सिविल सर्विसेज में हर साल हिंदी माध्यम से सेलेक्टेड बच्चे कम होते जा रहे हैं. अब नए परीक्षार्थियों के मन में कई तरह के सवाल और डर पैदा हो रहे हैं. लोग हदस गए हैं कि अब तो कुछ नहीं हो सकता. यहां ‘विकास दिव्यकीर्ति’ हर साल के रिजल्ट का विश्लेषण करते हुए परीक्षार्थियों के उसी डर को संबोधित कर रहे हैं. विकास खुद एक सिविल सर्वेंट रह चुके हैं. अभी वो हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों के लिए दृष्टि के नाम से कोचिंग चलाते हैं. पढ़िए उनका खुला ख़त:
प्रिय साथियों,
सिविल सेवा परीक्षा 2015 का अंतिम परिणाम आ चुका है. आपमें से कुछ व्यक्तियों का चयन हो गया होगा. कुछ मंज़िल के एकदम नज़दीक पहुंचकर भी उसे हासिल करने से चूक गए होंगे. कुछ ऐसे भी होंगे जिन्होंने यह परीक्षा नहीं दी पर उनके कुछ नज़दीकी मित्र इस परीक्षा में सफल या विफल हुए होंगे. अगर आप इनमें से किसी भी वर्ग में शामिल नहीं हैं तो भी आपने अखबारों और न्यूज़ चैनलों पर इस परीक्षा के परिणाम से संबंधित चर्चाएं तो देखी ही होंगी.
एक चीज आपने जरूर नोटिस की होगी कि हिंदी माध्यम का परिणाम दिनों-दिन कमज़ोर होता जा रहा है.
तैयारी करनेवालों को संदेह हुआ होगा कि इस परीक्षा की तैयारी हिंदी माध्यम से करने का निर्णय ठीक है या नहीं. कुछ दूसरे सवाल भी मन में ज़रूर कुलबुलाते होंगे. जैसे कि क्या हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की दिमागी क्षमता अंग्रेज़ी माध्यम के प्रतिस्पर्द्धियों से कम होती है? या वे मेहनत कम करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि यूपीएससी ही उनके खिलाफ कोई साजिश करती है?
दरअसल इस मुद्दे पर हम सभी को गहन मंथन की ज़रूरत है.
सिर्फ सरकारी नीतियों और यूपीएससी की कथित साजिशों पर मंथन नहीं. बल्कि आत्मविश्लेषण व आत्म-आलोचना होनी चाहिये. मतलब, समस्या की जड़ों को खोजते समय हम सिर्फ बाहर की ओर न ताकें. बल्कि अपने भीतर झांककर विश्लेषण करें कि इस ‘सामूहिक विफलता’ में हमारी कोई हिस्सेदारी बनती है या नहीं? और अगर बनती है तो वह कितनी है? फिर, इस समस्या को किस तरह दूर किया जा सकता है?
पहले इस सवाल पर विचार करते हैं कि क्या 2015 का परिणाम सचमुच इतना बुरा है?
सच बात यह है कि ऐसा नहीं है. हिंदी माध्यम का परिणाम पिछले कुछ वर्षों में (विशेषतः 2013 से) लगातार ऐसा ही आ रहा है. बस एक अपवाद था. पिछले साल हिंदी माध्यम के ‘निशांत जैन’ ने 13वें रैंक पर कब्जा जमा लिया था. पर इस खबर ने समूचे हिंदी संसार को इतना आह्लादित कर दिया था कि उसे बाकी तथ्य दिखाई देने बंद हो गए थे. इस बात पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया था कि 13वें रैंक के बाद हिंदी माध्यम से अगला रैंक 189वां था जो ‘सूरज सिंह’ को हासिल हुआ था. मतलब पिछले वर्ष पहले 200 स्थानों पर हिंदी माध्यम के सिर्फ 2 उम्मीदवार थे- पहले 100 में सिर्फ 1 और अगले 100 में भी सिर्फ 1. पूरे रिजल्ट में कुल 50-60. 2013 में तो यह संख्या सिर्फ 26 (3% से भी कम) रह गई थी. उस वर्ष हिंदी माध्यम से सबसे उंचा स्थान 107 वां था यानी पहले 100 स्थानों पर हिंदी माध्यम का एक भी उम्मीदवार नहीं था।
इस वर्ष पहले 100 स्थानों में हिंदी माध्यम को 2 स्थान हासिल हुए हैं- 62वां तथा 99वां.
इसके बाद अगले 100 में कम से कम 1 रैंक (170वां) तो है ही. कुल संख्या इस वर्ष भी संभवतः 50-60 के बीच ही है. इस प्राथमिक विश्लेषण से दो बातें समझ में आती हैं- पहली यह कि हिंदी माध्यम का परिणाम जितना होना चाहिये था, उससे बहुत कम है. और दूसरी यह कि पिछले 2 वर्षों की तुलना में इस बार हिंदी माध्यम का परिणाम कुछ बेहतर ही हुआ है. हां, इतना ज़रूर है कि इस बार एकदम शुरुआती स्थानों पर कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं है जिसे देखकर हिंदी संसार अपना गम भूल सके, खुद को सुखद कल्पनाओं में डुबा सके.
2002 और 2008 की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम का शानदार परिणाम था. 2002 में ‘अजय मिश्र’ की पांचवीं रैंक. 2008 में ‘किरण कौशल’ का तीसरी रैंक. और इन दोनों ही वर्षों में पहले 100 स्थानों में कम से कम 10-20 स्थानों पर हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों का कब्जा. वैसा आजकल क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या 2008 के बाद परीक्षा देने वाले उम्मीदवारों की बौद्धिक योग्यता कम हो गई है या वे मेहनत नहीं करते?
असली बात यह है कि अभी तक हिंदी संसार सिविल सेवा परीक्षा की संरचना में हुए बदलाव को पूरी तरह पचा नहीं सका है. इन बदलावों में से कुछ को पूरी तरह संतुलित करना तो शायद संभव नहीं है. किंतु जिस अनुपात में संभव है, हिंदी संसार अभी तक उसे भी नहीं साध पा रहा है.
2002 और 2008 की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम का शानदार परिणाम था. 2002 में ‘अजय मिश्र’ की पांचवीं रैंक. 2008 में ‘किरण कौशल’ का तीसरी रैंक. और इन दोनों ही वर्षों में पहले 100 स्थानों में कम से कम 10-20 स्थानों पर हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों का कब्जा. वैसा आजकल क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या 2008 के बाद परीक्षा देने वाले उम्मीदवारों की बौद्धिक योग्यता कम हो गई है या वे मेहनत नहीं करते?
असली बात यह है कि अभी तक हिंदी संसार सिविल सेवा परीक्षा की संरचना में हुए बदलाव को पूरी तरह पचा नहीं सका है. इन बदलावों में से कुछ को पूरी तरह संतुलित करना तो शायद संभव नहीं है. किंतु जिस अनुपात में संभव है, हिंदी संसार अभी तक उसे भी नहीं साध पा रहा है.
यह कहना बहुत आसान है कि यूपीएससी ही हिंदी माध्यम के विरुद्ध साजिश करने में जुटी है. पर इस सवाल का जवाब हममें से किसी के पास नहीं है कि अगर इस बदली हुई संरचना में भी निशांत जैन जैसा प्रत्याशी 13वां स्थान हासिल कर सकता है, अनुराधा पाल 62वें रैंक पर कब्जा जमा सकती हैं तो बाकी उम्मीदवार ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
जहां तक मेरी समझ है, इस मामले में ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं. खुद इस परीक्षा का लंबा और प्रत्यक्ष अनुभव रखने के आधार पर मेरी समझ यह है कि 2013 से हुए संरचनात्मक बदलावों के बाद हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों के लिये डगर कुछ मुश्किल हो गई है. इससे पहले की परीक्षा पद्धति में 2 वैकल्पिक विषय होते थे. मुख्य परीक्षा में इन दोनों की सामूहिक हिस्सेदारी 60% (1200/2000) अंकों की थी. सामान्य अध्ययन की भूमिका सिर्फ 30% (600/2000) थी. गौरतलब है कि सामान्य अध्ययन में हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों को पिछले 20 वर्षों में कभी भी अंग्रेज़ी माध्यम की तुलना में बराबर या अधिक अंक नहीं मिले हैं. इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे – अंग्रेज़ी माध्यम में बेहतर और नई पाठ्य सामग्री का होना, ‘द हिंदू’ जैसे अखबार की उपस्थिति, मॉडल उत्तरों का सिर्फ अंग्रेज़ी भाषा में होना और कुछ परीक्षकों का हिंदी व भारतीय भाषाओं के प्रति अस्वस्थ नज़रिया इत्यादि.
जहां तक मेरी समझ है, इस मामले में ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं. खुद इस परीक्षा का लंबा और प्रत्यक्ष अनुभव रखने के आधार पर मेरी समझ यह है कि 2013 से हुए संरचनात्मक बदलावों के बाद हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों के लिये डगर कुछ मुश्किल हो गई है. इससे पहले की परीक्षा पद्धति में 2 वैकल्पिक विषय होते थे. मुख्य परीक्षा में इन दोनों की सामूहिक हिस्सेदारी 60% (1200/2000) अंकों की थी. सामान्य अध्ययन की भूमिका सिर्फ 30% (600/2000) थी. गौरतलब है कि सामान्य अध्ययन में हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों को पिछले 20 वर्षों में कभी भी अंग्रेज़ी माध्यम की तुलना में बराबर या अधिक अंक नहीं मिले हैं. इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे – अंग्रेज़ी माध्यम में बेहतर और नई पाठ्य सामग्री का होना, ‘द हिंदू’ जैसे अखबार की उपस्थिति, मॉडल उत्तरों का सिर्फ अंग्रेज़ी भाषा में होना और कुछ परीक्षकों का हिंदी व भारतीय भाषाओं के प्रति अस्वस्थ नज़रिया इत्यादि.
अगर आप पिछले 20 वर्षों में से किसी भी वर्ष दोनों माध्यमों में सामान्य अध्ययन के सर्वोच्च अंकों की तुलना करेंगे तो पाएंगे कि अंग्रेज़ी माध्यम का टॉपर हिंदी माध्यम के टॉपर की तुलना में 30-40 अंक ऊपर होगा. इस नुकसान की भरपाई हिंदी माध्यम के उम्मीदवार अपने वैकल्पिक विषयों के
माध्यम से करते रहे हैं. आप 2013 से पहले हिंदी माध्यम के किसी भी टॉपर की अंक तालिका उठाकर देख लीजिये. आप पाएंगे कि उसने अपने वैकल्पिक विषयों और निबंध में उस नुकसान की भरपाई की होगी जो उसे सामान्य अध्ययन में हुआ था.
2013 से हुआ यह है कि अब सामान्य अध्ययन का वज़न बढ़कर लगभग 57% (1000/1750) हो गया है जबकि वैकल्पिक विषय (जो कि अब 2 के बजाय 1 रह गया है) का वज़न घटकर सिर्फ 29% (500/1750) रह गया है. इसका सीधा मतलब है कि अब युद्ध का मैदान और उसके नियम बदल गए हैं. जो लोग आज भी परंपरागत प्रणाली से इस रण में जुटे हैं, वे समझ नहीं पा रहे कि सफल होने के लिये किस रण-नीति की ज़रूरत है? वे रात-दिन मेहनत करते हैं पर परीक्षा प्रणाली के बदलाव को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण उनकी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं.
माध्यम से करते रहे हैं. आप 2013 से पहले हिंदी माध्यम के किसी भी टॉपर की अंक तालिका उठाकर देख लीजिये. आप पाएंगे कि उसने अपने वैकल्पिक विषयों और निबंध में उस नुकसान की भरपाई की होगी जो उसे सामान्य अध्ययन में हुआ था.
2013 से हुआ यह है कि अब सामान्य अध्ययन का वज़न बढ़कर लगभग 57% (1000/1750) हो गया है जबकि वैकल्पिक विषय (जो कि अब 2 के बजाय 1 रह गया है) का वज़न घटकर सिर्फ 29% (500/1750) रह गया है. इसका सीधा मतलब है कि अब युद्ध का मैदान और उसके नियम बदल गए हैं. जो लोग आज भी परंपरागत प्रणाली से इस रण में जुटे हैं, वे समझ नहीं पा रहे कि सफल होने के लिये किस रण-नीति की ज़रूरत है? वे रात-दिन मेहनत करते हैं पर परीक्षा प्रणाली के बदलाव को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण उनकी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं.
रणनीति: राम की शक्ति पूजा
हिंदी माध्यम के कुछ बेहतरीन और जुझारू उम्मीदवारों को जब मैं हताश होते हुए देखता हूँ तो ‘निराला’ की कालजयी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ का स्मरण हो आता है. राम रावण से युद्ध जीतने की हर संभव चेष्टा कर रहे हैं. पर दाल बिल्कुल नहीं गल रही. वे समझ नहीं पा रहे कि रावण से ज्यादा नैतिक और साहसी होने के बावजूद वे क्यों नहीं जीत पा रहे?
बात धीरे-धीरे खुलती है. रावण ने युद्ध से पहले कठोर साधना की बदौलत शक्ति अर्थात् दुर्गा को ही अपने पक्ष में कर लिया है. राम नैतिक तो हैं किंतु शक्ति उनके पक्ष में नहीं है. खुद राम नहीं समझ पा रहे कि इस संकट का क्या समाधान हो सकता है? तभी उनके एक सहयोगी उन्हें सुझाव देते हुए कहते हैं- ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ . वे शक्ति की मौलिक कल्पना का अर्थ भी समझाते हैं- ‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’ यानी जितनी कठोर साधना रावण ने की है, आप उससे भी अधिक कठोर साधना करें. क्योंकि शक्ति सिर्फ नैतिक होने से हासिल नहीं होती, उसके लिये ‘कठोर साधना’ करनी ही पड़ती है.
बात धीरे-धीरे खुलती है. रावण ने युद्ध से पहले कठोर साधना की बदौलत शक्ति अर्थात् दुर्गा को ही अपने पक्ष में कर लिया है. राम नैतिक तो हैं किंतु शक्ति उनके पक्ष में नहीं है. खुद राम नहीं समझ पा रहे कि इस संकट का क्या समाधान हो सकता है? तभी उनके एक सहयोगी उन्हें सुझाव देते हुए कहते हैं- ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ . वे शक्ति की मौलिक कल्पना का अर्थ भी समझाते हैं- ‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’ यानी जितनी कठोर साधना रावण ने की है, आप उससे भी अधिक कठोर साधना करें. क्योंकि शक्ति सिर्फ नैतिक होने से हासिल नहीं होती, उसके लिये ‘कठोर साधना’ करनी ही पड़ती है.
राम इस सलाह को मानकर कठोर साधना करने लगते हैं. सिद्धांततः 108वां फूल अर्पित करने पर उनकी सुदीर्घ तपस्या सफल होनी है. पर 8 दिन लगातार चलने वाली यह साधना जब अंतिम चरण पर आती है तो दुर्गा राम की परीक्षा लेने के लिये अंतिम यानी 108वां फूल स्वयं उठाकर ले जाती हैं.
जब राम फूल उठाने के लिये हाथ बढ़ाते हैं तो कुछ हाथ नहीं लगता है. वे घोर हताशा और आत्म-धिक्कार से भर उठते हैं. फिर उन्हें याद आता है कि उनकी मां उनकी आंखों को कमल के फूल जैसा बताती थीं. बस, वे निश्चय कर लेते हैं कि 108वें फूल की जगह वे अपनी एक आंख अर्पित करेंगे. जैसे ही वे अपनी आंख निकालने के लिये हाथ में तीर को कसकर पकड़ लेते हैं, ब्रह्मांड कांपने लगता है. दुर्गा को मजबूरन आकर उन्हें विजय का आशीर्वाद देना पड़ता है. इसी बिंदु पर यह कविता समाप्त होती है.
जब राम फूल उठाने के लिये हाथ बढ़ाते हैं तो कुछ हाथ नहीं लगता है. वे घोर हताशा और आत्म-धिक्कार से भर उठते हैं. फिर उन्हें याद आता है कि उनकी मां उनकी आंखों को कमल के फूल जैसा बताती थीं. बस, वे निश्चय कर लेते हैं कि 108वें फूल की जगह वे अपनी एक आंख अर्पित करेंगे. जैसे ही वे अपनी आंख निकालने के लिये हाथ में तीर को कसकर पकड़ लेते हैं, ब्रह्मांड कांपने लगता है. दुर्गा को मजबूरन आकर उन्हें विजय का आशीर्वाद देना पड़ता है. इसी बिंदु पर यह कविता समाप्त होती है.
रणनीति: आप की शक्ति-पूजा
आप समझ ही गए होंगे कि यहां इस कविता का सारांश लिखने की वजह क्या रही होगी? मेरा ख्याल है कि हिंदी माध्यम के गंभीर विद्यार्थी इस कविता के हताश राम की तरह हैं जो अपने अस्त्र-शस्त्र विफल होते हुए देखकर भौंचक्के हैं. उन्हें यह समझने की ज़रूरत है कि ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ किये बिना वे इस एकतरफा युद्ध में सफल नहीं हो सकते. ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ सिर्फ इतनी है कि जिन प्रश्न-पत्रों में उनकी भाषा सीमा नहीं है बल्कि उनकी शक्ति बन सकती है; वहां वे अपनी ताकत का भरपूर इस्तेमाल करें. सीधी भाषा में कहूं तो वे निबंध और वैकल्पिक विषय में महारत हासिल करें. कम से कम 20 से 30 बार निबंध लिखने का अभ्यास करें. अच्छे-अच्छे उद्धरणों के प्रयोग से उसे प्रभावशाली बनायें. भूमिका से लेकर निष्कर्ष तक ऐसा प्रवाह और कसाव कायम करें कि परीक्षक निबंध पढ़ते हुए आनंद में डूब जाए. और शानदार अंक देने को मजबूर हो उठे.
वैकल्पिक विषय का चयन करते समय भी बेहद सावधानी बरतें. किसी की ऊट-पटांग सलाह को मानने की बजाय वही विषय चुनें जो हिंदी माध्यम में अच्छे अंकों की प्रबल संभावना से भरे हैं. साहित्य के विषय इस पैमाने पर सबसे बेहतर हैं. उसके बाद एक-दो विषय ही हिंदी माध्यम को संभालने की कुव्वत रखते है. सही विषय चुनकर उसे इस तरह तैयार करें कि एक-एक उत्तर पढ़कर परीक्षक आपकी परिपक्वता और गहराई का मुरीद हो उठे.
वैकल्पिक विषय का चयन करते समय भी बेहद सावधानी बरतें. किसी की ऊट-पटांग सलाह को मानने की बजाय वही विषय चुनें जो हिंदी माध्यम में अच्छे अंकों की प्रबल संभावना से भरे हैं. साहित्य के विषय इस पैमाने पर सबसे बेहतर हैं. उसके बाद एक-दो विषय ही हिंदी माध्यम को संभालने की कुव्वत रखते है. सही विषय चुनकर उसे इस तरह तैयार करें कि एक-एक उत्तर पढ़कर परीक्षक आपकी परिपक्वता और गहराई का मुरीद हो उठे.
यह मानकर चलिये कि सामान्य अध्ययन में थोड़ी-बहुत कमी रह ही जाएगी पर उसे भी दूर करने का कोई मौका न गवाएं. उदाहरण के लिये, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-1 और 4 का समसामयिक मुद्दों से काफी कम संबंध है. उनमें हिंदी माध्यम के पीछे रहने की कोई वजह नहीं है. अगर इन प्रश्न-पत्रों पर लेखन का गंभीर अभ्यास कर लिया जाए तो पहली रैंक भले न आए, पहले 100 में तो कब्जा जमाया ही जा सकता है.
अपनी भाषा को धारदार बनाने के लिये रोज़ाना कम से कम एक घंटा दें. समय-सीमा का पालन करते हुए प्रश्नों का उत्तर लिखें. मुख्य परीक्षा संपन्न होते ही इंटरव्यू की तैयारी में विधिवत जुट जाएं. बिना इस बात की परवाह किये कि मुख्य परीक्षा में सफलता मिलेगी या नहीं. आप इतनी तपस्या करेंगे तो अंतिम सफलता कैसे नहीं मिलेगी?
अपनी भाषा को धारदार बनाने के लिये रोज़ाना कम से कम एक घंटा दें. समय-सीमा का पालन करते हुए प्रश्नों का उत्तर लिखें. मुख्य परीक्षा संपन्न होते ही इंटरव्यू की तैयारी में विधिवत जुट जाएं. बिना इस बात की परवाह किये कि मुख्य परीक्षा में सफलता मिलेगी या नहीं. आप इतनी तपस्या करेंगे तो अंतिम सफलता कैसे नहीं मिलेगी?
शुभकामनाओं सहित,
(विकास दिव्यकीर्ति)
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