित थे. वो जानते थे कि किसी देश का ढांचा संस्थानों की ठोस नींव पर खड़ा होता है. उन्होंने अपने कार्यकाल में संस्थानों को खड़ा करने का जरुरी काम किया. चुनाव आयोग, आईआईटी, आईआईएम्, एटॉमिक एनर्जी कमीशन, नेशनल डिफेंस एकेडमी जैसे कई संस्थान खड़े किए. इसके अलावा साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी सहित कई सारे केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की नींव भी उनके समय में ही पड़ी. आज देश का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने तमाम सारे संस्थाओं के दम पर मजबूती से खड़ा है.

विज्ञान से दोस्ती
आज के दौर में जब हम टेलीविजन पर नजर सुरक्षा कवच और महालक्ष्मी यंत्र के प्रचार देख रहे हैं. आप सोचिए आजादी के वक़्त जब महज एक चौथाई आबादी आखर बांच सकती थी, समाज को वैज्ञानिक चेतना से लैस करना. नेहरू चाहते थे नया देश आकाश में टिमटिमा रहे नक्षत्रों को पढ़े तो लेकिन पंडित के पतरे के मार्फ़त नहीं. बल्कि टेलीस्कोप से.

भाखड़ा नंगल बांध के उद्घाटन के वक़्त दिया गया उनका भाषण इस बात की बानगी भर है कि वो किस किस्म का भारत चाहते थे.

“मेरे लिए आज के दौर में इस बांध जैसी जगहें ही मस्जिद हैं, चर्च हैं, गुरूद्वारे हैं. ये बाँध नए दौर के मंदिर हैं. यहां एक इंसान इस लिए मेहनत करता है ताकि दूसरे इंसान का भला हो सके. पूरी मानवता का भला हो सके. मेरे दिमाग में इस सिलसिले में बहुत सारी बातें आ रही हैं, लेकिन मैं अगर उन्हें बोलूंगा तो कई धर्मांध लोगों को बुरा लग जाएगा. ये हमारे नए पूजा स्थल हैं. यहां हम देश के करोड़ों लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. यह एक पवित्र काम है. “

महामहिम कोविंद से श्रीमान पंडित नेहरू का नाम क्यों नहीं लिया।

पंडित नेहरू हमेशा से मानते रहे कि मंदिर और मस्जिद के झगड़े देश का सत्यानाश कर देंगे. जब महात्मा गांधी की हत्या हुई तो उन्होंने प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. वो पूरी जिंदगी सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे. इसके चलते उन पर चार बार जानलेवा हमले हुए. इसमें एक बम धमाका भी शामिल है.
वो देश को वैज्ञानिक चेतना वाले आधुनिक समाज में तब्दील करना चाह रहे थे. हिन्दू कोड बिल पर तमाम किस्म के विरोध को दरकिनार करते हुए वो मजबूती से डटे रहे. नेहरू को पंसद ना करने की संघ के पास यह भी एक वजह है.

आज संघ परिवार पंडित नेहरू को अभिजात्यपन, कश्मीर समस्या और 1962 युद्ध में हार का पर्याय बना कर पेश कर रहा है. इन्हें नेहरू की असफलता माना जा सकता है. सिर्फ असफलताओं पर किसी आदमी का मूल्यांकन करना कितना ठीक है. कोविंद नेहरू का नाम लेना क्यों भूल गए, इस सवाल का जवाब संसद के सेंट्रल हॉल में लगे ‘जय श्री राम’ के नारों से बेहतर किसी और चीज से नहीं समझा जा सकता.

इसे श्री वलय सिंह राय ने डेलीओ के लिए लिखा था।

संकलन
न्यूज़ मीडिया,
The Lallantop.com.
प्रस्तुति
पं. डॉ. एल.के शर्मा


7/02/2017

योग की दशा

जिसे योग कहा जा रहा है क्या वह योग है? आप अगर महर्षि पतंजलि मुनि के "योगदर्शन" को देखेंगे तो लगता है, पूरे देश के कुओं में भांग घुली है और योग के बारे में कोई कुछ नहीं जानता। दुनिया में योग के नाम पर भ्रम फैलाए जा रहे हैं।  भारतीय दर्शन की कुछ तथ्यात्मक बातें आपसे इस मौके पर साझा करना चाहता हूं। हालांकि यह तय कि बहुत से लोग इसे अनावश्यक और सिर्फ़ आलोचना का विषय समझेंगे। अगर कोई एक पत्ते को पेड़, एक पन्ने को पुस्तक और एक ईंट को मकान कहने लगे तो आप उसे क्या कहेंगे? अज्ञानी या अबोध ही न! अज्ञान किस तरह सिर चढ़कर बोलता है, उसका उदाहरण आज का दिन है। हमने सिर्फ आसनों को ही योग का नाम दे दिया है। आसन सिखाने वाला हर व्यक्ति अपने आपको योग गुुरु घोषित कर रहा है आैर मुझे लगता है कि यह न केवल गलत है, बल्कि भारतीय मनीषा की मानव-समाज को सबसे बड़ी देन का यह उपहास और अवमूल्यन है और यह नाकाबिले-बर्दाश्त भी। सच बात ये है कि योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि सहित आठ अंगों की एक व्यापक प्रक्रिया को योग कहा है।  वे योग दर्शन के साधन पाद अध्याय दो में कहते हैं : यमनियमआसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो$ष्टावंगानि।।29/80 और इस योग का मतलब उष्ट्रासन या पद्मासन भर नहीं है। न ही आंखें मींचकर उन पर हाथ रख लेना और लंबी-लंबी श्वासें लेना-छोड़ना है, जैसा कि अज्ञान का एक सामूहिक वैश्विक प्रदर्शन इन दिनों हो रहा है। असल में योग के आठ अंगों की व्याख्या भौत्तिक विज्ञान के किसी गहन अध्याय का सा मामला है। हर चीज की एक परिभाषा है और उसे मनमर्जी से नहीं बदला जा सकता। यम और नियम क्या है ? यम क्या है?  योग का पहला चरण यम हैं। यम जाति, देश, काल और समय से परे हैं। इन्हें सार्वभौम महाव्रत भी कहा गया है। यम यानी आप हिंसा न करने का संकल्प लेंगे। सत्य ही बोलेंगे। अस्तेय यानी चोरी, भ्रष्टाचार या अनैतिकता से कतई दूर रहेंगे। ब्रह्चर्य का पूर्ण पालन करेंगे और अपरिग्रह को अपने जीवन में उतारेंगे। पतंजलि कहते हैं : अहिंसासत्यास्तेयब्रह्चर्यापरिग्रहा यमा:।।30/80 नियम क्या है?  अब योग का दूसरा चरण है नियम। आप शौच का पालन करेंगे यानी शारीरिक, मानसिक और अाध्यात्मिक रूप से पवित्र रहेंगे। ये शौच वो एफएम वाली विद्या बालन वाला नहीं है, जो दिन भर ऐसे लोगों में शौचालयों का प्रचार करती है, जिनके घरों में विद्या बालन के दादाजी के पैदा होने से पहले के शौचालय बने हुए हैं। यहां शौच कुछ और है। शौच पॉटी नहीं है। शौच यानी पवित्रता। तन, मन और बुद्धि की। हृदय और मस्तिष्क की। इस शौच के अंग हैं : संतोष, तप, स्वाध्याय और प्रणिधान। यहां संतोष का अर्थ न्यूनतम साधनाें और संसाधनों में जीवन यापन है, न कि जो मिल गया उस पर संतोष कर लेना। तप यानी अपने देश और काल में जो सबसे न्यूनतम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहा है, आप सदैव उसके स्तर पर रहने का अभ्यास करें। इसी तरह स्वाध्याय और प्रणिधान के अर्थ हैं। आसन क्या है? और आसन ये उलटे-सीधे क्रियाकलाप नहीं हैं। कहा गया है : स्थिरसुखमासनम्।। यानी जिसके स्थिर होने पर सुख का अनुभव होता है यही आसन है। पद्मासन ही नहीं, वीरासन, भद्रासन, दंडासन और स्वस्तिकासन में दिन भर रहना भी आसन है। प्राणायाम क्या है?  प्राणायाम कुंभक और रेचक ही नहीं है। यह प्राणों पर नियंत्रण की क्रिया है और इसके लिए आपको पर्वतों, नदियों, झीलों, पक्षी कलरव और न जाने कैसे-कैसे प्रकृति की रक्षा करनी होगी। प्राणायाम सांसों को ऊपर नीचे करना या एक समय कपाल-भाति करना और अगले ही क्षण सलवार पहनकर दौड़ पड़ना नहीं है। योग को कारोबार बना देना और उसे मुनि पतंजलि के नाम से बेचना भारतीय मनीषा के आदर्शाें के हिसाब से घनघोर पाप है। आप अगर योग कर रहे हैं तो आप किसी नीलगाय को मारने, लोगों पर टैक्सों की भरमार करके उनके जीवन को संकटापन्न करने, स्कूलों को पूरे संसाधन मुहैया नहीं करवाने, देश भर के अस्पतालों को बदहाल बनाए रखने और आए दिन सड़कों पर लोगों को कुत्तों की तरह कुचलने की छूट देने जैसे घनघोर अपराध करने पर आपको आत्मग्लानि जरूर होगी, लेकिन आप योग नहीं, आप आसन कर रहे हैं, लेकिन आपकी आत्मा में आम जीवन के प्रति क्षणिक भी संवेदना नहीं रहती। यह आसन और योग का फर्क है। प्रत्याहार क्या है?  मुनि पतंजलि कहते हैं : योग का पांचवां अंग प्रत्याहार है। प्रत्याहार यानी समस्त अंग-प्रत्यंग में ज्ञानवृत्तियों काे चेतनशीलता से नहलाना और उनमें ज्ञानवृत्तियां जगाना। यह बहुत लंबी व्याख्या है, जिसे यहां मुझ अल्पज्ञ व्यक्ति, जो भारतीय योगशास्त्र के बारे में बहुत उथली सी जानकारियां रखता है, बता पाना नामुमकिन है। इसे योगदर्शन का कोई योग्य विद्वान ही बता सकता है। धारणा क्या है?  योग के छहवें चरण पर मुनि पतंजलि कहते हैं : धारणासु च योग्यता मनस:।। 53/104 यानी मुनष्य को धारणाओं के अनुष्ठान करने होते हैं। ये कोई कर्मकांड नहीं है। यह शुद्ध रूप से मानसिक क्रियाकलाप है। ध्यान और समाधि क्या है ? ध्यान क्या है? आचार्य पतंजलि का कहना है : तत्र प्रत्ययैकतानताध्यानम्। 2/108 यानी अपनी स्वयं की काया और चित्त के साथ साथ समूचे देश और काल को ध्यानस्थ कर देने की यह मुद्रा सातवां योगांग है। समाधि क्या है? और आठवां योगांग समाधि है : तदेवार्थमात्रनिर्भाससं स्वरूपशून्यमिव समाधि।। लेकिन यह समाधि भी वह समाधि नहीं है, जो प्रचारित की जाती है। यह समाधि बहुत सूक्ष्म क्रिया है और इसके बिना योग कभी भी पूरा नहीं होता। समाधि यानी पूरे वातावरण को चैतन्य से परिपूर्ण करके त्रयमेकत्र संयमों का पालन, प्रज्ञालोक में अवतरण और भूमि विनियोग के निर्वैचार्य से परिपूर्ण होना। योग का पथ, मानवता का रथ!  योग दया, करुणा और विनम्रता की उपासना का पथ है। घृणाओं और हिंसक प्रवृत्तियों के दमन की राह है। योग रक्त-पिपासा की कल्पना तक से मुक्ति का नाम है। हिंसा, युद्ध, बर्बरता और भीषण अशांति रचने के दुु:स्वप्नों से दूरी बनाने का नाम है। सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन करने के राजपथ का नाम योग है। योग दान देने, बांट कर खाने, संचित नहीं करने और विशाल हृदयता का नाम है। योग काया के भीतरी ही नहीं, अपने आसपास के समस्त द्वंद्वाें को मिटाने का नाम है। योग इस काया को ही नहीं, इस समूची धरती को ब्रह्मपुरी बनाने का नाम है।