छठी के छात्र छेदी ने छत्तीस की जगह बत्तीस कहकर जैसे ही बत्तीसी दिखाई, गुरुजी ने छडी उठाई और मारने वाले ही थे की छेदी ने कहा, "खबरदार अगर मुझे मारा तो! मे गिनती नही जानता मगर आरटीई (Right to Education Act 2009) की धाराएँ अच्छी तरह जानता हूँ.
गणित मे नही, हिंदी मे समझाना आता है."
गुरुजी चौराहों पर खड़ी मूर्तियों की तरह जडवत हो गए. जो कल तक बोल नही पाता था, वो आज आँखें दिखा रहा है!
शोरगुल सुनकर प्रधानाध्यापक भी उधर आ धमके. कई दिनों से उनका कार्यालय से निकलना ही नही हुआ था. वे हमेशा विवादों से दूर रहना पसंद करते थे. इसी कारण से उन्होंने बच्चों को पढ़ाना भी बंद कर दिया था. आते ही उन्होंने छडी को तोड़ कर बाहर फेंका और बोले, "सरकार का आदेश नही पढ़ा? प्रताड़ना का केस दर्ज हो सकता है. रिटायरमेंट नजदीक है, निलंबन की मार पड़ गई तो पेंशन के फजीते पड़ जाएँगे. बच्चे न पढ़े न सही, पर प्रेम से पढ़ाओ. उनसे निवेदन करो. अगर कही शिकायत कर दी तो ?"
बेचारे गुरुजी पसीने पसीने हो गए. मानो हर बूँद से प्रायस्चित टपक रहा हो! इधर छेदी "गुरुजी हाय हाय" के नारे लगाता जा रहा था और बाकी बच्चे भी उसके साथ हो लिए.
प्रधानाध्यापर ने छेदी को एक कोने मे ले जाकर कहा, "मुझसे कहो क्या चाहिए?"
छेदी बोला, "जब तक गुरुजी मुझसे माफी नही माँग लेते है, हम विद्यालय का बहिष्कार करेंगे. बताए की शिकायत पेटी कहाँ है?"
समस्त स्टाफ आश्चर्यचकित और भय का वातावरण हो चुका था. छात्र जान चुके थे की उत्तीर्ण होना उनका कानूनी अधिकार है.
बड़े सर ने छेदी से कहा की मे उनकी तरफ से माफी माँगता हूँ, पर छेदी बोला, "आप क्यों मांगोगे ? जिसने किया वही माफी माँगे. मेरा अपमान हुआ है."
आज गुरुजी के सामने बहुत बड़ा संकट था. जिस छेदी के बाप तक को उन्होंने दंड, दृढ़ता और अनुशासन से पढ़ाया था, आज उनकी ये तीनों शक्तिया परास्त हो चुकी थी. वे इतने भयभीत हो चुके थे की एकांत मे छेदी के पैर तक छूने को तैयार थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से गुरूता के ग्राफ को गिराना नही चाहते थे. छडी के संग उनका मनोबल ही नही, परंपरा और प्रणाली भी टूट चुकी थी. सारी व्यवस्था नियम कानून एक्सपायर हो चुके थे. कानून क्या कहता है, अब ये बच्चो से सिखना पढ़ेगा!
पाठक्रम मे अधिकारों का वर्णन था, कर्तव्यों का पता नही था. अंतिम पड़ाव पर गुरु द्रोण स्वयं चक्रव्यूह मे फँस जाएँगे!
वे प्रण कर चुके थे की कल से बच्चे जैसा कहेंगे, वैसा ही वे करेंगे. तभी बड़े सर उनके पास आकर बोले, "मे आपको समझ रहा हूँ. वह मान गया है और अंदर आ रहा है. उससे माफी माँग लो, समय की यही जरूरत है."
छेदी अंदर आकर टेबल पर बैठ गया और हवा के तेज झोंके ने शर्मिन्दा होकर द्वार बंद कर दिए.
कलम को चाहिए कि यही थम जाए. कई बार मौन की भाषा संवादों पर भारी पड़ जाती है
7/29/2016
शिक्षा का विकास (वयंग्य)
7/27/2016
नरेंद्र मोदी की गज़ब विरासत और तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया पर पत्रकार अभिसार शर्मा की खरी-खरी
उस राष्ट्रवादी पत्रकार ने अंग्रेजी में दहाड़ते हुए कहा , “तो कहिये दोस्तों ऐसे पाकिस्तान प्रेमियों, आईएसआई परस्तों के साथ क्या सुलूक किया जाए ? क्या वक़्त नहीं आ गया है के उन्हें एक एक करके एक्सपोस किया जाए ?” मैंने सोचा के वाकई , क्या किया जाए ? क्या इन तमाम छद्म उदारवादियों को चौराहे पे लटका दिया जाए ? क्या उन्हें और उनके परिवारों को चिन्हित करके शर्मसार किया जाए ? क्या? कुछ दिनों पहले एक अन्य चैनल ने एक प्रोपेगंडा चलाया था जिसे “अफ़ज़ल प्रेमी गैंग” का नाम दिया गया।
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इन्हें देश विरोधी बताया गया। इन तथाकथित अफ़ज़ल प्रेमियो में से एक वैज्ञानिक गौहर रज़ा की मानें तो इसके ठीक बाद उन्हें धमकियाँ भी मिलने लगी। तब मुझे याद आया के सत्ता पे तो एक राष्ट्रवादी सरकार आसीन है. क्यों न इन आईएसआई फंडेड उदारवादियों और पत्रकार को देश द्रोह के आरोप में जेल भेजा जाए। बिलकुल वैसे, जैसे JNU में ”
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी” नारा लगाने वाले , मुँह छिपाये , कश्मीरी लहजे में बोलने वाले लोग जेल में हैं। नहीं हैं न ? अरे ? मुझे तो लगा के के सत्ता में आसीन ताक़तवर सरकार के मज़बूत बाज़ुओं से कोई बच नहीं सकता। फिर मेरे देश को गाली देने वाले वह लोग आज़ाद क्यों घूम रहे हैं ? खैर छोड़िये , हमारे राष्ट्रवादी पत्रकार ये मुद्दे नहीं उठाएंगे।
उन्हें कुछ और मुद्दों से भी परहेज़ है। मसलन , जबसे कश्मीर में नए सिरे से अराजकता का आग़ाज़ हुआ है, तबसे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी, एक बार भी, कश्मीर पे कोई टिपण्णी नहीं की. सोनिया गांधी के अंदाज़ में, उनके दुःख और अफ़सोस की खबरें हम गृह मंत्री राजनाथ सिंह से तो सुनते रहते हैं, मगर लोगों से संपर्क साधने के धनी मोदीजी ने एक बार भी कश्मीर में मारे गए लोगों या सुरक्षाकर्मियों पे वक्तव्य नहीं दिया। मान लिया कश्मीर में इस वक़्त चुनाव नहीं हैं, मगर गुजरात में दलितों पे शर्मनाक हमला भी आपको झकझोर नहीं पाया? म्युनिक पे हुए हमले पे आपकी व्यथा को पूरे देश ने महसूस किया, मगर कश्मीर और दलितों पे आये दिन हमले आपको विचलित नहीं कर पाए? और सबसे बड़ी बात। .. क्या इन राष्ट्रवाद से ओतप्रोत पत्रकारों ने एक बार भी मोदीजी की ख़ामोशी का मुद्दा उठाया? एक बार भी? क्या मोदीजी को बोलने से कोई रोक रहा है? कौन कर रहा है ये साज़िश? और किसने हमारे गौरवशाली पत्रकारों का ध्यान इस ओर नहीं खींचा?
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आये दिन देश के उदारवादियों और धर्मनिरपेक्ष लोगों के खिलाफ चैनल्स पर मुहीम देखने को मिलती रहती है। एक और ट्रेंड से परिचय हुआ। #PROPAKDOVES यानी पाक समर्थित परिंदे। कभी एक आध बार इन न्यूज़ शोज को देखने का मौका मिलता है तो देशभक्ति की ऐसी गज़ब की ऊर्जा का संचार होने लगता है के पूछो मत। लगता है के बस, उठाओ बन्दूक और दौड़ पड़ो LOC की तरफ। आखिर देश के दुश्मन पाकिस्तान की सरपरस्ती कौन कर सकता है और उससे भी बुरी बात, हमारी राष्ट्रवादी सरकार खामोश क्यों है ? आखिर क्यों देशप्रेम के जज़्बे में डूबे जा रहे इन भक्त पत्रकारों की आवाज़ को अनसुना किया जा रहा है ?
फिर मुझे कुछ याद आया। बात दरसल उस वक़्त की है जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। तब UPA की सरकार ने दो चीज़ें की थी. पहला पाकिस्तान के साथ साझा टेरर मैकेनिज्म बनाया और दूसरा, पहली बार किसी साझा बयान में बलोचिस्तान को स्थान मिला। और ये शर्मनाक काम हुआ था शर्म अल शेख में। बतौर पत्रकार मैंने और मेरी तरह बाक़ी सभी राष्ट्रवादी पत्रकारों ने इसके आलोचना की थी। मेरा मानना था के जो देश भारत में आतंक फैला रहा है, उसके साथ साझा आतंकी सहयोग कैसे? आखिर क्यों भारत ने एक साझा बयान में बलोचिस्तान को जगह दे दी, जो एक करारी शिकस्त है?
खैर नयी सरकार आयी। मोदीजी के नेतृत्व में ये स्पष्ट किया गया के अगर पाकिस्तान पृथकतावादियों के साथ बात करेगा , तो हमसे बात न करे। देश को आखिरकार एक ऐसे प्रधानमंत्री मिल गया जिसके ज़ेहन में पाकिस्तान नीति बिलकुल स्पष्ट थी। मोदीजी ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी थी, और खबरदार जो किसी ने इसे पार किया। मगर फिर अचानक , पठानकोट हुआ। इसमें सरकार की किस तरह से छीछालेदर हुई वह चर्चा का अलग विषय है। मगर फिर जो हुआ वह कल्पना से भी विचित्र है।
एक ऐसी संस्था को हमने पठानकोट में आमन्त्रित किया जिसके घोषणा पत्र में भारत को सौ घाव देकर काट देने का ज़िक्र है। वह संस्था जो निर्विवाद रूप से देश में सभी आतंकी समस्याओं की जड़ है। आईएसआई। जी हाँ। ये वही आईएसआई , जो इस देश के कुछ पत्रकारों और #PROPAKDOVES को “फण्ड” कर रही है। कितना खौला था हमारे राष्ट्रवादी पत्रकारों का खून इसकी मिसालें सामने हैं। या नहीं हैं ? और फिर हम कैसे भूल सकते हैं के विदेश मंत्रालय को ताक पर रखकर प्रधानमंत्री पाकिस्तान पहुँच गए। और वो भी नवाज़ शरिफ पारिवारिक समारोह में। मैंने खुद इसे मास्टरस्ट्रोक बताया था। मगर मैं तो मान लिया जाए देशद्रोही हूँ, मगर हमारे राष्ट्रवादी पत्रकार ? इस अपमान के घूँट को कैसे पी गए ?
सच तो ये है मोदी की विदेश नीति में असमंजस झलकता है । मगर इस असमंजस की समीक्षा को न्यूज़ चैनल्स में जगह नहीं मिलती। जनरल बक्शी और अन्य जांबाज़ विशेषज्ञ जिन्हें आप सावरकर की तारीफ करते तो सुन सकते हैं, यहाँ उनकी खामोशी चौंकाने वाली है। प्रधानमंत्री की कश्मीर और दलितों पे खामोशी और पाकिस्तान पे बेतुके तजुर्बे चिंतित वाले हैं , मगर हम इसपर खामोश रहेंगे।
पत्रकारों को गाली देने वाले, ज़रा छत्तीसगढ़ के पत्रकार संतोष यादव की पत्नी से भी मिलकर आएं। जब मैं बस्तर गया था , तब उन्होंने मुझसे कहा था के मेरे पति एक अच्छा काम कर रहे हैं और मैं चाहूंगी के वह पत्रकार बने रहें। वो शब्द मैं कभी नहीं भूलूंगा। मगर वो शक़्स अब भी जेल में बंद है और अब खबर ये है के उसकी जान पे बन आयी है। बेल भाटिया अकेले एक गाँव के छोटे से घर में रहती हैं। बगैर किसी सुरक्षा के।
मगर यह राष्ट्रवादी ऐसे लोगों को नक्ससली समर्थक , देशद्रोही बताते हैं। बस्तर सुपरकॉप कल्लूरी के काम करने के तरीकों से खुद प्रशासन असहज है , मगर ऐसे बेकाबू लोगों पे कोई सवाल नहीं उठाता। ये देशभक्त हैं. राष्ट्र की धरोहर हैं। इन्हें मोदीजी का पूरा समर्थन हासिल है और ये आधिकारिक है।
कश्मीर पे अगर कुछ पत्रकार सवाल उठा रहे हैं, तो उसका ताल्लुक उन बच्चों से है , जो सुरक्षा बालों के पेलेट्स का शिकार हो रहे हैं और चूंकि कश्मीर देश का अभिन्न अंग है , लिहाज़ा उसके बच्चे भी मेरे बहन हैं। क्या उनकी बात करना देश द्रोह है ? अच्छा लगा था जब प्रधानमंत्री ने दिवाली श्रीनगर में बिताई थी , मगर सच तो ये है के अब सब कुछ एक “जुमला” सा लगने लगा है। उस कश्मीर की व्यथा पे आपकी खामोशी चौंकाने वाली है। और मैं जानता हूँ के किसी भी तरह की टिपण्णी करने में आपको असुविधा हो सकती है। क्योंकि चुनाव सर पर हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव। जहाँ सामजिक भाईचारे की मिसाल आपकी पार्टी के होनहार संगीत सोम पेश कर ही रहे हैं।
इस लेख को लिखते समय मेरी निगाह ट्विटर पर एक सरकारी हैंडल पर गयी है , जिसका ताल्लुक मेक इन इंडिया। इस हैंडल ने दो ऐसे ट्वीट्स को रिट्वीट किया जिसमे पत्रकारों को मौत देने का इशारा किया गया था। मुझे हैरत नहीं है अगर यही मेक इन इंडिया का स्वरुप है। क्योंकि हाल में एक और राष्ट्रवादी पत्रकार के ट्विटर हैंडल पे मैंने पत्रकारों को मौत देने की वकालत करने वाला ट्वीट देखा। हम उस काल में जी रहे हैं जब एक आतंकवादी की बात पर हम अपने देश की एक पत्रकार के खिलाफ गन्दा प्रोपेगंडा चलाते हैं, फिर मौत की वकालत करना तो आम बात है। भक्तगण ये भूल गए के बोलने वाला शक़्स एक आतंकवादी तो था ही, उसे इंटरव्यू करने वाला अहमद कुरैशी भी घोर भारत विरोधी था। उनका मक़सद साफ़ था , जिसे कामयाब बनाने में कुछ देशभक्तों ने पूरी मदद की. well done मित्रों!
हम ये भूल रहे हैं के हम बार बार उत्तेजना का एक माहौल पैदा कर रहे हैं , जिसका खामियाज़ा आज नहीं तो कल हमें भुगतना पड़ेगा।
अपनी ही बात करता हूँ। पिछले एक साल में मुझे दो बार सुरक्षा लेनी पड़ी है. पहला जब मैंने सनातन संस्था पे एक शो किया था जिसमे हिन्दू सेना के एक अति उत्साही ने मुझे मारने की धमकी दी थी और दूसरा बिहार से मेरी एक रिपोर्ट , ज्सिके वजह से 67 साल बाद , पहली बार १० गाँव के लोग वोट दे पाए थे।
इस रिपोर्ट में दिक्कत ये थी के ये NDA द्वारा समर्थित प्रत्याशी राहुल शर्मा के नाजायज़ वर्चस्व को चुनौती दे रहा था। और नतीजा भी सुख हुआ जब पहली बार, इस रिपोर्ट के चलते राहुल शर्मा को हार का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनके पिता जगदीश शर्मा यहाँ के बेताज बादशाह थे। इस रिपोर्ट की वजह से मुझे और मेरे परिवार को जितनी धमकियाँ और गंदे फ़ोन कॉल्स हुए, उससे मेरे दोस्त वाकिफ हैं। मेरी पत्नी ने मुझे मॉर्निंग वाक करने से रोक दिया है , क्योंकि ज़हन में आशंका है। क्या करें।
हमारे राष्ट्रवादी पत्रकार इन बातों की ओर आपका धयान कभी नहीं खींचेंगे , क्योंकि उनके ज़ेहन में डर है।
मैं सोचता हूँ के मोदीजी जब 5, 10 या 15 साल बाद देश के प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे तो उनकी विरासत क्या होगी ? देशभक्ति , विकास , “सबका साथ” सबका विकास के साथ साथ , दो और शब्द ज़ेहन में आते हैं । कायरता और डर। कायरता मेरी बिरादरी के कुछ पत्रकारों की, जो सुविधावादी पत्रकारिता कर रहे हैं और डर। डर तो बनाया जा रहा है के तुम्हे आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है। वरना!
खामोश तो आप रहते ही हैं और जब आप ऐसे लोगों का अनुमोदन करते हैं मोदीजी जो नफरत फैलाते हैं, तब आप नफरत और हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। और इसमें हम सब भागीदार हैं। आये दिन न्यूज़ चैनल्स पे किसी कट्टर मुसलमान की स्पेशल रिपोर्ट्स देखने को मिलती हैं। ..ज़ाकिर नाइक का ड्रामा देख ही रहे हैं आप. अभी कुछ हुआ भी नहीं है , मगर नाइक को आतंक के सरगना और डॉक्टर टेरर जैसे जुमलों से नवाज़ जाने लगा है। क्यों?
मैं ये कहने का साहस करना चाहता हूँ के क्या इस वक़्त यानी उत्तर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ध्रुवीकरण का प्रयास है ? या मुसलमान को नए सिरे से खलनायक पेश करने की कोशिश है ? क्या मक़सद पश्चिमी उत्तर प्रदेश है ? उसकी कोशिश तो भक्त पत्रकारों को करनी भी नहीं चाहिए। क्योंकि भक्त सेना का बस चले सभी मुसलमान और छद्म उदारवादियों को पाकिस्तान छोड़ के आएंगे। हालांकि “पाकिस्तान पर्यटन एजेंसी” के प्रमुख गिरिराज सिंह उस वक़्त बगले झांकते दिखाई दिए जब खुद मोदीजी वहां पहुँच गए थे।
ये एक संकट काल है। मुझे ये कहने में कोई असमंजस नहीं है। हम सब जानते हैं के परदे के पीछे किस तरह से कुछ पत्रकारों और बुद्दिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है। कैसे दावा किया जाता है के मैंने तो उस पत्रकार को ठिकाने लगा दिया। और मैं ये भी जानता हूँ के आप और विवरण चाहते हैं। मेरा मक़सद ये है भी नहीं। इशारा ही करना था सिर्फ। .और आप लोग तो समझदार हैं। क्यों?
अभिसार शर्मा एक वरिष्ठ पत्रकार हैं।यह लेख पहली मर्तबा लेखक के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ था।
7/26/2016
छीन रहा है 'आधार' आपका का अधिकार ?
वृद्धवस्था पेंशन योजना, जनधन-आधार-मोबाइल (जेएएम) के पहले कदम पर यानि बैंक से ही लोग परेशान हैं.
आधार कार्ड
जब ऐसा होता है, तो लोगों को कहा जाता है बाद में आओ, या कुछ लोगों के लिए मोबाइल पर पासवर्ड भेजने की सुविधा रखी गई है.
सवाल यह उठता है कि राज्य इस तरह की बिना भरोसे की तकनीक को बिना जाँच किए, इतनी हड़बड़ी में क्यों लागू कर रहे हैं? पीडीएस में केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने पिछले मई में राज्यों को दो विकल्प दिए थे, राशन की जगह नकद दो या आधार पीओएस मशीन लगाओ.
प्रेस इन्फ़ॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की 26 अप्रैल की एक विज्ञप्ति में कहा गया कि 66 लाख बोगस कार्ड डिजिटाइज़ेशन की प्रक्रिया से काटे गए हैं. जबकि दो हफ़्ते बाद 10 मई को ही प्रधानमंत्री की समीक्षा बैठक के बाद की विज्ञप्ति में काटे गये कार्डों की संख्या 1.6 करोड़ तक पहुँच गई और दावा किया गया की यह आधार की वजह से था, डिजिटाइज़ेशन से नही.
हो सकता है कि खाद्य मंत्रालय ने दो हफ्तों में अपने आँकड़े अपडेट किए हों. लेकिन इससे अधिक संभावना है कि 1.6 करोड़ का आँकड़ा पिछले 3 साल में कटे कार्डों का है. यह इसलिए कि 8 दिसंबर 2015 की प्रेस विज्ञप्ति में पिछले 3 सालों में कटे ‘बोगस/अपात्र' कार्डों की संख्या 1.2 करोड़ आई थी.
दूसरी बात, प्रेस विज्ञप्ति में ‘बोगस/अपात्र’ का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन दोनों बार हेडलाइन में ‘अपात्र’ शब्द को हटा दिया गया. यह अंतर महत्वपूर्ण है क्योंकि ‘बोगस’ कार्ड काटने में आधार की भूमिका है, लेकिन खाद्य सुरक्षा क़ानून के अंतर्गत 'अपात्र' परिवारों की पहचान में आधार की कोई भूमिका नहीं.
तीसरी बात, विज्ञप्ति में ज़्यादातर राज्य, परिवारों की संख्या बताते हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल ने व्यक्तियों की संख्या बताई है. काटे गये 1.6 करोड़ कार्डों में से 62 लाख बंगाल के हैं यानी काटे गए परिवारों की संख्या ग़लत तरीके से बढ़ा दी गई है.
यूपीए-2 में राजस्थान में कांग्रेस की सरकार ने केरोसिन में डीबीटी को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू किया था. इसमें जब केरोसिन की बिक्री में 80% की गिरावट आई तो सरकार ने दावा किया की डीबीटी से केरोसिन की कालाबाज़ारी ख़त्म हो गई है. फिर पता चला कि गिरावट के दो कारण थे लोगों के खाते नहीं खुले थे इसलिए उन्हें सब्सिडी नहीं मिली और उन्होंने केरोसिन ख़रीदना छोड़ दिया.
साथ ही यह भी माना कि बचत में आधार-डीबीटी के अलावा बाज़ारी भाव की भी भूमिका है. इस स्पष्टीकरण के बावज़ूद, सरकारी विज्ञप्तियां और नीति आयोग भी, ‘संभावित’ बचत को हमेशा ‘वास्तविक’ बचत की तरह प्रस्तुत करते है.
अब सीएजी की रिपोर्ट आई है, जिसमें उन्होंने कहा है कि एलपीजी-डीबीटी की वजह से केवल 2000 करोड़ रुपये बचे हैं न कि 12,000 करोड़ रुपये और बचत कीमतों की गिरावट से हुई है. जबकि सरकार ने इस रिपोर्ट को नकार दिया है.
बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
7/18/2016
भूमि अधिग्रहण पर आखिरकार घुटने टेकने ही वाली है मोदी सरकार!
आज से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को वापस लेने पर विचार कर रही है. यह वही विधेयक है जिसे कानून की शक्ल देने के लिए मोदी सरकार पिछले लगभग डेढ़ साल से साम-दाम-दंड-भेद सब करती रही है. वह दो बार इस विधेयक को संसद में पेश कर चुकी है, तीन बार इससे संबंधित अध्यादेश लागू कर चुकी है, कई बार उस संयुक्त समिति को एक्सटेंशन दे चुकी है जो इसकी समीक्षा के लिए बनाई गई थी और तमाम विरोध के बावजूद इसे लोकसभा से पारित भी करा चुकी है. इतना सब करने और इस विधेयक को अपनी नाक का सवाल बना लेने के बाद आखिर मोदी सरकार इसे वापस क्यों ले रही है? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले भूमि अधिग्रहण के उन पहलुओं को समझते हैं जिनके चलते सरकार को यह विधेयक लाने की जरूरत पड़ी थी.
2013 तक देश में जमीनों का अधिग्रहण ‘भूमि अधिकरण अधिनियम, 1894’ के तहत होता था. पिछली यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस 110 साल पुराने कानून को बदला और इसकी जगह ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013’ लागू किया गया. संक्षेप में इसे ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013’ भी कहा जाता है. एक जनवरी 2014 से प्रभाव में आए इस कानून का तब भाजपा ने भी समर्थन किया था. लेकिन जब देश की सत्ता की कमान भाजपा के हाथों में गई तो उसने इस कानून में संशोधन का मन बना लिया. जानकारों की मानें तो ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि 2013 के कानून के बाद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया बेहद जटिल हो गई थी. नया कानून किसानों के हित में तो था लेकिन इसके तहत सरकार के लिए विकास कार्यों को अंजाम देना बेहद मुश्किल हो गया था. विशेष तौर से मोदी सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ जैसी परियोजनाओं के लिए यह कानून एक बड़ी बाधा बन गया था. लिहाजा उसने इस कानून में संशोधन का मन बनाया.
भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से उसके विरोध में उतर आए. शिवसेना ने तो इस मुद्दे पर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और शिवसैनिकों को निर्देश दिए कि वे किसानों को भूमि अधिग्रहण के कुप्रभाव बताएं
सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही दिसंबर 2014 में मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण से संबंधित एक अध्यादेश जारी कर दिया. इस अध्यादेश को समर्थन देने और 2013 के कानून को संशोधित करने के लिए ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (संशोधन) विधेयक, 2015’ लाया गया. मोदी सरकार के इस फैसले का जमकर विरोध हुआ. विपक्ष ही नहीं बल्कि भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से उसके विरोध में उतर आए. शिवसेना ने तो इस मुद्दे पर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और शिवसैनिकों को निर्देश दिए कि वे किसानों को भूमि अधिग्रहण के कुप्रभाव बताएं. इसके अलावा अकाली दल और लोजपा ने भी इस विधेयक के कई प्रावधानों के खिलाफ सार्वजनिक तौर से नाराजगी जताई.
मोदी सरकार द्वारा लाए गए इस विधेयक का इतना व्यापक विरोध इसलिए हुआ क्योंकि इससे जो बदलाव 2013 के कानून में होने वाले थे, उन्हें पूरी तरह से किसान विरोधी माना जा रहा था. उदाहरण के लिए, इस विधेयक में भूमि उपयोग के आधार पर पांच विशेष श्रेणियां बनाई गईं और इन श्रेणियों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम के कई प्रावधानों के दायरे से बाहर कर दिया गया. 2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि कोई भी जमीन सिर्फ तभी अधिग्रहीत की जा सकती है जब कम-से-कम 70 प्रतिशत जमीन मालिक इसके लिए अनुमति दें. इस प्रावधान को किसानों के लिए सबसे हितकारी माना जाता है. लेकिन संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था. साथ ही भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों और उन पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के मूल्यांकन का जो प्रावधान 2013 के कानून में था, उसे भी इस विधेयक में हटाया जा चुका था. 2013 के कानून में यह भी प्रावधान है कि यदि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर ज़मीन पर वह कार्य शुरू नहीं किया जाता जिसके लिए वह अधिग्रहीत की गई थी, तो वह ज़मीन उसके मूल मालिकों को वापस कर दी जाएगी. इस प्रावधान को कुंद करने के उपाय भी संशोधन विधेयक में किये गए थे.
मोदी सरकार पर इस संशोधन विधेयक के चलते यह भी आरोप लग रहे थे कि वह इसके जरिये दोषी अधिकारियों को बचाने की कोशिश कर रही है. दरअसल 2013 के कानून में प्रावधान है कि यदि भूमि अधिग्रहण के दौरान सरकार कोई बेमानी या अपराध करती है तो संबंधित विभाग के अध्यक्ष को इसका दोषी माना जाएगा. लेकिन संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को बदलकर यह व्यवस्था बनाई गई कि अपराध के आरोपित किसी सरकारी अधिकारी पर सरकार की अनुमति के बिना कोई मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा. इन्हीं तमाम विवादास्पद पहलुओं के चलते मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण पर चौतरफा घिरने लगी थी. जनता के बीच यह संदेश बेहद मजबूती से जा चुका था कि भूमि अधिग्रहण में जो संशोधन मोदी सरकार करना चाहती है वे पूरी तरह से किसान-विरोधी और कॉरपोरेट के हित साधने वाले हैं.
मोदी सरकार के इन प्रयासों और अध्यादेशों का यह सिलसिला आखिरकार तब थमा जब बिहार विधान सभा चुनाव सर पर आ गए. भाजपा जानती थी कि इस प्रदेश में ‘किसान-विरोधी’ होने की पहचान उसके लिए घातक हो सकती है
भूमि अधिग्रहण विधेयक के चलते मोदी सरकार की छवि लगातार खराब हो रही थी लेकिन फिर भी सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं थी. जानकारों की मानें तो इसके दो मुख्य कारण थे. पहला तो यह कि यदि अपने कार्यकाल के पहले ही साल में मोदी सरकार अपने फैसले से पीछे हट जाती तो उसकी ‘मजबूर नेता और दृढ नेतृत्व’ की छवि को बड़ा झटका लग सकता था. दूसरा कारण यह था कि 2013 के क़ानून में संशोधन किये बिना किसानों से जमीन लेना बेहद मुश्किल था. लिहाजा स्मार्ट सिटी बसाने से लेकर मेक इन इंडिया तक की रफ़्तार धीमी होती दिख रही थी. इसलिए मोदी सरकार ने इस विधेयक को कानून का रूप देने के लिए कभी विरोधियों को मनाने की कोशिशें की तो कभी संसद में इसका जमकर बचाव किया, कभी सीधे किसानों को अपने पक्ष में करने के प्रयत्न किये तो कभी एक के बाद एक अध्यादेश लाकर भूमि अधिग्रहण को अपने अनुकूल बनाया चाहा. मोदी सरकार के इन प्रयासों और अध्यादेशों का यह सिलसिला आखिरकार तब थमा जब बिहार विधान सभा चुनाव सर पर आ गए. भाजपा जानती थी कि इस प्रदेश में ‘किसान-विरोधी’ होने की पहचान उसके लिए घातक हो सकती है.
बिहार चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जरिये लोगों को बताया कि भूमि अधिग्रहण पर अब उनकी सरकार चौथा अध्यादेश नहीं लाएगी. जानकार मानते हैं कि बिहार के मतदाताओं और मुख्यतः किसानों को लुभाने के लिए मोदी सरकार ने जब यह कदम उठाया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इसीलिए अब भाजपा उत्तर प्रदेश में वही गलती नहीं दोहराना चाहती. सूत्रों की मानें तो आने वाले संसद सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक वापस लेना का जो फैसला मोदी सरकार ने किया है, वह इसी गलती को सुधरने की दिशा में उठाया गया कदम है. उत्तर प्रदेश जैसे कृषि प्रधान राज्य में भाजपा विपक्ष को ऐसा कोई मौक़ा नहीं देना चाहती जिससे वे उस पर किसान विरोधी होने का आरोप लगा सकें.
भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक फिलहाल राज्यसभा में लंबित है. इस पर संसद की उस संयुक्त समिति की रिपोर्ट आना भी बाकी है जिसे इसकी समीक्षा के लिए बना गया था. इस 30 सदस्यीय समिति के अध्यक्ष एसएस अहलुवालिया अब केन्द्रीय मंत्री हैं लिहाजा उनकी जगह किसी और को इस समिति का अध्यक्ष बनाया जाना है जिसके बाद ही समिति अपनी रिपोर्ट सौंप सकेगी. चर्चा है कि यह समिति इस विधेयक के अधिकांश बिन्दुओं पर अपनी रिपोर्ट तैयार कर चुकी है और यह मोदी सरकार के अनुकूल नहीं होने जा रही है. लिहाजा मोदी सरकार के पास इस विधेयक पर अड़े रहने के लगभग सभी कारण समाप्त होते दिख रहे हैं.
राज्यसभा में बहुमत न होने के चलते भाजपा के लिए वैसे भी यह असंभव ही था कि वह इस विधेयक को कानून की शक्ल दे सके. हालांकि संयुक्त सत्र बुलाने का एक अंतिम विकल्प भाजपा के पास जरूर था जो इस विधेयक को कानून में बदल सकता था. लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य में चुनावों के लिए जाने से ठीक पहले ऐसा कोई कदम उठाना भाजपा के लिए निश्चित ही आत्मघाती साबित होता. इसलिए भाजपा स्वयं ही इस विधेयक को वापस लेकर ‘डैमेज कंट्रोल’ कर लेना चाहती है.