11/16/2016

एक कविता गरीबी की

कभी देखती हूँ खाली कढ़ाही को, कभी बच्चों के खाली पेट को,
साहब कभी मन को अपने मार कर देखती हूँ खाली पड़ी प्लेट को।

सभी को पता हैं हालात ऐ गरीब पर देखो साहब सभी मौन हैं,
एक वक़्त खाली ही रह जाती है थाली देखकर चीजों के रेट को।

तन पर जो कपड़ा है वो भी शर्मिंदा है घिस घिस कर फट जाने पर,
भीख क्या काम भी नहीं मिलता देखा खटखटा कर हर गेट को।

दर्द चेहरे से झलकता है हमारे कहने को यही कहते हैं सभी,
पर फिर भी लाज नहीं आती हमारा ही खून चूसते हुए सेठ को।

अपनी रोटियाँ सेंकते हैं राजनेता हमारे अरमानों के चूल्हे पर,
साहब देखिये खेल तकदीर का हम गरीबों को ही चढ़ाते भेंट को।

ख़ुशी किसे कहते हैं साहब हम गरीब भूल ही बैठे हैं कसम से,
लिखा जिस पर दर्द हमारा सुलक्षणा संभाल कर रखना उस स्लेट को।

लेखक
डॉ. सुलक्षणा अहलावत

प्रस्तुति
एल.के शर्मा

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