आज से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को वापस लेने पर विचार कर रही है. यह वही विधेयक है जिसे कानून की शक्ल देने के लिए मोदी सरकार पिछले लगभग डेढ़ साल से साम-दाम-दंड-भेद सब करती रही है. वह दो बार इस विधेयक को संसद में पेश कर चुकी है, तीन बार इससे संबंधित अध्यादेश लागू कर चुकी है, कई बार उस संयुक्त समिति को एक्सटेंशन दे चुकी है जो इसकी समीक्षा के लिए बनाई गई थी और तमाम विरोध के बावजूद इसे लोकसभा से पारित भी करा चुकी है. इतना सब करने और इस विधेयक को अपनी नाक का सवाल बना लेने के बाद आखिर मोदी सरकार इसे वापस क्यों ले रही है? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले भूमि अधिग्रहण के उन पहलुओं को समझते हैं जिनके चलते सरकार को यह विधेयक लाने की जरूरत पड़ी थी.
2013 तक देश में जमीनों का अधिग्रहण ‘भूमि अधिकरण अधिनियम, 1894’ के तहत होता था. पिछली यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस 110 साल पुराने कानून को बदला और इसकी जगह ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013’ लागू किया गया. संक्षेप में इसे ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013’ भी कहा जाता है. एक जनवरी 2014 से प्रभाव में आए इस कानून का तब भाजपा ने भी समर्थन किया था. लेकिन जब देश की सत्ता की कमान भाजपा के हाथों में गई तो उसने इस कानून में संशोधन का मन बना लिया. जानकारों की मानें तो ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि 2013 के कानून के बाद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया बेहद जटिल हो गई थी. नया कानून किसानों के हित में तो था लेकिन इसके तहत सरकार के लिए विकास कार्यों को अंजाम देना बेहद मुश्किल हो गया था. विशेष तौर से मोदी सरकार की ‘स्मार्ट सिटी’ जैसी परियोजनाओं के लिए यह कानून एक बड़ी बाधा बन गया था. लिहाजा उसने इस कानून में संशोधन का मन बनाया.
भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से उसके विरोध में उतर आए. शिवसेना ने तो इस मुद्दे पर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और शिवसैनिकों को निर्देश दिए कि वे किसानों को भूमि अधिग्रहण के कुप्रभाव बताएं
सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही दिसंबर 2014 में मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण से संबंधित एक अध्यादेश जारी कर दिया. इस अध्यादेश को समर्थन देने और 2013 के कानून को संशोधित करने के लिए ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (संशोधन) विधेयक, 2015’ लाया गया. मोदी सरकार के इस फैसले का जमकर विरोध हुआ. विपक्ष ही नहीं बल्कि भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से उसके विरोध में उतर आए. शिवसेना ने तो इस मुद्दे पर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और शिवसैनिकों को निर्देश दिए कि वे किसानों को भूमि अधिग्रहण के कुप्रभाव बताएं. इसके अलावा अकाली दल और लोजपा ने भी इस विधेयक के कई प्रावधानों के खिलाफ सार्वजनिक तौर से नाराजगी जताई.
मोदी सरकार द्वारा लाए गए इस विधेयक का इतना व्यापक विरोध इसलिए हुआ क्योंकि इससे जो बदलाव 2013 के कानून में होने वाले थे, उन्हें पूरी तरह से किसान विरोधी माना जा रहा था. उदाहरण के लिए, इस विधेयक में भूमि उपयोग के आधार पर पांच विशेष श्रेणियां बनाई गईं और इन श्रेणियों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम के कई प्रावधानों के दायरे से बाहर कर दिया गया. 2013 के कानून में यह भी प्रावधान था कि कोई भी जमीन सिर्फ तभी अधिग्रहीत की जा सकती है जब कम-से-कम 70 प्रतिशत जमीन मालिक इसके लिए अनुमति दें. इस प्रावधान को किसानों के लिए सबसे हितकारी माना जाता है. लेकिन संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था. साथ ही भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवारों और उन पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के मूल्यांकन का जो प्रावधान 2013 के कानून में था, उसे भी इस विधेयक में हटाया जा चुका था. 2013 के कानून में यह भी प्रावधान है कि यदि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर ज़मीन पर वह कार्य शुरू नहीं किया जाता जिसके लिए वह अधिग्रहीत की गई थी, तो वह ज़मीन उसके मूल मालिकों को वापस कर दी जाएगी. इस प्रावधान को कुंद करने के उपाय भी संशोधन विधेयक में किये गए थे.
मोदी सरकार पर इस संशोधन विधेयक के चलते यह भी आरोप लग रहे थे कि वह इसके जरिये दोषी अधिकारियों को बचाने की कोशिश कर रही है. दरअसल 2013 के कानून में प्रावधान है कि यदि भूमि अधिग्रहण के दौरान सरकार कोई बेमानी या अपराध करती है तो संबंधित विभाग के अध्यक्ष को इसका दोषी माना जाएगा. लेकिन संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को बदलकर यह व्यवस्था बनाई गई कि अपराध के आरोपित किसी सरकारी अधिकारी पर सरकार की अनुमति के बिना कोई मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा. इन्हीं तमाम विवादास्पद पहलुओं के चलते मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण पर चौतरफा घिरने लगी थी. जनता के बीच यह संदेश बेहद मजबूती से जा चुका था कि भूमि अधिग्रहण में जो संशोधन मोदी सरकार करना चाहती है वे पूरी तरह से किसान-विरोधी और कॉरपोरेट के हित साधने वाले हैं.
मोदी सरकार के इन प्रयासों और अध्यादेशों का यह सिलसिला आखिरकार तब थमा जब बिहार विधान सभा चुनाव सर पर आ गए. भाजपा जानती थी कि इस प्रदेश में ‘किसान-विरोधी’ होने की पहचान उसके लिए घातक हो सकती है
भूमि अधिग्रहण विधेयक के चलते मोदी सरकार की छवि लगातार खराब हो रही थी लेकिन फिर भी सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं थी. जानकारों की मानें तो इसके दो मुख्य कारण थे. पहला तो यह कि यदि अपने कार्यकाल के पहले ही साल में मोदी सरकार अपने फैसले से पीछे हट जाती तो उसकी ‘मजबूर नेता और दृढ नेतृत्व’ की छवि को बड़ा झटका लग सकता था. दूसरा कारण यह था कि 2013 के क़ानून में संशोधन किये बिना किसानों से जमीन लेना बेहद मुश्किल था. लिहाजा स्मार्ट सिटी बसाने से लेकर मेक इन इंडिया तक की रफ़्तार धीमी होती दिख रही थी. इसलिए मोदी सरकार ने इस विधेयक को कानून का रूप देने के लिए कभी विरोधियों को मनाने की कोशिशें की तो कभी संसद में इसका जमकर बचाव किया, कभी सीधे किसानों को अपने पक्ष में करने के प्रयत्न किये तो कभी एक के बाद एक अध्यादेश लाकर भूमि अधिग्रहण को अपने अनुकूल बनाया चाहा. मोदी सरकार के इन प्रयासों और अध्यादेशों का यह सिलसिला आखिरकार तब थमा जब बिहार विधान सभा चुनाव सर पर आ गए. भाजपा जानती थी कि इस प्रदेश में ‘किसान-विरोधी’ होने की पहचान उसके लिए घातक हो सकती है.
बिहार चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जरिये लोगों को बताया कि भूमि अधिग्रहण पर अब उनकी सरकार चौथा अध्यादेश नहीं लाएगी. जानकार मानते हैं कि बिहार के मतदाताओं और मुख्यतः किसानों को लुभाने के लिए मोदी सरकार ने जब यह कदम उठाया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इसीलिए अब भाजपा उत्तर प्रदेश में वही गलती नहीं दोहराना चाहती. सूत्रों की मानें तो आने वाले संसद सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक वापस लेना का जो फैसला मोदी सरकार ने किया है, वह इसी गलती को सुधरने की दिशा में उठाया गया कदम है. उत्तर प्रदेश जैसे कृषि प्रधान राज्य में भाजपा विपक्ष को ऐसा कोई मौक़ा नहीं देना चाहती जिससे वे उस पर किसान विरोधी होने का आरोप लगा सकें.
भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक फिलहाल राज्यसभा में लंबित है. इस पर संसद की उस संयुक्त समिति की रिपोर्ट आना भी बाकी है जिसे इसकी समीक्षा के लिए बना गया था. इस 30 सदस्यीय समिति के अध्यक्ष एसएस अहलुवालिया अब केन्द्रीय मंत्री हैं लिहाजा उनकी जगह किसी और को इस समिति का अध्यक्ष बनाया जाना है जिसके बाद ही समिति अपनी रिपोर्ट सौंप सकेगी. चर्चा है कि यह समिति इस विधेयक के अधिकांश बिन्दुओं पर अपनी रिपोर्ट तैयार कर चुकी है और यह मोदी सरकार के अनुकूल नहीं होने जा रही है. लिहाजा मोदी सरकार के पास इस विधेयक पर अड़े रहने के लगभग सभी कारण समाप्त होते दिख रहे हैं.
राज्यसभा में बहुमत न होने के चलते भाजपा के लिए वैसे भी यह असंभव ही था कि वह इस विधेयक को कानून की शक्ल दे सके. हालांकि संयुक्त सत्र बुलाने का एक अंतिम विकल्प भाजपा के पास जरूर था जो इस विधेयक को कानून में बदल सकता था. लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य में चुनावों के लिए जाने से ठीक पहले ऐसा कोई कदम उठाना भाजपा के लिए निश्चित ही आत्मघाती साबित होता. इसलिए भाजपा स्वयं ही इस विधेयक को वापस लेकर ‘डैमेज कंट्रोल’ कर लेना चाहती है.
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